साथ-साथ

Friday, January 29, 2010

दीवारें टूटेंगी

बांटा, उसने बांटा
आदम को
धरती को
एक नहीं सौ बार
हजारों टुकड़ों में बांटा !
तुम्हें भेजकर मंदिर
उसे भेजकर मस्जिद
खा गया सारा आटा !
जाग सबेरे, दे अजान
तू चीख, जोर - जोर से कीर्तन-गान
मगर नींद से नहीं उठेगा
तेरा पत्थर का भगवान
वह नहीं जानता
दिल की धड़कन
और खून का बहना
पत्थर से पत्थर टकराओ
टूटेगा सन्नाटा -
नई राह निकलेगी,
फूटेगा झरना,
बुझेगी प्यास,
चहकेंगी चिड़ियाँ,
एक गीत जन्मेगा
पत्थर से पत्थर टकराओ -
टूटेंगी दीवारें !   दीवारें टूटेंगी

Monday, January 25, 2010

कितना कठिन कलेजा माँ!

गणतंत्र दिवस पर उदास कर देने वाली ग्रामीण-भारत की एक पुरानी कविता, जो आज भी लागू होती है ....

जा बेटा तू बाँध ले गठरी कलकत्ता में खूब कमा-
आजमगढ़-बलिया-गाजीपुर कितना कठिन कलेजा माँ!
टेसन पर यह रेल की सीटी सालों से जो चीख रही,
झोपड़ के दरवाजे सिमटी सुरसतिया की कौन सुना !
गाँव हमारा अंधी बस्ती, पगडण्डी भी टेढ़ी - मेढ़ी,
भरी जवानी में बहिना कूदी थी ऐसा एक कुआं !
छः छः पैसा चल कलकत्ता बचपन के इस खेल का
जब परदेसी हुए तो जाना कितना गहरा अर्थ बना !
अपने तो इस देश में यारो हमने बस दो मौसम देखे
बाढ़ आँख में आंसू लाये, सूखा लाये धूल-धुंआ !
दिल्ली से फरमान हुजूरे आला लेकर आये हैं -
सड़कों पर कैसे आ निकला कीचड़ में जो पावँ सना !
खबर छपी है अख़बारों में पुलिस-लाठियां-जेल-हथकड़ी,
धूप तपी यह देह न जाने ओला - पत्थर कहाँ - कहाँ !
कितने हारे - कितने मारे फिर भी देखो इस हुजूम को -
मिट्टी की भी गूँज हिला देती है यारो आसमां ! 

Saturday, January 23, 2010

क्या खूब रंग सरकारी !

क्या खूब रंग सरकारी !
सत्ता की माया, माया की सत्ता अद्भुत न्यारी
जिनको लोग बहिनजी कहते हुईं आज महतारी
अफसर घूमें आगे - पीछे, घूमें थैलीधारी
दलित - दुहाई हुई हवाई मची है मारामारी
स्मारक - धारक ऐसी मारक खेल रही हैं पारी
पेड़ कट गए हुआ लखनऊ कंक्रीट की क्यारी
बीते दिन की बात हो गयी यां की बाग़-बहारी
कपट - कला के कुशल खिलाड़ी बने हुए दरबारी
झपट - कला के होनहार हैं चमकदार व्यापारी
यूपी की यह चुप्पी एक दिन होगी हाहाकारी
हाथी से नीचे लुढकेगी भैया सजी सवारी !

Thursday, January 21, 2010

राम मिलाई जोड़ी

देखो, राम मिलाई जोड़ी !
एक गंगा का दूषित पानी दूजा उसमें पड़ी फिटकिरी
खोज - खाजकर लाये भी तो सोरेन संग मिल गए गडकरी
मोदी - अडवानी की संगत, सुषमा संग हैं अरुण जेटली
शिवराज - रमण की बाट निहारे राजनाथ की चाय-केतली
रेगिस्तानी इक वसुंधरा, पोखरियाल पहाड़ी
खींच - खांचकर किसी तरह से चले सियासी गाड़ी
भगवत-कथा न लागे मोहन कुर्सी जाय न छोड़ी
टूटे रथ के घोड़े बिदके जनता भई निगोड़ी !
देखो, राम मिलाई जोड़ी ......  

