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Friday, April 29, 2011

फटी बनियान का गोदाम बन गई है दिल्ली

सफलता-असफलता की सीमारेखा पर खड़े साधारण नागरिक की विडंबना के बहुत प्रामाणिक कवि हैं हेमंत कुकरेती। उनकी कविता में एक असमाप्त निरंतरता है और प्रतिबद्धता असंदिग्ध। उनकी कविता मनुष्य बने रहने की बेचैनी से हमें भर देती है। पढि़ए हेमंत की एक मार्मिक कविता-

एक मनुष्य से मिलना/हेमंत कुकरेती

जाने क्या सोचकर मुझे टटोलता हुआ-सा आया मेरे पास
हाल में ही बंद हुई फैक्ट्री का बेकार मजदूर था
बार-बार देखता रहा वह मुझे
मैं उसे ताड़ता रहा कनखियों से

इन दिनों काफी हलचल है यहां
शहर को साफ-सुथरा बनाने के लिए लोग उजड़ रहे हैं
सुनते हैं कि मुफ्त गाडिय़ां भर-भरकर जा रही हैं
लोग जा रहे हैं बदहवास अपने उस बदहाल घर
जिसे छोड़ अर्सा हुआ आए थे यहां जीने भर के लिए
थोड़ा-सा कुछ जुटाने

बिहार, छत्तीसगढ़, पूर्वी उत्तर प्रदेश की फटी बनियान का
गोदाम बन गई है दिल्ली
सरकार रुको और इंतजार करो :
आखिरकार टाल दो के अंदाज में सुनती है
मार खाए लोगों की कहानी

इस कहानी के हाशिए पर पड़ा प्रश्नचिन्ह वह
झिझकते सहमकर बैठा मेरे पास
ऐसे ही उसे दिख गई मेरे कॉलर पर रेंगती चींटी
जैसे बंदर संवारते हैं अपने मुखिया के बाल
और उसके करीबी बन जाते हैं
मुझे लगा शायद चींटी कोई थी ही नहीं
वह केवल यह कहना चाहता था- कोई काम मिलेगा!

मुझमें तलाश रहा था वह एक मनुष्य

मैंने झुकी आंखों से हाथों को बोलते सुना
पर मैं उसमें नहीं देख पाया
जो पशुओं से अलग करता है हमें।

Thursday, April 28, 2011

तुझमें भी एक बुढिय़ा है!

राही मासूम रजा ने छह वर्षों तक अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग में अध्यापकी की थी, फिर 1967 में मुंबई जा बसे। उस दौरान लिखी कविताओं का संग्रह है- मैं फेरीवाला बेचूं यादें। इसी संग्रह से है यह बहुत प्यारी कविता-

चांद की बुढिय़ा/राही मासूम रजा

मां से एक बच्चे ने पूछा-
चांद में यह धब्बा कैसा है?
मां यह बोली-
चंदा बेटे, जिसको तुम धब्बा कहते हो
वह तो एक पागल बुढिय़ा है
बच्चे ने मासूम आंखों से
पलभर मां को देखा
तब यह पूछा-
मां, जब मैं चंदा बेटा हूं
तब तो मुझमें भी एक पागल बुढिय़ा होगी
मां ने उसको भींच लिया
उसके लब चूमे
गरदन चूमी
माथा चूमा
और ये बोली-
हां, तुझमें भी एक बुढिय़ा है!

Wednesday, April 27, 2011

झूठ के पेड़ तले सारा दिन बैठे रहते हैं

सच और झूठ का दांव-पेच ऐसा है कि जिंदगी इनके बीच पिसती रहती है-यह भी एक सच ही है। शहर में आदमी का निबाह कैसे हो, पढि़ए राही मासूम रजा की दो गजलें-

एक
हम भी झूठ के पेड़ तले सारा दिन बैठे रहते हैं
इस जीने के हाथों यारो देखो क्या-क्या सहते हैं।

खुश्की से मत धोखा खाना ये राहें हैं पानी की
जब इनका मौसम आता है ये दरिया भी बहते है।

