साथ-साथ

Monday, March 29, 2010

मृत्यु विह्वल कर ही देती है!

किसी भी आत्मीय की मृत्यु विह्वल कर देती है। और फिर पुत्रशोक की विह्वलता के बारे में तो कहना ही क्या। इस संदर्भ में कवि श्रीकांत वर्मा की यह कविता पढ़ने के पूर्व इतना याद रखिए कि परिस्थितिवश काशी में श्मशान के डोम का काम करने वाले राजा हरिश्चंद्र के पुत्र का नाम रोहिताश्व था।

।। रोहिताश्व।।
श्रीकांत वर्मा

जब भी मणिकर्णिका  जाओगे
एक वृद्ध को
कोने में दुबका हुआ पाओगे।

तुम्हें देख
उसकी आंखों में
कुछ
कौंधेगा-

वह
रोहिताश्व, रोहिताश्व
बिसूरता
तुमसे लिपट जाएगा।

तब क्या करोगे?

यही न :
"मैं  रोहिताश्व नहीं हूं
मैं सचमुच
रोहिताश्व
नहीं हूं।’

मगर तुम उस वृद्ध को
कैसे
विश्वास दिलाओगे
कि तुम
रोहिताश्व नहीं हो।

तुम पर उसकी पकड़
और भी कड़ी होगी,
वह कड़केगा :
तुम्हीं हो रोहिताश्व!

जिसका रोहिताश्व
मारा गया हो,
क्या तुम उसे
विश्वास दिला सकते हो
कि तुम
रोहिताश्व नहीं हो?
(मगध संग्रह से, 1984)