Monday, January 18, 2010

शहर में कर्फ्यू

एक घर की हसरतों को यूं समेटे
नींद आती ही नहीं
करवट बदलते रात के बारह बजे तक
बिस्तर के अँधेरे में लेटे-लेटे
सोचता हूँ
तुम्हारी कागज़ी इन खुराफातों में
मैं कहाँ पार हूँ -
फाइलों के तरतीब्तर अम्बार में
बिजनेस प्रमोशन में
टर्नओवर में
तुम्हारी पार्टियों में शाम की मदहोशियों में !
या कि उजड़े गाँव के
खपरैल वाले एक घर के
सभी सपने ले उड़ा मैं
तबसे उसकी बेइंतहा इंतज़ार करती
रात - दिन की खामोशियों में

मैं कहाँ पर हूँ ?

वह भी इक दुनिया है
दुनिया की तरह
जो धड़कती है
फड़कती है आँख में क्यों अपशकुन बनकर !

इक टिकट काटे वापसी का जेब में रखकर
मैं घूमता हूँ दर - ब - दर
कब तक बचाता रह सकूंगा
शातिर समय के जेबकतरे से
मैं बचाता आ रहा हूँ खुद को
सपने देखने के सौ - सौ खतरे से

कोई सुख भी होता है क्या इस तरह से गम का मारा !

करवट बदलते
रात के बारह बजे तक
बिस्तर के अँधेरे में यूं ही लेटे
सोचता हूँ -
क्या करूं ?
गौतम बुद्ध - सा
मैं दबाये पाँव
निकल भागूं
छोड़ दूं यह कपिलवस्तु तुम्हारे हाल पर
या कि अपने सोच पर कर्फ्यू लगा दूं
जिस तरह कर्फ्यू लगा है
शहर में !  

Friday, January 15, 2010

प्रार्थनाएं जंगल की

आकाश में चिड़िया नहीं, उड़ती हैं प्रार्थनाएं जंगल की !
कई बार अकेले अकेले, जोड़े में या कतारों में
टापू पर, पहाड़ पर पड़ती है उनकी छाया
और विस्तृत मैदान पसीजते हैं
उड़ती हैं चिड़ियों की शक्ल में
कोटर की, घोंसले की मार सारी चिंताएं
चिंताओं का रंग देखकर बदलता है आकाश का रंग -
शुभ्र, उजला, नीला, गेरुआ, धूसर और काला

चिड़ियों की चिंताओं का रंग कैसा होता है ?

किसी कोटर, किसी घोंसले में
पैदा होती इच्छाएं
चिड़ियों की नन्ही आँखों में समाई
या कि उनके डैनों पर सवार
उड़ती रहती हैं अछोर आकाश में
कहीं से कहीं तक

इच्छाओं का रंग कैसा होता है ?

अभी हो रही है बारिश, कौंध रही है बिजली
भीग रहे हैं वृक्ष, कोटर, घोंसले, उनकी इच्छाएं
और भीगी हुई चिंताएं समेटे
सिमटी बैठी हैं चिड़ियाँ - आँखें मूदे प्रार्थना की मुद्रा में
प्रसन्न हैं देवता
हो रही है बारिश !

Wednesday, January 13, 2010

बहती रहे हुगली

बहती रहे हुगली
ऐसे ही
लहरें उठाती
लहरें गिराती
बहती रहे प्राणधारा की तरह

दुःख के दोनों छोर तक
तना हुआ है हावड़ा पुल
थरथराता हुआ

कितनी ठोकर खाकर भी
देखो, आदमी जाता है आदमी की तरफ
कितनी भटकन के बाद भी
पंछी मिलकर बनाते हैं झुण्ड

रात का गाढ़ा पर्दा उठा कर
चाँद धोता है अपना मलिन मुख
सारा पछतावा पोंछ कर
मेरे भीतर गिरता - उठता है जीवन राग

बहती रहे
ऐसे ही
लहरें उठाती
लहरें गिराती,
बना रहे यात्रा का अनंत प्रवाह
मेरी लय में बची रहे थोड़ी - सी आह

प्राणधारा की तरह बहती रहे हुगली !