अपना बियाबां ठीक है जोगी धूनी रमाए बैठा रह
शहरों का कुछ ठीक नहीं, बसते उजड़ते रहते हैं।

हर रम्माल-नजूमी देखा, हर पंडित से पूछ लिया
बात है दिल के मौसम की तो राही जी क्या कहते हैं।

दो
पहले तो राही जी घर जाओ गंगाजी में नहाओ
फिर वहीं पे चादर तान के लेट रहो-सो जाओ।

अपनी सारी मसलहतें तुम और कहीं ले जाओ
मैं तो गरीबां चाक हूं यारो मुझको मत समझाओ।

मेरे दर्दे-जुदाई की बस एक दवा है यारो
मेरे घर से चुटकी भर मेरा आंगन ले आओ।

दिन को तो ढल जाने दो, फिर चांद कोई निकलेगा
हिज्र के वन में पहला दिन है इतना मत घबराओ।

शीशागरों कायल हूं तुम्हारे फन का मैं भी लेकिन
दिल जैसा शीशा हो, तुम्हारे पास तो फिर दिखलाओ।

Monday, April 25, 2011

खुद तमाशा हैं खुद तमाशाई

गद्य में ही नहीं, पद्य में भी राही मासूम रजा का अपना अलग रंग है। शायरी में भी परंपरा का केंचुल उतार कर उन्होंने अपना लहजा अपनाया है, जो उनकी शायरी को आधुनिक बनाता है। पढि़ए राही की यह गजल-

हाय अहले जुनूं की तनहाई
खुद तमाशा हैं खुद तमाशाई।

किसके हिस्से में चांद निकलेगा
किसकी होगी ये शामे-तनहाई।

जिसको देखो वो सिर्फ परछाईं
जिंदगी किस नगर में ले आई।

एक सूरजमुखी खिला जबसे
महकी-महकी है दिल की अंगनाई।

ऐसा लगता है इस बरस बरसात
जैसे इक दश्त ही उठा लाई।

क्या सुनाऊं मैं ख्वाब की बातें
रात तो नींद ही नहीं आई।

दर्दे-दिल सो रहा है मुद्दत से
दोस्तो, कब चलेगी पुरवाई।

कुछ तो बदला है हिज्र का मौसम
खिड़की खोली तो कुछ हवा आई।

Saturday, April 23, 2011

सीख जुनूं हर काम से पहले

अपने पहले ही उपन्यास आधा गांव से बेहद चर्चित राही मासूम रजा ने एक से बढ़कर एक औपन्यासिक कृतियां दी- टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी, ओस की बूंद और दिल एक सादा कागज- और, हिंदी-उर्दू के बीच की दीवार गिरा दी। अत्यंत लोकप्रिय टीवी धारावाहिक महाभारत की पटकथा और संवाद भी राही ने ही लिखे थे। राही उच्च कोटि के शायर और प्रखर साहित्यिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विचारक भी थे। जिंदगी में बहुत काम आनेवाली पढि़ए उनकी यह गजल-

इल्जाम और ईनाम से पहले
सीख जुनूं हर काम से पहले।

क्यों एहसास का रोग लगाया
रहते थे आराम से पहले।

मैंने समझा था दोस्त है मेरा
वह आता था काम से पहले।

तेरा नाम मेरे किस्से में
आया मेरे नाम से पहले।

हम थे बड़े आजाद तबीयत
मंजिले-दानओ-दाम से पहले।

हम भी पहचाने जाते थे
अपने तर्जे-कलाम से पहले।

रात ने सूरज को समझाया
घर आ जाना शाम से पहले।

राही जी कुछ टूट चुके हैं
घर आते हैं शाम से पहले।

Tuesday, April 19, 2011

एक फिल्मी गाना, जो कौमी तराना बन गया

1964 में आई थी एक फिल्म- हकीकत। इस फिल्म के लिए लिखा कैफी आजमी का एक नग्मा देखते ही देखते कौमी तराना बन गया। आज भी हर खास मौके पर यह गाना देशभर में गूंजा करता है-