Thursday, March 25, 2010

अपने अपने राम

अरविन्द चतुर्वेद :
समर-भूमि में जब राम और रावण आमने-सामने हुए, तब दोनों किस हालत में थे? राम पैदल थे और रावण रथ पर सवार था। गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं-रावण रथी विरथ रघुवीरा। यानी रावण रथयात्री था और राम पदयात्री। राम-रावण युद्ध रथयात्री और पदयात्री के बीच का युद्ध था। रावण रथ पर सवार था तो समर भूमि में घोड़ों की टापें उनकी हिनहिनाहट और रथ के पहियों की घरघराहट वैसे ही आतंक और भय का वातावरण बना रही थीं, ऊपर से अपने सामने पदयात्री राम को पाकर रावण का दम्भ सातवें आसमान पर चढ़कर अटूटहास बन कर गूंज रहा था। रावण को दम्भ था रथी यानी साधन सम्पन्न होने का, रावण को दम्भ था स्वयंभू शिवभक्त होने का- मैं ही सबसे बड़ा, सबसे सच्चा शिवभक्त हूं, बाकी सब तुच्छ हैं, नकली हैं, नर-वानर हैं। ये क्या जानें धर्म क्या है, ये क्या जानें ज्ञान क्या है? उधर राम ने दम्भ से नहीं, विनय से, शील से, चरित्र से और नर-वानर जैसे साधारण वनवासियों को स्नेह-सम्मान देकर उनके भीतर स्वाभिमान जगाकर शक्ति का संचार करके रावण को हरा दिया। उसके दम्भ की सेना भहराकर गिर पड़ी। यही होता है। धर्म धुरन्धर होने अथवा रथयात्री होने का दम्भ थोड़ी देर के लिए प्रचंड होकर वातावरण में उथल-पुथल तो मचा सकता है, मगर मनुष्यता की समर भूमि में विजय तो अंतत: उसी की होती है, जो अकम्पित सहिष्णुता से काम लेते हुए सच्चाई के रास्ते पर चलता है और अपने आचरण में सबके हित की कामना संजोए रखता है। सच्चाई के रास्ते पर रावण के रथ के पहिए नहीं दौड़ सकते, उस पर तो धीर-गम्भीर संकल्पित राम के अकम्पित चरण ही चल सकते हैं।
समूची रामकथा पर नजर डलिए तो यह याद कर पाना बड़ा कठिन है कि राम ने कब-कब रथ की सवारी की थी? उनका जीवन जन साधारण के बीच पदयात्री की तरह ही बीता। वह भी साधारण पदयात्री नहीं, राजधानी का राज वैभव छोड़ सरयू पार चौदह वषों के वनवास का। अपने जन के पास राम स्वयं गए। किसी को अपने पास नहीं बुलाया, खुद चलकर उसके पास गए। वे विपन्न शबरी की झोपड़ी में गए और उसके हाथों जूठे बेर खाकर उसके साझीदार बन गए। केवट की नाव पर बैठकर नदी पार की। अपने भोलेपन में केवट ने जब राम को नाव पर बैठाने से नाव के गायब हो जाने के च्रिस्क’ की चर्चा की तो उसे अपने पांव धुलाने से मना नहीं किया। राम ने साधारण लोगों का प्रेम पाने के लिए क्या-क्या नहीं किया। देखते ही देखते वे सबके मन में बैठ गए। अयोध्या छोड़कर वे अगेह बन गए और सबके मन में एक अयोध्या बसा दी। इसीलिए रामकथा में जो सज्जे रामभक्त हैं, उन्हें अयोध्या से कुछ खास लेना-देना नहीं है। वे राम से मतलब रखते हैं, अयोध्या के मोहताज नहीं है।
इस तरह हम पाते हैं कि विभिन्न रामकथाओं और गाथाओं के जरिए जन-जन में बसे राम सर्व सुलभ हैं। वे केवल अयोध्या में नहीं पाए जाते। उनकी कथा इसलिए अनंत है क्योंकि जितने मुंह-उतने राम हैं। इसीलिए कहा गया है राम से बड़ा राम का नाम। असल में राम का मिथक वह भारी चटूटान है कि जिसने भी उस पर कभी आधिपत्य जमाने की हिमाकत की, वह निश्चय ही उसके भार से कुचल जाएगा। अगर आप हनुमान सरीखे राम सेवक हैं तो उन्हें अपने हृदय में बसाने का दावा कीजिए, किसी शहर किसी मंदिर में नहीं।
रामकथा और रामचरित की लम्बी काव्य-परम्परा हमारे पास मौजूद है। वाल्मीकि से शुरू हुई राम काव्य की परम्परा का अच्छा-खासा विकास संस्कृत काल में ही देखने को मिल जाता है। कालिदास के च्रघुवंश’ महाकाव्य के अलावा भवभूति का च्उत्तर राम चरितम’ और भास का च्प्रतिमा नाटकम’ संस्कृत साहित्य की उपलब्धि हैं। विभिन्न भारतीय भाषाओं में ही नहीं अनेक बोलियों में भी राम काव्य की गूंज सुनाई देती है। हिंदी में कबीर के भी राम हैं, और तुलसी के तो हैं ही। आाधुनिक हिंदी काव्य संसार में मैथिली शरण गुप्त का च्साकेत’ महाकाव्य एक वरेण्य कृति है। नेरश मेहता के खंडकाव्य च्संशय की एक रात’ की मर्मस्पर्शिता का भला कौन कायल नहीं होगा। महाकवि निराला की अमर कृति च्राम की शक्तिपूजा’ आज भी रावणी शक्ति और निर्मम निर्लज्ज सत्ता लोलुपता के प्रतिकार की सच्ची प्रेरणा देती है, बशर्ते हम लेना चाहें। अफसोस तो इस बात का होता है कि रामकाव्य का इतना भव्य मंदिर अपने पास होते हुए भी हम इंट-गारे के एक अदद मंदिर के लिए मरे जा रहे हैं। रावणी शक्ति के आगे समर में खड़े राम को महाकवि निराला के शब्दों में जामवन्त द्वारा दिया गया यह परामर्श क्या हम याद नहीं रखना चाहेंगे-
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर।
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर।
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त।
तो निश्चय तुम हो सिद्ध, करोगे इसे ध्वस्त।

