साथ-साथ

Sunday, November 29, 2009

आख़िर यही मलाल

जहाँ - जहाँ है रोशनी , वहीं - वहीं अपराध ।

एक अन्धेरा आपके दिल में है आबाद ॥

गुरू हुए ग्यानी बड़े भरा हुआ है पेट ।

सूत्र और सिद्धांत के बेंचें सौ - सौ रेट॥

नदी किनारे संत जी भव् सागर तैराक ।

बड़ी विधर्मी बाढ़ थी बहा ले गई साथ ॥

ऐनक भीतर कैद है पलक - पलक की छावं ।

कैसा यह पर्यटन है बिन निशान के पाँव ॥

कपडे से लकदक हुए बने छबीले छैल ।

लेकिन सब पहचानते आपके मन का मेल ॥

======================

बड़ा व्यस्त वह आदमी रोजी -रोटी - आह ।

डूब न जाए एक दिन सपनों की क्या थाह ॥

बहुत बड़ा यह युद्ध है घर - दफ्तर के बीच ।

सपनों को मत पालिए अंसुवन जल से सींच ॥

ऐसे भी कुछ लोग हैं वैसे भी कुछ लोग ।

इक बपुरा मर - मर जिए दूजा मरे निरोग ॥

डर - डर कर तो जी लिए यूँ उसने सौ साल ।

क्यों इतना डरता रहा आख़िर यही मलाल ॥

Saturday, November 28, 2009

किसकी है सरकार

बाप अंगूठा छाप था मरा कलम की मार ।

बेटा पढ़ - लिखकर हुआ धूर्त और मक्कार ॥

खूब लिखा अखबार ने बना जांच आयोग ।

लोकतंत्र में इस तरह मिटते सारे रोग ॥

घर से निकला खुश बहुत पहुंचा बीच बाज़ार ।

मुंह लटकाए लौटता खाई ऐसी मार ॥

शोकसभा, श्रद्धांजली, समारोह का मंच ।

सब मौके की चीज हैं, कब चुके सरपंच ॥

अगर जानना चाहते आज़ादी का सार ।

अपने मन से पूछ लो किसकी है सरकार ॥

Friday, November 27, 2009

ऐ मालिक भोपाल !

सौ झोपड़ के बीच में पक्की इक दालान ।

इनके हिस्से कुछ नहीं उसका हिन्दुस्तान ॥

उनकी सोहरत यूँ हुई जैसे गंध कपूर ।

आंखों को कुछ ना दिखे दिल्ली में मशहूर ॥

बस्ती - बस्ती धुंआ है जंगल - जंगल आग ।

दिल्ली में दरबार है हरा - भरा है बाग़ ॥

यह पहाड़ का आदमी देख रहा है खेल ।

सारे जग को रोशनी इसे दिया - ना तेल ॥

साहब तेरी साहबी जैसे पेड़ बबूल ।

हमको छाया क्या मिले गड़े जिया में शूल ॥

बस्तर की बस्ती कहे एक रंग है लाल ।

वही खून का रंग है ऐ मालिक भोपाल ॥

भरे ताल - से नैन

आए - गए अनेक जन खुला रहा यह द्वार ।

बातें इतनी हो गईं सभी किए दो - चार ॥

तुकडे - तुकडे में जिया हुई समूची भूल ।

एक जगह जुटता नहीं दिल ना करे कबूल ॥

दोस्त मिले तो चोट का पहले करो हिसाब ।

तब फिर अपने दर्द की लिक्खो एक किताब ॥

एक मरुस्थल पार कर पहुँच नदी के पास ।

यह जीवन संग्राम है लिए कंठ में प्यास ॥

कभी प्यार से ले लिया अगर फूल का नाम ।

मन में काँटा चुभेगा सुबह - दोपहर - शाम ॥

मन व्याकुल तरसे बहुत लिए कंठ में प्यास ।

भरे ताल - से नैन हों दिल हो स्वच्छ अकास ॥

चहरे खुली किताब

अक्षर - अक्षर भूख है शब्द - शब्द है प्यास ।

यह कविता कैसे लिखे कवि की कलम उदास । ।

वह अक्षर से दूर है लेकिन अर्थ करीब ।

उसकी कविता मैं लिखूं है वह बहुत गरीब । ।

मेरी कविता चीखती औ तू ढूंढें राग ।

तू पथराया बर्फ है इधर धधकती आग । ।

कविता में काबिल हुए धरे अजनबी भेष ।

भाषा के बहुरूपिये घूमें देश - विदेश । ।

शब्दों का जंजाल है उनका माया - जाल ।

जिस पर उन्हें गुरूर है जिसमें उन्हें कमाल । ।

आप लिखें समझें स्वयं अपनी ही मुस्कान ।

कैसी कविता आपकी कैसा भाषा - ज्ञान । ।

अक्षर - अक्षर में चमक चढ़ा हुआ हो आब ।

जीवन को पहचानिए चहरे खुली किताब । ।

Thursday, November 26, 2009

अमरता

है तो मिट्टी की ही मूरत

कच्ची मिट्टी की ।

उम्र की धुप में तपी

दुखों की आंच में पकी

है तो मिट्टी की ही मूरत !