Tuesday, January 12, 2010

मध्यवर्गी का मर्सिया

देखो - देखो, खुशफहमी की मार
मैं मर गया !
जीवित रही नौकरी मेरी
मेरा ओहदा, मेरा रुतबा, दुनियादारी
जीवित रही दुश्मनी - यारी
मैं मर गया !

मैं जीवित था
जब तक नहीं गया उस तने हुए शामियाने के अन्दर
मैं जीवित था
जब तक सीखी नहीं गुदगुदी जगाने वाली भाषा
इसको - उसको - सबको खुश करने में
खुशफहमी की मार - मैं मर गया !

मुझे मारकर जीवित रहा समाज
मुझे मारकर चलते सारे कामकाज
मेरे जीते - जी सभी रहे नाराज

देखो - देखो, तने हुए शामियाने के अन्दर
मुझे मारकर उसमे उत्सव चले निरंतर ...! 

Sunday, January 10, 2010

घर - गिरस्ती की तरह

इस महंगाई के जमाने में
जहां आदमी और मेहनत के सिवा
हर चीज की कीमत हैसियत के बाहर है
घर - गिरस्ती की तरह लिखी जाये कविता
तो बुरा मत मानियेगा !

महीने की तलब का आधा
जहां चला जाता हो
मकान - भाड़ा, राशन - दूकान के उधार में
स्कूल की फीस के सिवा
और कुछ भी न कर पाते हों
बच्चे के प्यार में
पत्नी का सूखा चेहरा
ताकता रह जाए सालभर का बोनस
और बरस - बरस का त्यौहार
ऐसे में आता हो दुह्स्वप्न-सा
किसी मेहमान के आ पहुँचने का विचार

घर - गिरस्ती की तरह लिखी जाए कविता
तो क्या आप पढ़ेंगे किसी मेहमान की तरह ?

दिन तो काटने पड़ते हैं फीकी कडवी चाय की तरह
सूखी, बेमज़ा रोटी - दाल की तरह
कहाँ है रस इन चीजों में
बस किसी तरह चलानी पड़ती है गिरस्ती

मगर आप पढ़ेंगे जब कविता
तो उसमें कुछ तो रस - स्वाद होना ही चाहिए
वर्ना कहाँ रहेगी कवि की आबरू !

मगर आजकल है बहुत मुश्किल
अब आपसे क्या छिपाना
घर - गिरस्ती की तरह लिखी जाए कविता
तो कभी दाल में नमक की कमी
और सब्जी में मिर्च ज्यादा होगी ही
चावल में कंकड़ और आटे में रेत-मिट्टी हो
तो इस मिलावट के जमाने में
न हम कुछ कर सकते हैं
न आप
आप अपने हैं - घर के आदमी
कोई पराये तो हैं नहीं
घर - गिरस्ती की तरह लिखी जाए कविता
तो बुरा मत मानियेगा !

Friday, January 8, 2010

सुन्दर चीजें शहर के बाहर हैं

कभी - कभी ही पता लगता है
कि सुन्दर चीजें
शहर के बाहर हैं !
मसलन, ऊबे हुए
या शोर में डूबे हुए लोग
जब कहीं घूमने जा रहे होते हैं
तो शहर की चौहद्दी पार करते ही
अपना चेहरा पोंछते हैं
और एक भली - सी हवा में
लहराने देते हैं अपने बाल,
चिड़ियों के साथ झूमते - डोलते
किसी झुरमुट को देखकर पता लगता है -
वाकई सुन्दर चीजें शहर के बाहर हैं !

यह तब भी पता लगता है
जब पहली बार आप धंसते हैं
नाक पार रूमाल रखे
शहर की चौहद्दी के भीतर

यह शहर आपका स्वागत करता है
ऐसा एक बोर्ड जरूर मिलेगा शहर की चौहद्दी पर
लेकिन मन में इत्मीनान का कोई भाव जगाने के बजाय
वह धौंस जमाएगा आपके ऊपर
नाक पर रूमाल रखने के बावजूद
शहर का आतंक घुस जाएगा आपके भीतर

आप नहीं जान पाते कि वह नाक के रास्ते घुसा या कान के

कुछ ज्यादा ही शरीफ होने के चक्कर में
आप कितने दयनीय बन जाते हैं !