Wednesday, March 24, 2010

काशी में मणिकर्णिका

काशी यानी बनारस में गंगातट पर पुराण प्रसिद्ध श्मशान मणिकर्णिका घाट। कहते हैं कि जब भगवान शिव सती का शव कांधे पर लिए बेचैन भटक रहे थे तो उनके कान की मणि यहीं गिरी थी। सो मणिकर्णिका। इस श्मशान में कभी चिता की आग नहीं बुझती- शवों का तांता लगा रहता है रातदिन। यहां के डोम "राजा" कहे जाते हैं। मणिकर्णिका पर विपुल साहित्य है और कविताएं भी। बांग्ला कवि शंख घोष से लेकर हिंदी कवि ज्ञानेंद्रपति तक। प्रस्तुत है कवि श्रीकांत वर्मा के "मगध" संग्रह की कविता "मणिकर्णिका का डोम"...
।। मणिकर्णिका का डोम।।
श्रीकांत वर्मा
डोम मणिकर्णिका से अक्सर कहता है
दुखी मत होओ
मणिकर्णिका,
दुख तुम्हें शोभा नहीं देता
ऐसे भी श्मशान हैं
जहां एक भी शव नहीं आता
आता भी है
तो गंगा में
नहलाया नहीं जाता

डोम इसके सिवा कह भी
क्या सकता है
एक अकेला
डोम ही तो है
मणिकर्णिका में अकेले
रह सकता है

दुखी मत होओ मणिकर्णिका,
दुख मणिकर्णिका के
विधान में नहीं
दुख उनके माथे है
जो पहुंचाने आते हैं
दुख उनके माथे था
जिसे वे छोड़ चले जाते हैं

भाग्यशाली हैं, वे
जो लदकर या लादकर
काशी आते हैं
दुख
मणिकर्णिका को सौंप जाते हैं

दुखी मत होओ
मणिकर्णिका,

दुख हमें शोभा नहीं देता

ऐसे भी डोम हैं
शव की बाट जोहते
पथरा जाती हैं जिनकी आंखें,
शव नहीं आता-
इसके सिवा डोम कह भी क्या सकता है!

Monday, March 22, 2010

जो बचेगा कैसे रचेगा!

रचने को यानी सृजन को इस तरह भी देख सकते हैं कि अपना "सबकुछ" देकर ही कुछ रचा या सिरजा जा सकता है। कवि त्रिलोचन कहा करते थे कि कविता समूची जिंदगी मांगती है। वैसे भी प्रकृति को देखिए तो पाएंगे कि पतझर में अपना सर्वस्व दे चुकने के बाद वृक्ष हरियाली का नया वैभव हासिल कर पाते हैं। प्रतिमाओं की पूजा भी सृजन की ही आराधना है और उनका विसर्जन इसीलिए किया जाता है कि फिर से सृजन को संभव किया जा सके- नया रचा जा सके। अब पढि.ए श्रीकांत वर्मा की कविता "हवन", जो 1979 की रचना है और "मगध" संग्रह में संकलित है।

।। हवन।।

चाहता तो बच सकता था
मगर कैसे बच सकता था
जो बचेगा
कैसे रचेगा

पहले मैं झुलसा
फिर धधका
चिटखने लगा

कराह सकता था
मगर कैसे कराह सकता था
जो कराहेगा
कैसे निबाहेगा

न यह शहादत थी
न यह उत्सर्ग था
न यह आत्मपीड़न था
न यह सजा थी
तब
क्या था यह

किसी के मत्थे मढ़ सकता था
मगर कैसे मढ़ सकता था
जो मढ़ेगा कैसे गढ़ेगा।

Sunday, March 21, 2010

श्रीकांत वर्मा की तरह पूछिए सवाल

कवि श्रीकांत वर्मा के दो कविता संग्रहों से एक-एक कविता आपसे साझा करने को जी चाहता है। पहली कविता उनके बाद के यानी अंतिम कविता पुस्तक मगध से ली गई है और दूसरी कविता मगध से पहले वाले संग्रह जलसाघर से ली गई है। जलसाघर 1973 में छपा था, जबकि मगध इसके ग्यारह साल बाद 1984 में आया था।

।। मित्रों के सवाल।।

मित्रो,
यह कहना कोई अर्थ नहीं रखता
कि मैं वापस आ रहा हूं।

सवाल यह है कि तुम कहां जा रहे हो?