यह आपका है प्यार

की लगता है

रंग - रोगन लगने से आया है

इसमे निखार,

वरना क्या है की

एक ठोकर में टूट सकती है यह

या गलना ही है इसे

किसी के आंसुओं में भीगकर ।

है तो मिट्टी की ही मूरत

कच्ची मिट्टी की ।

इसके बाहर भी है क्या कोई अमरता !

Wednesday, November 25, 2009

पाजी बच्चा

एक बच्चा है मेरे सीने में

जो हर वक्त बेचैन किए रहता है मुझे

जब - जब भी किया करता हूँ कोशिश

की सुलाकर उसको

मैं भी बड़ा हो जाऊं

उस वक्त मुझे याद करा देता है वो

माँ के पसीने की महक

महक वह की जो छातियों के दूध के संग

मिलके मेरी जिह्वा पर स्वाद बनके बैठी है

महक वह की जिसे चाहता हूँ लफ्ज की शक्लें देना

महक वह की जो आज तलक

उतर न पाई मेरी भाषा में ।

एक बच्चा है मेरे सीने में

जो हर वक्त बेचैन किए रहता है मुझे

बड़े बेमन से पढ़ता है दुनिया का ककहरा बच्चा

और रह - रहके उबासियाँ लेता

तरक्की के पाठ सीखने के दौरान

उसका दिमाग भन्ना जाता है -

लड़ाइयों, नफरतों, कुनबापरस्ती, धोखा-फरेब, छीनाझपटी से

सजी - धजी दुनिया

की इस दुनिया के सारे पेच और परतों को खोलकर

किसी खिलौने को पुर्जा - पुर्जा कर देने की तरह

इसकी दिल फरेबी को तार - तार करने के फेर में

किसी मौके की तलाश में वह रहता है ।

इस जिद्दी बच्चे को संभालना मुश्किल

की इसको पढ़ाना मुश्किल

की इसको बड़ा बनाना मुश्किल,

चाहता हूँ की सुला दूँ इसको

आपकी सोहबत में गुजारूं कुछ वक्त

आपको ऐसा न लगे की बैठी है मेरे भीतर कोई खब्त

रहना तो है मुझको भी इसी दुनिया में !

एक बच्चा है मेरे सीने में ...

गौर से देखिये वह आपका ही बच्चा है

की जिसकी पीठ पर है भारी बसते का बोझ

दुनिया भर की इबारतें सौंप की मानिंद

फन काढ़े फुंफकारती हैं जिस पर

वह बदहवास, घबराया - सा बच्चा

बड़ों की दुनिया के सबक से आजिज बच्चा

बड़ी तरकीब से घर और स्कूल की हिदायत से अलग

नामालूम - सा कुछ बसते में छुपाये रखता है ।

मैं बड़े गौर से देखता हूँ बसते को

लगता है की मेरा टूटा - फूटा बचपन

किसी बच्चे के बंद बसते में

की पेन्सिल बाक्स में

की किसी कागज़ की फालतू - सी पुडिया में

इक रोज़ अचानक मुझे मिल जाएगा

और स्कूल जाता कोई डरा - सहमा, उदास बच्चा

मुझे देख खिलखिलाएगा -

बज उठेंगी हजार घंटियाँ उसकी खिलखिलाहट में

की वह बच्चा हंसेगा एक दिन

बड़ों की बेवकूफी पर ।

एक बच्चा है मेरे सीने में ...

उसकी चाहत है की फूलों की कतारों में

खडा कर दे दुनिया के बड़े - बूढों को

और सब मिल के गायें नर्सरी राएम्

और वह बच्चा फेंककर अपना बस्ता

दूर खडा तालियाँ बजाये,

देखे की दुनिया ने नई करवट ली है -

गायब हैं मुखौटे सारे

और आदमी के चहरे पर

फकत आदमी का चेहरा है ।

अभी तो खैर मुखौटों की इस दुनिया में

मैं अक्सर उदास रहता हूँ -

ताकता हुआ बच्चे को स्कूल जाते हुए

बच्चा की जिसको बूढा बनाने की फ़िक्र

अभी से उसके माँ - बाप पे है तारी

क्या गजब की दुश्वारी की फिलवक्त वह बच्चा

घर और स्कूल से बाहर आख़िर कहाँ जाए ?

एक बच्चा है मेरे सीने में - पाजी बच्चा

किसी खिलौने से वह फुसलता ही नहीं

मुखौटा पहनने से इनकार की जिद पाले है

और हर वक्त बेचैन किए रहता है मुझे ।

Tuesday, November 24, 2009

कविता लिखूंगा

मैं कविता लिखूंगा

मरहम के लिए - चोट के लिए

हाड तोड़ मेहनत के बाद भी

रह गयी कचोट के लिए ।

कविता में पहाड़ों की छाती सहलाऊंगा

धुप में झुलसते दरख्तों को

ठंडे पानी से नहलाऊँगा,

मैं जानता हूँ

मेरे काँटा चुभने पर

कविता ही चीखेगी

मेरे ठिठुरते मन को

धुप - सी दीखेगी ।

फिर भी आपसे इतनी मोहलत चाहता हूँ

मौसम बदलने की बात पर

सहमत होने के पहले

मैं जंगल की तरफ़ देखूंगा

बार - बार कविता में

आदमी - आदमी - आदमी लिखूंगा

मगर भूख लगने के वक्त

आदमी अनाज मांगेगा

उसे कविता नहीं चाहिए

रोटी पकाने के लिए

आग ही जलेगी

आग जलने से

आपको चोंकना नहीं चाहिए !