फिर आप बरसों शहर में रह जायेंगे
बस जायेंगे किराये का कोई कमरा लेकर
यहाँ - वहां जायेंगे
सिनेमा का, बस का, लोकल का टिकट कटायेंगे
शाहरुख़ को देखेंगे - करीना को देखेंगे
और विज्ञापन के माडल की तरह
आपको भी पता चलेगा कोमल त्वचा का राज
तब ताजगी और खूबसूरती के लिए
आपको भी भरोसा होने लगेगा किसी साबुन पर

सुबह - सुबह दाढ़ी बनायेंगे
अखबार पढेंगे
और कुढ़ते रहेंगे -
धत्तेरे की, यह भी कोई जिंदगी है !

ऐसे ही किसी वक्त
बाहर कहीं जाने का मौका मिलेगा
तब शहर की चौहद्दी पार करते ही
अपना चेहरा पोंछते हुए
आप चाहेंगे कि भर लें फेफड़ों में
सारी ताजी हवा
शायद आप भूल भी जाएँ
कि रूमाल जेब में है या नहीं
और आपको पता लगेगा -
सुन्दर चीजें शहर के बाहर हैं .

Thursday, January 7, 2010

धूप के बारे में

एक
चुप चुप
उतरती है धूप
कोहरे को फाड़ती है
गरमी
अँधेरे की धज्जियाँ
उड़ा देती है
रोशनी .
मेरे मन में आता है
मैं गाऊँ
धूप के लिए एक प्यार भरा गीत
अपने जी - जान से गाऊँ
की सारे जहां में
धूप की तरह फैलती
गीत की लय
इजहार कर दे
की धूप प्यार करने की चीज है .
दो 
मैं देख रहा था -
सड़क पर
ऊंची इमारत के बाजू से
किसी तरह छलक कर
बमुश्किल उतरा
धूप का एक तिकोना टुकड़ा
इतने में
सिपाही का भारी - भरकम बूट
जो उस पर पड़ा
तो मैं सिहर गया भीतर तक
मुझे ठण्ड - सी लगी
मेरा शरीर काँप - सा गया .

Tuesday, January 5, 2010

करमा हुआ उदास

धांगर विन्ध्य क्षेत्र के आदिवासियों की एक जाति है - हो सकता है वे दूसरे इलाके में भी हों। जांगर का मतलब होता है मेहनत। करमा आदिवासियों का गीत -नृत्य है ।

धांगर का जांगर खटे, खटे पहाड़ - पहाड़ ।

इस जंगल - क़ानून में सौ - सौ खाय पछाड़ ॥

आज़ादी क्या चीज है कोई उसे बताय ।

जो जंगल से बेदखल जंगल को ललचाय ॥

वनवासी - गिरिजन हुआ ठीकेदार का शूल ।

इसे प्यार से देख तू यह महुआ का फूल ॥

वनवासी की जिंदगी या की झाड़-झंखाड़ ।

जैसी सूखी लकड़ियाँ उसके तन के हाड़॥

एक फैक्टरी खुल गयी जिस जंगल के पास ।

वनवासी ढहकर गिरा करमा हुआ उदास ॥

तू पहाड़ पर खड़ा है सूरज तेरे पास ।

तेरे घर अंधेर क्यों , क्यों तू बहुत उदास ॥

जंगल - जंगल तुम चले , चले नदी के तीर ।

तेरे घर में चोर है ऐ पर्वत के वीर ॥

तू इतना चुपचाप है जैसे एक एक पहाड़ ।

मौसम की दहशत बड़ी या तेरी चिग्घाड़ ॥

Monday, January 4, 2010

ऐ लड़की

ऐ लड़की औरत बनो, करो मर्द से प्यार ।
झुकी हुई गर्दन रखो, वह भांजे तलवार ॥

चूल्हा - चक्की रात - दिन, टीका - बिंदी माथ ।
तू गुलाम उस पुरुष की पकड़ा जिसने हाथ ॥