मित्रो,
यह कहने का कोई मतलब नहीं
कि मैं समय के साथ चल रहा हूं।

सवाल यह है कि समय तुम्हें बदल रहा है
या तुम
समय को बदल रहे हो?

मित्रो,
यह कहना कोई अर्थ नहीं रखता,
कि मैं घर आ पहुंचा।

सवाल यह है
इसके बाद कहां जाओगे?

।। कलिंग।।

केवल अशोक लौट रहा है
और सब
कलिंग का पता पूछ रहे हैं

केवल अशोक सिर झुकाए हुए है
और सब
विजेता की तरह चल रहे हैं

केवल अशोक के कानों में चीख
गूंज रही है
और सब
हंसते-हंसते दोहरे हो रहे हैं

केवल अशोक ने शस्त्र रख दिए हैं
केवल अशोक
लड़ रहा था।

Saturday, March 20, 2010

बजी कहीं शहनाई सारी रात : बिस्मिल्ला खां का जन्मदिन

अरविंद चतुर्वेद :
प्रगाढ़ प्रेम की बेचैनी भरा कवि रमानाथ अवस्थी का एक गीत है-
सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात।
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात...।
क्या पता आज किसी के मन में जल तरंग बजता है या नहीं, या फिर किसी की याद में वायलिन की उदास धुन बेचैन करती है या नहीं। लेकिन दस साल पहले ही गुजरी बीसवीं सदी के अंत-अंत तक संगीत की कई-कई स्वर लहरियां शहनाई, सितार, बांसुरी वगैरह के माध्यम से हमारी स्मृतियों में अनायास गूंजती रहती थीं। तो क्या आज हम शोर के सन्नाटे में घिर गए हैं? जरा सदाबहार शहनाई नवाज बिस्मिल्ला खां को याद कीजिए। आज उनका जन्मदिन है।
उस्ताद बिस्मिल्ला खां ने शहनाई की जो तान छेड़ी थी, वह नौ दशक लम्बी रही। बीसवीं सदी के तीन चौथाई हिस्से की हमजोली रही है उनकी शहनाई। और, इक्कीसवीं सदी के जन्म की बधाई पर भी वह कम नहीं बजी थी। लोग उन्हें शहनाई का शहंशाह कहते रहे, लेकिन वे खुद को कुदरत का कारिंदा मानते थे। वे उस्ताद रहे- संगीत के बिस्मिल्ला, और इसलिए भारत रत्न भी। शहनाई और उनका नाम एक-दूसरे के पर्याय बन चुके थे, लेकिन जब जिंदगी की शाम गहराने लगी तो इसका जिक्र होने पर उन्हें अपनी उम्र का एहसास होने लगा था और वे कह उठते थे- आदमी बूढ़ा हो जाता है, साज और सुर नहीं। उनके होठों पर शहनाई होने पर आंखों से जो उल्लास छलकता था, उसे बार-बार, हजार बार लोगों ने महफिलों में देखा था।
21 मार्च 1916 को बनारस के पड़ोसी बिहार के बक्सर जिले के डुमरांव में एक अति साधारण परिवार में जन्मे उस्ताद बिस्मिल्ला खां जब उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुंच गए थे तो वहां से बार-बार उनकी निगाह पीछे की ओर मुड़ती थी। सात साल की उम्र में वे अपने मामू और तब के बहुत काबिल शहनाईवादक अली बख्श के पास बनारस आए थे। उस्ताद मामू ने बिस्मिल्ला के हाथ में तब जो शहनाई थमाई तो उम्र की सरहद तक वह उनके होठों से लगी रही। लोगों ने उन्हें मंच पर देखा हमेशा शहनाई के साथ, लेकिन उनकी जिंदगी की जदूदोजहद बनारस के चौक से नई सड़क तक जाने वाली दालमंडी की उस संकरी, गुलजार, पेचोखम से भरी गली जैसी ही रही, जिसके एक पुराने मामूली मकान में वे रहते थे। घर की छत पर दो कमरों में सिमटा उनका संसार-एक उनका कमरा और दूसरा उनकी शहनाई का। पांच बेटों के पिता बिस्मिल्ला अपने परिजनों के भीड़भाड़ भरे, लम्बे-चौड़े