Sunday, November 22, 2009

पटना से दिल्ली

यक़ीनन यह सफर

हवाई सर्वेक्षण करने वालों के लिए

हादसा नहीं है

जो अपने गाँव से बाहर

काफी दूर एक अजनबी शहर

दिल्ली तक

मुझे घसीट लाया ।

मेरे लिए दिल्ली

उतना ही अजनबी है

जितना की दिल्ली के लिए

मेरा गाँव ।

गो की पहली बार हम एक-दूजे के सामने हों

तो पहचान के लिए

सिर्फ़ एक अनजानी -सी

मुस्कराहट के सिवा और क्या हो सकता है !

यक़ीनन यह सफर हादसा नहीं है

हवाई सर्वेक्षण करने वालों के लिए

जिनका रिश्ता जमीन से

तोड़ चुका है हवाई जहाज

और जो इसके आदी हो चुके हैं ,

पटना से दिल्ली के हवाई सफर में

जब बोईंग जहाज ने

जमीन से तोड़े मेरे रिश्ते

तब सचमुच मैं काफी डर गया

एक नन्हे खरगोश की तरह ,

हादसे का यह सफर

यूँ पूरा हुआ

की बराबर बेचैनी बनी रही

कब जमीन पर दुबारा टिकेंगे मेरे पाँव !

मैं जानना चाहता हूँ

हवाई जहाज में उड़ने वाले आदमी का

पहला अहसास

क्या जमीन से रिश्ता टूटने का होता है

और पहली बेचैनी

दुबारा जमीन पर पाँव टिकाने की ?

मैं इस तरह सवार हुआ हवाई जहाज पर

की जैसे कोई चिड़िया खेत में लगी फसल के दाने पर

झपट्टा मारे

और उसे चोंच में फंसाए

आसमान में ले उड़े

मैं इस कदर गूम हुआ

हवाई जहाज में अपनी सीट पर

की जैसे ऊंचाई पर

उड़ने वाले किसी पक्षी के चोंच में

अटका अनाज का दाना ।

इस सफर में

दरअसल मैं सुन ही नहीं सका

की बाकी लोग

क्या बातें कर रहे हैं आपस में !

मैं भूल गया की

कब और किधर से

एक सुंदर लड़की मेरी सीट के पास आकर खड़ी हो गयी

उसने कहा - मैंगो जूस या और कुछ ?

मुझे अपने गाँव का आम का बगीचा याद आया

मेरे मुंह से अचानक निकला - कुछ भी नहीं

वह मुस्कराई और चली गयी

पहली बार लगा की

बचपन में मिट्टी का धेला फेंककर

पेड़ से आम तोड़ने में

आम के पेड़ कभी इतने ऊंचे न थे ।

अब मैं क्या करूँ ?

खिड़की से नीचे की तरफ़ देखा -

देखा की एक नदी है

मगर वह नदी जैसी नहीं

देखा की पहाड़ है , जंगल है , पेड़ हैं

मगर पहाड़ - जंगल - पेड़ की तरह नहीं !

देखा की गाँव है , घर हैं , आदमी हैं

मगर गाँव - घर - आदमी की तरह नहीं !

हमने देखे हैं

जमीन से

आसमान में चिड़िया की तरह

उड़ते हुए जहाज - खिलौने की मानिंद

और आज देख रहे हैं हवाई जहाज से

नदी - पहाड़ - जंगल

गाँव - घर - आदमी

सब खिलौने की तरह ,

पटना से दिल्ली के बीच

यह कैसा सफर है

की समूची दुनिया

हकीकत से दूर

खिलौना नज़र आ रही है !

गाँव में दूर मेरी बूढ़ी माँ

जो घर के कच्चे आँगन में

झाडू - बुहारू करते वक्त

धूल में खोई सुई भी ढूंढ निकालती है

और खेत में काम करते मेरे पिता

जो बैलों से भी बात कर लेते हैं

और खडी फसल की कोख में

अनाज बनते दानों की

सरगोशियाँ तक समझ लेते हैं

उनसे इस हादसे का बयान

मैं किस तरह कर सकता हूँ

- किस भाषा में ?

मैं कैसे बता सकता हूँ

की आप सब खिलौने हैं

या मैं खेत की फसल से झपट्टा मारकर

आसमान में उड़ाया गया

किसी पक्षी के चोंच में अटका अनाज का दाना !

लेकिन , यह सफर

हादसा नहीं है

हवाई सर्वेक्षण करने वालों के लिए ।

Saturday, November 21, 2009

क़ुतुब मीनार

कितनी बड़ी ऊंचाई है कुतुबमीनार

चार सौ सीढ़ियों की ऊंचाई !

कहते हैं

वह एक गुलाम था

जिसने इस ऊंचाई का निर्माण किया

शायद जितनी गहरी होती है गुलामी

उतनी ही बड़ी ऊंचाई का ख्वाब है क़ुतुब मीनार !