नियम बनाए उसी ने वही करे गुणगान ।
वह तेरा स्वामी बना तू उसका सामान ॥

मर्द बने महिमा - पुरुष बांह तुम्हारी थाम ।
आत्म - समर्पण तुम करो हो जाओ बेनाम ॥

लक्ष्मी हुई कुलच्छनी, बेटी जाए तीन ।
भरी हिकारत हर नज़र, मिटे स्वप्न रंगीन ॥

कुलदीपक तो कुलवधू यह दुनिया की रीत ।
ऐ लड़की, बेमोल है व्याकुल मन की प्रीत ॥

Sunday, January 3, 2010

कितने गरीब लोग हैं !

तीन दिसंबर की खबर है की यूपी में ठण्ड से एक दिन में ३० लोगों की जान गयी ।

कुछ दिनों पहले ही एक उड़िया अखबार के हवाले से खबर मिली की एक गरीब औरत ने

एक बच्चे को बेच कर अपने दुसरे बच्चे के लिए गरम कपडे और खाना बनाने के लिए कुछ बर्तन खरीदे ।

कितने गरीब लोग हैं इस ठण्ड में दम तोड़ देते हैं,

खूब हैं सरकार, उनको किसके भरोसे छोड़ देते हैं !

देखिये, वो आपका कैसे मुखौटा नोच देते हैं,

एक बच्चा बेचकर दूजे को कम्बल-कोट देते हैं ।

सियासत गर्म है उस्ताद को मिल जायं सूबेदारियाँ

इस तरह असली सवालों का गला वो घोट देते हैं ।

अजी, कुछ सोचिये वो भी अभागे आप ही को वोट देते हैं,

क्या गजब है रहनुमाई आप उनको चोट देते हैं ।

Saturday, January 2, 2010

सौ - सौ खाय फरेब

यह शहराती जिन्दगी चकाचौंध की धाक ।

पढ़ा - लिखा मैं गाँव का अपने घर की नाक ॥

इस सरहद पर शहर है उस सरहद पर गाँव ।

हुआ अपाहिज आदमी खड़े - खड़े इक पाँव ॥

मेहनत और मशीन का ऐसा विकट हिसाब ।

तू मजूर भूखों मरे, पैसा गिने नकाब ॥

औरत अगर गरीब है, है बदचलन जरूर ।

मुखिया इज्जतदार है कह गयी पुलिस हुजूर ॥

बूढा बरगद गाँव में ज्यों सबको दे छाँह ।

मुखिया ऐसा चाहिए थामे सबकी बांह ॥

जली हुई बीडी बुझी खाली - खाली जेब ।

अच्छा - खासा आदमी सौ - सौ खाय फरेब ॥

Friday, January 1, 2010

मुबारक नया साल !

नया साल

जैसा भी है - फटेहाल

जश्न को करता भग्न

क्रीडा और करुणा में मग्न

मुबारक हो !

बीत गई सो बात कहाँ जाती है

बीते दुःख की आहट भी आती है

फिर भी

नया साल है

मिलजुल कर हल करें

सामने जो सवाल हैं ।

झारखंड में जाड़ा

सुबह आँख मलती हुई, लिए कंपकंपी शाम ।

मन में गरमी भर सके जपो धुप का नाम॥

पाला पड़ता फसल पर दिल में जले अलाव ।

इस हरजाई ठण्ड को गाली देता गाँव ॥

पांवों में चुभने लगी सुबह - सुबह की दूब।

माली निकला बाग़ की हरियाली से ऊब ॥

बिस्तर में गठरी बनो डाले पेट में पाँव ।

सारे घर को ठण्ड ने बना लिया है ठांव ॥

बरगद कहे अधीर हो बर्फानी मत छेड़ ।

कुछ तो शर्म - लिहाज़ कर, अब मैं हुआ अधेड़ ॥

ठंडक बढती ही गयी कोहरे का फैलाव ।

लोग इकट्ठा हो गए जलते गए अलाव ॥

खांसी की ठकठक हुई जगी चिलम की आग ।

दिल से एक धुंआ उठा या पीड़ा का राग ॥