कुनबे के बीच एक बूढे. बरगद की तरह थे। बीमारी और बुढ़ापे ने उनके शरीर को कमजोर कर दिया था, वर्ना लुंगी और कुर्ते में कदूदावर काठी का वह शख्स रोजमर्रा  के तहत उसी प्यार से अपनी बकरियों की गर्दन पर हाथ फेरते हुए सानी-पानी का सुबह-शाम इंतजाम करता रहा, जिस प्यार से हाथों में शहनाई थामता था। चौदह साल की उम्र में बिस्मिल्ला खां ने अपने उस्ताद मामू अली बख्श की जगह पर एक आयोजन में पहली बार शहनाई बजाई थी, जो पिछली शताब्दी के तीन चौथाई हिस्से तक देश-दुनिया में गूंजती रही। बीसवीं सदी उनकी शहनाई की गूंज से भरी थी और आज इक्कीसवीं सदी में भी कद्रदानों को उसकी अनूगूंज सुनाई दे जाया करती है। बिस्मिल्ला खां के लिए शहनाई उस्ताद मामू से मिली अमानत थी और संगीत साधना सबसे बड़ी इबादत। बनारस में गंगा पुजइया पर वे बरसों शहनाई बजाते रहे। केदार घाट स्थित बालाजी मंदिर का गंगामुखी बरामदा उनकी सुर साधना की प्रिय जगह रही। काशी विश्वनाथ मंदिर के नौबतखाने में उनकी शहनाई गूंजी और बड़ा गणेश मंदिर की डूयोढ़ी पर उन्होंने तान छेड़ी। कर्बला के शहीदों के लिए हर साल मुहर्रम पर उस्ताद बिस्मिल्ला खां आंसुओं का नजराना पेश करते रहे। जब उम्र साथ नहीं दे रही थी, तब भी इस मौके पर घर में ही थोड़ा-बहुत बजा लेते थे। उम्र के इस पड़ाव पर उस्ताद को याद आते थे शहनाई के हमसफर कलाकार। इस बात की उन्हें तकलीफ होती थी कि समाज में उनको वह इज्जत नहीं मिली, जो मिलनी चाहिए थी। वे कहते- तब के बनारस में मेरे साथ के लोगों में कन्हैया लाल जी और नंदलाल जी बड़े शहनाई वादकों में थे। मेरे मामू के दौर के लोग थे वे। उनसे कितनों ने सीखा, लेकिन उन्हें वह इज्जत और शोहरत नहीं मिली, जिसके वे हकदार थे। मन को तकलीफ होती है लेकिन कहने से क्या फायदा? आपको अपने संगीत की विरासत और शहनाई का भविष्य कैसा नजर आता है? पूछने पर इस सूचना के साथ कि उनके बेटे नैयर और जामी उनकी शहनाई को संभालने में मुस्तैद हैं, वे कहते- अच्छा कर रहे हैं ये लोग। एक बेटा नाजिम तबला बजा रहा है। फिर थोड़ी देर की खामोशी के बाद कहते- असल बात क्या है कि साज के साथ जिंदगी का सलीका बनाना पड़ता है। दोनों को एक कर देना होता है, और सबसे बड़ी बात है तासीर आप में कितनी है! तासीर हमेशा बनी रहनी चाहिए। तासीर’ बड़ा प्रिय शब्द था उस्ताद बिस्मिल्ला खां का।
आपने शहनाई को मांगलिक उत्सवों से उठाकर संगीत सभाओं के ऊंचे आसन पर बिठाया, कैसा महसूस होता है? यह पूछने पर वे कहते- नहीं-नहीं, दरअसल शहनाई ने मुझे ऊंचा उठाया। मैंने सच्चे  मन से साज की इबादत की है। जिंदगी भर सुरों के पीछे भागना पड़ता है और सुर भी सच्चे आदमी को तलाशते हैं। भविष्य को लेकर उस्ताद की चिंता बस एक ही थी- सुनाने वाले को सुनने वाले चाहिए। सुनने वाले न हों तो सुनाने वाला क्या करेगा! उस्ताद से मुलाकात के बाद दालमंडी की गली से नई सड़क पर निकलते ही गाड़ियों के हॉर्न, चिल्लपो, जाम, शोर! सबको आगे निकलने की बेताबी। यहां से वहां तक एक खीझ पसरी हुई। कोई किसी को नहीं सुन रहा। शहनाई पीछे छूटती चली गई...।