यह जो आसमान की तरफ़

बेहद ऊंचाई तक उठा हुआ है हाथ -

एक तनी हुई , बंधी हुई , कसी हुई मुट्ठी के साथ

इसमें एक झंडा भी तो हो सकता था !

गुलाम के पास कोई झंडा क्यों नहीं था ?

Friday, November 20, 2009

औरत - तीन

ताप - संताप से

अपने विलाप से

संतों के पाप से

तोड़ रही है औरत

बंद दरवाजा ।

एक तकरार से

प्यार की मार से

झेले गए वार से

तोड़ रही है औरत

बंद दरवाजा ।

देह की गंध से

एकतरफा अनुबंध से

दुह्स्वप्नों के द्वन्द से

तोड़ रही है औरत

बंद दरवाजा ।

औरत - दो

औरत तो चाहती ही थी

एक समूची हरी - भरी धरती होना

भला वह कब चाहती थी

एक गुलदस्ते में तब्दील हो जाना

औरत चाहती तो थी एक गहरी झील

या शांत गतिवान नदी होना

लेकिन उसे खाली गिलास भरने का

पैमाना बनाकर

आपने रेगिस्तान पैदा कर लिया ।

अब औरत बिसूरती है

चार दीवारों के बीच

एक पूरे आसमान

और जंगल की तरफ़ खुलने वाली

महज़ एक खिड़की के लिए !

औरत - एक

औरत चाहे

पानी भरना -

भर न पाए

आखें भर -भर जायं ।

औरत चाहे

आग जलाना -

जला न पाए

तन - मन जलता जाय ।

औरत चाहे

ख्वाब जगाना -

जगा न पाए

रातें चुभ - चुभ जायं ।

औरत चाहे सब कुछ

लेकिन औरत रह - रह जाय ।

औरत के बारे में

कविता में

चहचहाती हुई

दाखिल होती है

एक बच्ची ।

जैसे - जैसे उम्र बढ़ती जाती है

जवान होने तक

वह उदास हो जाती है ,

कविता में

औरत के आंसुओं से

भीगती रहती है

समूची गृहस्थी ।

फिर सारे तजुर्बे

काम आते हैं दुआओं के

और देवदूतों की बनाई हुई

इस दुनिया को कोसने में ,

कितने साध भरे होते हैं

औरत के कंठ से फूटे हुए लोकगीत

और कितनी शापग्रस्त होती है कविता

औरत के बारे में !

Thursday, November 19, 2009

तबादला

एक दिन वही बात होगी

जिसका खटका लगा हुआ है

मन में -

मेरे हाथ से छूटकर टूटेगा कोई कांच

अचानक एक दिन

तुम चले जाओगे तबादले पर

मुझे अकेला छोड़कर

मैं खामोशी में एक लम्बी साँस लूंगा ।

तब मैं किससे कहूंगा

तुम्हारे चले जाने के बारे में

किससे कहूंगा

हाथ से छूटकर

टूटा एक कांच

फिर एक खटका लगा रहेगा

की अगली डाक में मुझे मिलेगी तुम्हारी चिट्ठी

फिर एक कांच टूटेगा

अचानक हाथ से छूटकर

मैं लम्बी साँस लूंगा

और खोलकर पढूंगा तुम्हारी चिट्ठी -

यहाँ की यादों और वहाँ मन न लगने के बारे में

भई , नौकरियों में तो ऐसा होता ही है

साथ - साथ चाय - काफी पीते हुए

अचानक हाथ से छूटकर

टूटता है कांच ।

हडबडी

दोस्त ने कहा -
इतनी हडबडी में क्यों हो
क्यों नहीं करते हो
मन लगाकर कोई एक काम
कुछ नहीं होना है दुनिया का
उससे अलग, जो कुछ होता चल रहा है
फिर काहे की हडबडी !
दोस्त ने कहा -
तुम्हारे चारो खाना चित हो जाने से भी
कुछ नहीं होना है दुनिया का
यही है दुनियादारी का तकाजा
इसे समझो
और मन लगाकर करो
कोई एक काम !
मगर कहाँ गयी हडबडी ?
दोस्त ने कहा -
यह जाती भी तो नहीं है, कमबख्त !