कर चले हम फिदा जानो-तन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

सांस थमती गई, नब्ज जमती गई
फिर भी बढ़ते कदम को न रुकने दिया
कट गए सर हमारे तो कुछ गम नहीं
सर हिमालय का हमने न झुकने दिया,
मरते-मरते रहा बांकपन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

जिंदा रहने के मौके बहुत हैं मगर
जान देने की रुत रोज आती नहीं
हुस्न और इश्क दोनों को रुस्वा करे
वो जवानी जो खूं में नहाती नहीं,
आज धरती बनी है दुल्हन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

राह कुर्बानियों की न वीरान हो
तुम सजाते ही रहना नए काफिले
फतह का जश्न इस जश्न के बाद है
जिंदगी मौत से मिल रही है गले,
बांध लो अपने सर से कफन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

खींच दो अपने खूं से जमीं पर लकीर
इस तरफ आने पाए न रावन कोई
तोड़ दो हाथ अगर हाथ उठने लगे
छू न पाए सीता का दामन कोई,
राम भी तुम, तुम्हीं लक्ष्मन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो।

Saturday, April 16, 2011

दीवाना पूछता है...

कैफी आजमी की पत्नी शौकत कैफी ने अपने एक लेख में एक घटना का जिक्र किया है, जिसमें कैफी के स्वभाव की झलक मिलती है- एक दिन हमारे घर में चोरी हो गई। तमाम बेडकवर, चादरें, कंबल चोरी हो गए। मुझे मालूम था कि चोर कौन है। एक चोर माली हमारे घर किसी प्रकार आ गया था। जब हमारे घर में निरंतर चोरियां होने लगीं और मुझे पता चला कि यह सारा काम उसी माली का है तो मैंने उसे निकाल दिया और एक दिन जब हम घर से बाहर गए हुए थे और घर खुला हुआ था तो अवसर पाकर वह माली फिर आया और घर के तमाम कंबल और चादरें उठा ले गया। जब मैंने कैफी से कहा कि तुम पुलिस में सूचना दो तो कहने लगे- देखो शौकत, बारिश होनेवाली है। उस गरीब को भी तो चादरें और कंबल की जरूरत होगी। उसके बच्चे कहां सोएंगे? तुम तो और खरीद सकती हो, लेकिन वह नहीं। मैंने अपना सिर पीट लिया। क्या जवाब देती।... अब पढि़ए कैफी की यह गजल-

क्या जाने किसी की प्यास बुझाने किधर गईं
उस सर पे झूम के जो घटाएं गुजर गईं।

दीवाना पूछता है यह लहरों से बार-बार
कुछ बस्तियां यहां थीं बताओ किधर गईं।

अब जिस तरफ से चाहे गुजर जाए कारवां
वीरानियां तो सब मेरे दिल में उतर गईं।

पैमाना टूटने का कोई गम नहीं मुझे
गम है तो यह कि चांदनी रातें बिखर गईं।

पाया भी उनको खो भी दिया चुप भी यह हो रहे
इक मुख्तसर-सी रात में सदियां गुजर गईं।

Friday, April 15, 2011

वह जहां नहीं मिलता

कैफी आजमी आजीवन कम्यूनिस्ट रहे- विचार से भी और कर्म से भी। वो जैसी दुनिया चाहते थे, वह सोवियत संघ में भी नजर नहीं आई। सितम्बर 1974 में मास्को-सफर का एहसास उनकी इस गजल में है-

मैं ढूंढ़ता हूं जिसे वह जहां नहीं मिलता
नई जमीन नया आसमां नहीं मिलता।

नई जमीन नया आसमां भी मिल जाए
नए बशर का कहीं कुछ निशां नहीं मिलता।

वह तेग मिल गई जिससे हुआ है कत्ल मेरा
किसी के हाथ का उस पर निशां नहीं मिलता।

वह मेरा गांव है वो मेरे गांव के चूल्हे
कि जिनमें शोले तो शोले, धुआं नहीं मिलता।

जो इक खुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यों
यहां तो कोई मेरा हमजबां नहीं मिलता।

खड़ा हूं कबसे मैं चेहरों के एक जंगल में
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहां नहीं मिलता।