Thursday, March 18, 2010

देश की दिशा बकौल रघुवीर सहाय

1970 से 1975 तक की रघुवीर जी की कविताएं उनके कविता संग्रह हंसो हंसो जल्दी हंसो में संग्रहीत हैं। इसी संग्रह में है यह विडम्बना व्यक्त करती व्यंग्य कविता-

अतुकांत चंद्रकांत

चंद्रकांत बावन में प्रेम में डूबा था
सत्तावन में चुनाव उसको अजूबा था
बासठ में चिंतित उपदेश से ऊबा था
सरसठ में लोहिया था और और क्यूबा था
फिर जब बहत्तर में वोट पड़ा तो यह मुल्क नहीं था
हर जगह एक सूबेदार था हर जगह सूबा था

अब बचा महबूबा पर महबूबा था कैसे लिखूं

Wednesday, March 17, 2010

रघुवीर सहाय की तीन कविताएं

आज की कविता ने अपनी राह के लिए जिन पूर्ववर्ती कवियों से रोशनी पाई है, उनमें रघुवीर सहाय बेहद महत्वपूर्ण हैं। यहां उनकी तीन छोटी कविताएं प्रस्तुत हैं-

।। मेरी बेटी।।

दुबली थकी हारी एक छोकरी काम पर जाती थी
दूर से मैंने उसे आते हुए देखा
पर जितनी देर में मैंने पहचाना वह मेरी ही बेटी थी
उतनी ही देर में कितनी बदल गई।

।। अंग्रेजी।।

अंग्रेजों ने अंग्रेजी पढ़ाकर प्रजा बनाई
अंग्रेजी पढ़ाकर अब हम राजा बना रहे हैं।

।। बदलो।।

उसने पहले मेरा हाल पूछा
फिर एकाएक विषय बदलकर कहा आजकल का
समाज देखते हुए मैं चाहता हूं कि तुम बदलो
फिर कहा कि अभी तक तुम अयोग्य साबित हुए हो
इसलिए बदलो,
फिर कहा पहले तुम अपने को बदलकर दिखाओ
तब मैं तुमसे बात करूंगा।

Monday, March 15, 2010

सिर्फ एक कौवा

अरविंद चतुर्वेद

सिर्फ एक कौवा
क्रां-क्रां करता
कबसे मुंडेर पर बैठा
बड़े गुस्से में चोंच से खुरच रहा है धूप

बुद्धू कहीं के!
छाया में बैठी जीभ चाटती बिल्ली
हैरान है- धूप क्या कोई चमकौवा कागज की पन्नी
या चांदी की पत्तर है
जो खुरचने से छूट जाएगी?
खुद में परेशान हंफर-हंफर हांफता है
दमे के मरीज-सा
गली में गीली जमीन पर पसरा कुत्ता
बरामदे में एक अधेड़ भीगा गमछा रगड़ रहा है पीठ पर

अकेला कौवा ही इस चुभती गरमी में
धूप के खिलाफ रोषपूर्ण कार्रवाई में जुटा है
सिर्फ अकेला कौवा ही

सिर्फ कौवा ही अकेले नहाएगा बारिश में
अगर बच पाए
किसी छाता कंपनी या कूलर निर्माता का
मॉडल बनने से!