Wednesday, November 18, 2009

दोस्त के लिए

दोस्त की बगल में बैठ कर

दोस्त के लिए

कविता लिखना मुश्किल है

और दूर के शहर से लिखने में

चिट्ठी बन जाने का खतरा

मुझे कविता लिखना है

मैं खतरा ले रहा हूँ

इमानदारी से कहूं

तो दोस्त

कविता में कहकहे दे रहा हूँ

कहकहे - खुशी और चोट के बीच एक नदी

कहकहे - जीवन और कला के बीच एक पुल

कहकहे - आदमी के चूक जाने के समय मिली हुई मोहलत

कहकहे - अपने होने का ऐलान ।

फटी रजाई पर

पैबंद लगाना कला है

और फटी रजाई में

इस तरह पाँव डालना

की वह और न फटे

जीवन है ।

दोस्ती का मतलब

फर्क बताना है

मगर कविता और चिट्ठी

दोनों लिखना है ।

बरसों बाद

आज मिला वह बहुत अचानक बरसों बाद

वह ठिठका या मैं ठिठका था बरसों बाद

मटमैली -सी हंसी पुरानी, कंधे थोड़े झुक आए थे

उसने बढ़कर हाथ मिलाया बरसों बाद

मैं कुछ पूछूं, वह कुछ बोले, इतना सब क्या मुमकिन था

आख़िर यह पहचान पुरानी - बरसों बाद

कभी मिलेंगे, मिल ही लेंगे, अभी बहुत ही जल्दी है

देखो भाई, इसी शाहर में बरसों बाद

तब से मन उमगा - उमगा है

छाप पुरानी, रंग पुराने, महक पुरानी - बरसों बाद ।

Monday, November 16, 2009

कोई ख़ास बात नहीं

जब शहर में भीड़ हो इतनी

की जितनी रोज रहती है

शोर हो इतना

की जितना रोज होता है

भूख औ बीमारियों से

मरते हों इतने लोग

की जितने रोज मरते हैं

जलसे में - जुलूसों में

लोग इतने कुचल जाते हों

की जितने रोज कुचलते हैं

यहाँ तक की गावों में

उदासी इतनी हो

की जितनी रोज रहती है

तब भी किसी के पूछने पर

एक सभ्य जिम्मेदार

नागरिक की तरह

आप बोलेंगे -

कोई ख़ास बात नहीं, सब ठीकठाक है !

वृक्ष के बारे में

जब आप वृक्ष के बारे में सोचते हैं

तब होते हैं वृक्ष की ही तरह अकेले

हवा की तरह निस्पंद

और वक्त गुजरता जाता है ।

यह होती है वक्त की मार

जब आपको धकियाकर

एक किनारे किसी अस्वीकृत पेड़ की तरह

छोड़ दिया गया होता है - भरे मौसम में ।

गहरी छटपटाहट लिए

दूर से देखते हैं आप

एक बहती हुई नदी

और भीतर का रस - स्रोत

सूखता चला जाता है ।

अपनी छाया से बेखबर

एक पेड़ के उखड़ने की शुरुआत

ठीक यहीं से होती है,

आख़िर कहाँ नहीं हैं हरियाली के दुश्मन !

नदी के लिए

बचपन में एक नदी थी / पहाडी - पथरीली

दूर पहाड़ से उतर कर आती थी / जंगल के किनारे - किनारे

आसपास के गावों - डबरों में झांकती हुई

ढोर - डगारों ko पानी पिलाती / पता नहीं

कहाँ चली जाती थी / आरपार जाते हुए

उसकी काई लगी चट्टानों पर बचकर चलना पड़ता था

फिसलकर गिरने से / वरना डूबने का डर तो बिल्कुल नहीं था

वह छोटी नदी थी

जैसे नदी न हो - नदी का कोई बच्चा हो !

हमें ठीक - ठीक पता नहीं था / कहाँ से आती थी वह

और हमारे गाँव से होकर कहाँ चली जाती थी

एक बार हम कुछ बच्चे / बहुत दूर तक

गए थे नदी के साथ - साथ / पता लगाने की

कहाँ तक जाती है वह

तभी रास्ते में मिल गए थे हमारे स्कूल मास्टर

और वे हमें वापस गाँव ले आए थे

हम उसे अपने गाँव की नदी समझते थे - अपनी नदी

और पड़ोसी गाँव के बच्चों से स्कूल में झगड़ते थे

की वह हमारी ही नदी है / जो उनके गाँव भी जाती है

और फिर उनके गाँव से भी आगे पता नहीं कितनी दूर

लेकिन है वह हमारी ही नदी

नदी को क्या पता की उसके लिए स्कूल में हम कितना झगड़ते थे !

नदी का साथ बचपन तक था / और छुट्टियों में फिर

अपने हिस्से कभी - कभी तालाब में / डूबकी लगाने के दिन भी थे कुछ

कुँए में रस्सी तुडाकर जा छिपी बाल्टी को / कांटे से कान पकड़ कर

निकालने के चंद दुर्लभ दिनों की याद के सिवा

लेकिन अब क्या है जिंदगी के रेगिस्तान में !

बड़े पुरुषार्थ से कमाए गए / बाथरूम के नल के नीचे

अब जो कुछ भी है

महज भीगती हुई देंह है

और साबुन के झाग में लिपटी हुई शर्म

और तसल्ली के लिए / दुनियादारी से उपजा

बहुत सहेजा - सम्भाला हुआ / वही एक मुहावरा

की सबकी तरह / हमाम में मैं भी नंगा हूँ ।

हमाम से सीधे निकल कर / हममे से कोई एक

नक्शा बनाता है नदी पर बाँध का

जिसकी नहर में डूब जाता है बचपन / और

बाढ़ में दर्जन भर गाँव ।

हमाम में हम / फिर नंगे हो जाते हैं

हमाम के लिए हम कभी नहीं लड़ते

जैसे झगड़ते थे स्कूल में नदी के लिए !

Sunday, November 15, 2009

यह इमारत

टूटकर गिरी नहीं छत

टूटकर गिरा सिर्फ़ भरोसा

झरे नहीं दीवार के पलस्तर

भरभराकर झर गए इरादे

दरवाजे भी सब दुरुस्त

और खिड़कियों का कांच भी नहीं चटखा

फिर कहाँ बिला गईं उम्मीदें !

किसकी साँसों में भरी है इतनी सीलन

की बासठ बरस में

एक दहकते सच पर

जम गयी फफूंद

कहाँ है रोशनदान

इस अँधेरा उगलती इमारत में

किसने बना दिया इसको

झूठ का एक फरेबी तिलिस्म

इसकी दीवारों से टकराकर

लौटती है प्रश्नों की प्रतिध्वनि

नहीं आता कोई जवाब

वे कौन हैं जो चैन से सोते हैं इसमें

और देखते हैं ख्वाब लाजवाब !

सुखी आदमी की दिनचर्या

सुबह की चाय के साथ

वह बिस्तर में पढ़ता है कुछ हाट खबरें

ताकि नींद की खुमारी उड़न -छू हो जाए

इस तरह सुबह - सुबह तरोताजा होने में

आज भी अखबार वाकई बड़े उपयोगी हैं

दूसरा फायदा यह है की

दोपहर के टिफिन आवर में

गपशप की खुराक दे जाती हैं ऐसी खबरें ।

दाढी बनाते वक्त

आधे गाल लगे साबुन और टेढ़े मुंह की हाँ - हूँ के साथ

पूरी गंभीरता से सुनता है सुखी आदमी

पत्नी की फरमाइश

और बच्चों की शरारत की शिकायतें ।

नाश्ते की टेबुल पर

याद करता है कुछ ताजे चुटकुले

जो काम आयें दफ्तर में बॉस को सुनाने के

एक सुखी आदमी जानता है की

कमबख्त कितना कठिन हो चला है आजकल

किसी आदमी को हंसाना भी ।

सुखी आदमी रास्ते की दुश्चिंताओं को धकेल कर

शाम को देखता है घर लौटकर टीवी के विज्ञापन

और किसी दुहस्वप्न से पहले

देर रात की फिल्म देखकर सो जाता है ।

गोताखोर

गोताखोर अभी आया है तट पर

घेरे हुए हैं लोग

बहुत दिनों के बाद मिला है उसे काम

इतने दिनों तक कहाँ था वह

क्या करता रहा होगा

कौन जानता है यह !

अभी वह तैयार है गोताखोरी की पोशाक में

पीठ पर बांधे आक्सीजन का बॉक्स

और अजीब तरह से नाक -मुंह ढंके

दूसरे लोक का प्राणी नज़र आता है

उसका भी होगा ही कोई नाम

लेकिन इससे क्या अभी तो वह गोताखोर है

नाव तैयार है

मल्लाह इंतज़ार में हैं

तभी धीरे से चलता है वह

पहले नदी को प्रणाम करता है

फ़िर नाव पर रखता है पाँव

बैठता नहीं , खडा ही रहता है।

तट से दूर जाती नाव पर

वह किसी नायक -सा दीखता है -

लगभग देवदूत की तरह ।

अतल जलराशि में

नव से लगाता है छलाँग -

किसी तेज नुकीले तीर की तरह

नदी की देंह में धंसता

पलक झपकते अदृश्य हो जाता है गोताखोर ।

जल के नीले अंधेरे में

अब हाथ ही बन गए हैं आँख

लम्बी डोर का एक सिरा गोताखोर के हाथ में है दूसरा है नव पर

कुछ देर बाद बुलबुले छोड़ता कछुए की तरह

जल की सतह पर उगता है गोताखोर का सर

फिर -फिर दुबकी लगाता है वह

आख़िर तीसरी पाताल -यात्रा के बाद

खोज लिया उसने डूबी नाव को माल -असबाब समेत ।

अब तैयारी होगी डूबे हुए सामान को बाहर निकालने की

गोताखोर खुश है की उसे मिला है

बहुत दिनों बाद एक काम -

एक बार फिर वह नदी को करता है प्रणाम ।

नदी के अ तल -जल नीले अंधेरे में

हाथ ही बन जाते हैं गोताखोर की आँखें

वरना काम नहीं रहता तो खाली दिनों में दुनिया

नदी -समुद्र से भी गहरी नज़र आती है

गोताखोर को नदी में नहीं

दुनिया में डूब जाने का डर लगता है !

Saturday, November 14, 2009

इतिहास में स्त्रियाँ

हालांकि उस मोटी किताब के पन्नों में

कहीं -कहीं किसी गवाक्ष से झांकता

उनका चेहरा दीख जाता है - कर्णावती पद्मावती जैसा

और होनहार विद्यार्थी

चाँद बीवी, नूरज़हां, मुमताज़ महल, जीनत महल आदि

दस -पाँच नाम भी जानते हैं

लेकिन किसी दीवार में चिन दी गयी बादशाह की बेवफा प्रेमिका

या किसी नौकर से प्रेम करने वाली बिगडैल शहजादी के अलावा

इतिहास में कहाँ हैं स्त्रियाँ ?