Sunday, March 14, 2010

आए दिन बहार के उर्फ पैरोडी-2009

अरविंद चतुर्वेद

आए दिन बहार के
शेयर बाजार के
तेरे-मेरे प्यार के!
वाह घोटाला-वाह घोटाला-वाह घोटाला
सत्यम असत्यम, असत्यम सत्यम जय मधु कोड़ा
सारी घास खा के निकल गया रेस का घोड़ा
पाकों में मूर्तियों पर सर्वधन स्वाहा
बम विस्फोट, मारकाट, लाठीचार्ज आहा
चलो चलो कपडे. उतार के
आए दिन बहार के।

बंद-बंद-बंद
ओ मतिमंद
पैकेज लो अखबार छापो
कागज करो काला
मुंह पर डालो ताला
कहीं पर फुलस्टाप, कहीं पर कामा
थोड़ा हल्ला-थोड़ा हंगामा
मल्टीनेशनल की माया
बीटी का गुन गाया
गाया-बजाया-नचाया
ललचाया-भरमाया-आजमाया
खाया-पचाया
दिन आए कर्जे-उधार के
भूख के विकास के-विनाश के
और कारोबार के
चैनल कहे पुकार के
आए दिन बहार के।

कवि और कविता की ऐसी-तैसी
चेक-बांड और करेंसी
डालर-डालर-डालर
तस्कर स्कालर
सभागृह समारोह फाइव स्टार के
मनमोहन मुहूर्त पुरस्कार के
आए दिन बहार के
तेरे मेरे प्यार के।

गांव-गांव-गांव
च्राजनीति’ अंगद का पांव
अगड़े पिछड़े
पिछड़े अगड़े
जिनके पांव साबुत
कर दो उन्हें लंगड़े
गिरा के, धक्का मार के
आए दिन बहार के।

जाएं तो जाएं कहां?


गाए जा गीत मिलन के
तू अपनी लगन के
देश को बनाना है
प्यार को बढ़ाना है
एसईजेड का जमाना है
अमेरिकी तराना है
मल्टी नेशनल को बुलाना है
कमीशन खाना है
अपना जमाना है
आए दिन बहार के...!

Tuesday, March 9, 2010

एक कवि की प्रेम कविता जिसे उसके बुढ़ापे में देखा था

विख्यात जनकवि नागार्जुन को मैंने उनके बुढ़ापे में देखा था। कोलकाता में उनसे अच्छी मुलाकातें भी हुईं - कई बार, कई दिनों तक। बहुतेरे दूसरे लोगों की तरह मैं भी उन्हें बाबा’ कहता था। यहां मेरे जन्म से एक साल पहले यानी 1957 में लिखी उनकी एक प्रेम कविता प्रस्तुत है। 1911 में जन्में नागार्जुन की यह कविता 1957 की है। मतलब कि तब उनकी उम्र 46 साल थी। कहने की जरूरत नहीं कि यह कविता पत्नी के प्रेम में लिखी गई है और अपनी तरह की अनूठी कविता है...
तन गई रीढ़
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नागार्जुन
झुकी पीठ को मिला
किसी हथेली का स्पर्श
तन गई रीढ़

महसूस हुई कंधों को
पीछे से,
किसी नाक की सहज उष्ण निराकुल सांसें
तन गई रीढ़

कौंधी कहीं चितवन
रंग गए कहीं किसी के होठ
निगाहों के जरिए जादू घुसा अंदर
तन गई रीढ़

गूंजी कहीं खिलखिलाहट
टूक-टूक होकर छितराया सन्नाटा
भर गए कर्णकुहर
तन गई रीढ़

आगे से आया
अलकों के तैलाक्त परिमल का झोंका
रग-रग में दौड़ गई बिजली
तन गई रीढ़

Sunday, March 7, 2010

बौराए हैं आम

अरविन्द चतुर्वेद

रह रह छाया कांपती सदा हवा के संग.
आँखों से उड़ जात है मौसम का हर रंग..