ज्यादा से ज्यादा यह जानकारी मिलती है की

दो -चार महल में रहती थीं

और ढेर सारी हरम में ।

हाँ, अलग से दिखाई पड़ती है रजिया बेगम

घोडे पर सवार

और उसका गुलाम प्रेमी लगाम थामे पैदल जाता हुआ

लेकिन वह भी कितनी अकेली -सी दिखती है ।

जब इतिहासकार विजेताओं के

घोडों की हिनहिनाहट, हाथियों की चिग्घाड़

दौड़ते रथों की सरपट घरघराहट का वर्णन करता है

और इतिहास के पन्नों पर फ़ैल जाती है

छूटे गोलों की बारूदी गंध

तब हम सोच सकते हैं की

अचानक थम गए किसी लोकगीत की अनुगूंज की तरह

थरथराती, एक तरफ़ खामोश खडी हैं स्त्रियाँ

या फ़िर मवेशी की तरह हांककर ले जाया जा रहा है उन्हें

विजेता शिविरों की तरफ़

इतना और अंदाजा लगा सकते हैं की

यह इतिहास में शाम का वक्त है

और अँधेरा उगलती रात बस उतरने ही वाली है ।

युद्ध के इतिहास में जीवन का सूर्योदय नहीं खोजा जा सकता

लेकिन इतने पर भी हम सोच सकते हैं की

वे तब भी बच्चे पैदा करती थीं

और उन्हें पिलाती ही रही होंगी छातियों का दूध

पर सच पूछिए तो

स्त्री के इतिहास के बारे में

हमारी ठोस जानकारी इतनी ही है की

अधिक से अधिक हम अपनी माँ की माँ को जानते हैं

जिसे नानी कहते हैं

इसीलिये इससे ज्यादा कुछ बता पाने में

इतिहास की भी नानी मरती है

कुल मिलाकर हारे हुए पूर्वजों के आंसू में नहाए

या विजेता पूर्वजों के अट्टहास में सहमे

बिना माँ के बच्चों की तरह

कितने विपन्न हैं इतिहास के विद्यार्थी

हाय, कितना विपन्न है स्त्री विहीन इतिहास ।

टॉप

मुझे उड़ा दो

हवा में, धूल में

तूफ़ान - झंझावात में

मिट्टी में मिला दो

घोल दो पानी में

कम -अज -कम

आदमी जब साँस लेगा

उसमे मैं रहूँगा ।

रोष में, क्षोभ में

गुस्सा -विद्रोह में

रहेगी मेरी छाया ।

प्यासे की अंजुरी में

एक घूँट पानी बनकर

उसके गले के नीचे उतर जाऊंगा

मिट्टी में भी रहूँगा

तो फसल की पत्तियों और फलियों में

बना लूंगा अपनी गुंजाइश

अन्न बन जाना

बेहतर होगा मेरे लिए

कांपते पत्ते पर ठहरी बूँद की तरह

मुझे रहने दो शब्दों की खामोशी में

मैं बार -बार लौटूंगा

भरोसे के लिए भाषा में

यही है मेरा स्थाई पता ।

लिखना चाहता हूँ

मैं जीना चाहता हूँ प्यार से

लिखना चाहता हूँ

एक कविता विस्तार से

पोछ देना चाहता हूँ पसरी हुई सारी उदासी

ह्रदय के पठार से ।

चारों तरफ़ घिरे हुए इस बाड़े में

मैं कब से घूम रहा हूँ

डूब रहा हूँ एक दुर्गन्ध में

इस घेरे को तोड़ देना चाहता हूँ मुकम्मल इनकार से ।

अखाडा -धर्म की धूल में मुझे नहीं लिपटना

भुस के पुतलों को पटखनी देकर

अपने गले में मुझे माला नहीं डालना

वे जाते हैं

अयोध्या -काशी , काबा -मक्का

तो जाएँ

मक्का जाने के बजाय

मैं मक्के की खेती करूंगा

मुझे कुछ नहीं लेना उनकी ललकार से

मुकाबला करूंगा उनका भूख की चीत्कार से ।

आपको जाना है तो जाइए

बुश या लादेन या सद्दाम के साथ

मैं जा रहा हूँ

अपने पड़ोसी हज्जाम के साथ ।

मैं जीना चाहता हूँ प्यार से

लिखना चाहता हूँ एक कविता विस्तार से ...

नहीं मिला सकता हाथ

एक साधारण आदमी की तरह

मैं लिपटा रहा भूख से - बेगारी से

मेहनत - महामारी से

बेशर्म की तरह , आदत से लाचार

अब भी मैं करता हूँ प्यार

किसी नारी से

घृणा व्यभिचारी से

मैं नहीं मिला सकता हाथ किसी व्यापारी से ।

जानता हूँ

सफलता के लिए घातक हैं ये आदिम आचार

मेरे हिस्से आती है हार

इसी लिए बार -बार

फ़िर भी मैं जगता हूँ , सूतता हूँ

और उनकी जीत पर मूतता हूँ ।

Thursday, November 12, 2009

आख़िरी उम्मीद

हत्यारे लाख कोशिश करें
मगर दुनिया के
रसातल में पहुँच जाने के बावजूद
मसान की मिट्टी से गर्दन उठा कर
खिलखिला पडेगा कोई फूल
कब्र के अंधेरे को फाड़कर
चंद हरी पत्तियों के साथ
निकल ही आएगी
एक जिद्दी टहनी

हत्यारे लाख कोशिश करें ।

जैसे मृत्यु के पहले
आदमी सौंप जाता है
अपनी भाषा किसी और को
तमाम दुर्घटनाओं में
दब -कुचल कर भी
मेरी आख़िरी उम्मीद
जीवन के अगल -बगल खडी रहेगी -
मौत को दुत्कारती -धिक्कारती

कविता नहीं बिछेगी
हत्यारों के पाँव के नीचे
कालीन बनकर
शब्दों से नहीं छीने जा सकेंगे
उनके अर्थ

हत्यारे लाख कोशिश करें ।

Tuesday, November 10, 2009

मेरा शहर

जब मैं कविता लिख रहा था
कुछ लोग हडबडी में थे
दफ्तर पहुँचने की
कुछ को कारोबार की फ़िक्र सताए थी
कुछ ऐसे थे
जो भागे जा रहे थे
सड़क पर एक -दूसरे को धकियाते
राजधानी की ओर।

यहाँ तक की मेरा पड़ोसी
सुबह घर से गायब होता था
और एक आला अफसर के आगे -पीछे
दिन भर घूमते हुए ठेकेदार बन बैठा

जब कविता पूरी हुई
तब तक कुछ लोग बड़े इत्मीनान के साथ
दुनिया को जहन्नुम में भेजते हुए
अपने -अपने दफ्तर में प्रमोशन पा चुके थे
कारोबार की फ़िक्र
मुनाफे की ठसक में तब्दील हो चुकी थी
जो भागे जा रहे थे
सड़क पर एक -दूसरे को धकियाते
संसद के स्वर्ग में विराजने लगे थे
पड़ोसी से ठेकेदार हुए आदमी के प्रताप से
एक स्कूल की छत पहली ही बरसात में
यूँ भहराई की दब मरे बीस बच्चे
भरी जवानी में
सड़क के गड्ढे में पाँव तुडा कर
एक आदमी ने पकड़ ली चारपाई

नगर पिता का कमाल लाजवाब साबित हुआ -
वह जितनी दवाएं बंटवाता
बीमारों की तादाद
उतनी ही बढ़ जाती हर साल

शहर में जितनी ऊंची उठती जाती है दीवार
उतने ही ज्यादा उस पर चस्पा होते जाते इश्तहार ।

Monday, November 9, 2009

जो होते हैं महज दर्शक

महज जिंदगी के सवाल नहीं होते
वरना विज्ञापित दुनिया में क्या कुछ नहीं होता
सुंदर सजा -धजा घर होता है
घर में सोफा -टीवी -फ्रीज
संचित लोभ और झूठ से ठसाठस भरी अलमारी
चाभी भरे खिलोनों से खेलते
खिलखिलाते बच्चे
खाने की मेज़ पर तरह -तरह के व्यंजन परोसती एक सुंदर नारी
विज्ञापित जिंदगी में क्या कुछ नहीं होता
स्वाद में सदाशयता , सम्बन्ध में मक्कारी
बैठकखाने की दीवार पर टंगा होता है
एक अदद मुखौटा भी खामोश
जिसका किसी चीज में कोई हस्तक्षेप नहीं होता
जो होते हैं महज दर्शक
उनके लिए जिंदगी के सवाल नहीं होते

विज्ञापित दुनिया में बीमारियां नहीं होतीं
न उखड़ती है साँस
न आता है एक सौ चार डिग्री बुखार
लू नहीं चलती
ठण्ड से अकड़ कर कोई नहीं मरता
विज्ञापित दुनिया में अगर जुकाम होता है
तो छींक के साथ
कोई न कोई मरहम भी जरूर होता है
पहुंचाने के लिए राहत
जो दर्शकों को सुकून देता है
वे नहीं होते आहत ।

दर्शकों , आपके मद्देनज़र
खेद है की मेरे पास इस वक्त
राष्ट्र के नाम कोई संदेश नहीं है ।

Sunday, November 8, 2009

चित न धरो

हे इश्वर मैंने तुम्हे अपना एजेंट नहीं बनाया
और इस तरह
अपनी कूबत भर
तुम्हारा बोझ हल्का किया - तुमको नहीं सताया .

मैंने प्रार्थना के गीत नहीं गाये
न गिरगिराया तुम्हारे आगे
पहले से ही लम्बी कतार में खड़े थे अभागे
मैंने तरस खाई
थोड़ी सब्र से काम लिया
और तुम्हे छोड़ दिया
हरदम झींकते रहने वाले अधीर लोभी अपाहिजों के लिए
कम से कम मेरी तरफ़ से निश्चिंत होकर
तुम उन्हें संभाल सको
ठीक से उबाल सको उनके आलू .

जिनको अपनी जिंदगी पर आती है मितली
वैसे लोगों में मैं नहीं हूँ
वे सुनायेंगे तुमको अपनी हाय हाय
पूछेंगे तुम्हीं से उपाय
क्यों उन्हें आती है मितली .

अपने किए और जिए पर
मैंने न तुमको पुकारा
न ख़ुद को धिक्कारा
सोया फ़िर से जागने के लिए
मैंने यह जिंदगी नहीं पायी है
महज भागने के लिए
तुम्हारे पीछे .

तुम्हें चौकीदार तैनात कर पडा रहूँ आँखें मीचे
मैं ऐसा खुदगर्ज नहीं हूँ
मेरी तरफ़ से तुम्हारी छुट्टी
जाओ थोड़ी मौज करो
मेरो अवगुण चित न धरो .