पेड़ तप रहे धूप में रह रह उठती आह.
पगडण्डी की पीठ पर बंजारे की राह..

हरियाली के नाम पर मन में उठती हूक.
परती धरती क्या कहे हुआ कलेजा टूक..

गुस्से में सूरज तपे हुई कौन-सी भूल.
आँख उठा कर देखते हवा झोंकती धूल..

बैरी को भी ना लगे गर्मी की यह धूप.
जिसके आगे अधमरे नदी ताल औ कूप..

गर्मी के आतंक से सब बैठे सर थाम.
यह भी क्या हिम्मत रही बौराए हैं आम..

Thursday, March 4, 2010

बानगी है यह !

देश आजाद हुआ १९४७ में और भारतीय गणतंत्र प्रतिष्ठित हुआ २६ जनवरी १९५० को. लेकिन तभी से सत्तारूढ़ दल की छत्रछाया में भ्रष्टाचार और तस्करी का मर्ज भी पैदा हो चुका था. इसलिए यह नहीं मानना चाहिए कि यह कोई हाल-फिलहाल की बीमारी है. बानगी के तौर पर १९५३ में लिखी कवि नागार्जुन की यह कविता पढ़िए :
नया तरीका
नागार्जुन
दो हजार मन गेहूं आया दस गावों के नाम 
राधे चक्कर लगा काटने सुबह हो गई शाम 
सौदा पटा बड़ी मुश्किल से पिघले नेताराम
पूजा पाकर साध गए चुप्पी हाकिम - हुक्काम 
भारत - सेवक जी को था अपनी सेवा से काम 
खुला चोर बाज़ार, बढ़ा चोकर - चूनी का दाम 
भीतर झुरा गई ठठरी, बाहर झुलसी चाम 
भूखी जनता की खातिर आज़ादी हुई हराम.

नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल 
बैलों वाले पोस्टर साटे, चमक उठी दीवाल 
नीचे से लेकर ऊपर तक  समझ गया सब हाल
सरकारी गल्ला चुपके से भेज रहा नेपाल
अन्दर टंगे पड़े हैं गाँधी-तिलक-जवाहर लाल
चिकना तन, चिकना पहनावा, चिकने-चिकने गाल
चिकनी किस्मत, चिकना पेशा, मार रहा है माल
नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल.

Tuesday, March 2, 2010

संगतकार दोस्तों

संगतकार दोस्तों
अब इस ब्लॉग पर अपनी पसंद की दूसरे कवियों की कविताएं पढ़ाने का सिलसिला शुरू कर रहा हूँ. बीच-बीच में अपनी कविताएं भी आपकी सेवा में पेश करता रहूँगा. होली की बधाई के साथ लीजिये पढ़िए बाबा नागार्जुन की कविता. यह कविता है तो १९५० की, लेकिन अगर आज भी मौजूं लगे तो इसका मतलब हुआ कि देश की आबोहवा को आज भी बुनियादी बदलाव का इंतजार है .....

बाकी बच गया अंडा
नागार्जुन

पांच पूत भारत माता के, दुश्मन था खूंखार
गोली खाकर एक मर गया, बाकी रह गए चार
चार पूत भारत माता के, चारों चतुर प्रवीन
देश-निकाला मिला एक को, बाकी रह गए तीन
तीन पूत भारत माता के, लड़ने लग गए वो
अलग हो गया उधर एक, अब बाकी बच गए दो
दो बेटे भारत माता के, छोड़ पुरानी टेक
चिपक गया है एक गद्दी से, बाकी बच गया एक
एक पूत भारत माता का, कंधे पर है झंडा
पुलिस पकड़ के जेल ले गई, बाकी बच गया अंडा.