Wednesday, April 13, 2011

बिजली के तार पर बैठा हुआ तन्हा पंछी

कैफी आजमी की गजलों में जमाने की फिक्र बड़ी शिद्दत से महसूस की जा सकती है। उनकी गजलें ऐसा आईना हैं, जिनमें हमारे वक्त की शक्ल-ओ-सूरत दिखाई देती है। जैसे यह गजल-

शोर यूं ही न परिंदों ने मचाया होगा
कोई जंगल की तरफ शहर से आया होगा।

पेड़ काटने वालों को ये मालूम तो था
जिस्म जल जाएंगे जब सर पे न साया होगा।

बानी-ए-जश्ने-बहारां ने ये सोचा भी नहीं
किसने कांटों को लहू अपना पिलाया होगा।

अपने जंगल से जो घबरा के उड़े थे प्यासे
ये सराब उनको समंदर नजर आया होगा।

बिजली के तार पे बैठा हुआ तन्हा पंछी
सोचता है कि वो जंगल तो पराया होगा।

Tuesday, April 12, 2011

इश्तहार इक लगा गया कोई

बीती सदी में लिखी कैफी आजमी की यह गजल आज के वक्त और हालात पर भी लागू हो रही है तो जरा सोचिए कि हमने कितनी तरक्की की है और आम आदमी की जिंदगी में कितनी और कैसी बेहतरी आई है?

हाथ आकर लगा गया कोई
मेरा छप्पर उठा गया कोई।

लग गया इक मशीन में मैं भी
शहर में ले के आ गया कोई।

मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरी
इश्तहार इक लगा गया कोई।

ऐसी महंगाई है कि चेहरे भी
बेच के अपना खा गया कोई।

अब कुछ अरमां हैं न कुछ सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई।

ये सदी धूप को तरसती है
जैसे सूरज को खा गया कोई।

वो गए जब से ऐसा लगता है
छोटा-मोटा खुदा गया कोई।

मेरा बचपन भी साथ ले आया
गांव से जब भी आ गया कोई।

Monday, April 11, 2011

मेरा पांव किसी और ही का पांव लगे

पूर्वी उत्तर प्रदेश में आजमगढ़ जिले के मिजवां गांव में 19 जनवरी 1919 को जन्मे अतहर हुसैन रिजवी अदब की दुनिया में कैफी आजमी बन गए। मुंबई की फिल्मी दुनिया ने उन्हें लोकप्रियता की बुलंदियों तक जरूर पहुंचाया, लेकिन उसकी चकाचौंध न कभी उन्हें भरमा पाई और न भटका पाई। वे अपने गांव से हमेशा जुड़े रहे। दरअसल, कैफी साहब की शायरी की बुनियाद उनके अपने गांव की ठोस जमीन पर ही कायम है, इसीलिए वे मुल्क के शायर हैं- आम इंसान के शायर हैं। पढि़ए उनकी यह गजल-

वो कभी धूप कभी छांव लगे
मुझे क्या-क्या न मेरा गांव लगे।

किसी पीपल के तले जा बैठे
अब भी अपना जो कोई दांव लगे।

एक रोटी के तअक्कुब में चला हूं इतना
कि मेरा पांव किसी और ही का पांव लगे।

रोटी-रोजी की तलब जिसको कुचल देती है
उसकी ललकार भी इक सहमी हुई म्यांव लगे।

जैसे देहात में लू लगती है चरवाहों को
बंबई में यूं ही तारों की हसीं छांव लगे।

Sunday, April 10, 2011

अपने अपने राम...जाकी रही भावना जैसी

कल राम नवमी है- मर्यादा पुरुषोत्तम राम के अवतरण का दिन। तुलसी दास ने बहुत ठीक लिखा है- जाकी रही भावना जैसी, हरि मूरत देखी तिन तैसी। बीसवीं सदी के आखिरी दशक में कुछ लोगों ने अयोध्या आंदोलन के बहाने भगवान राम को अपने आईने में उतारना चाहा था। उसमें कितनी मर्यादा थी, यह सवाल आज भी अपनी जगह कायम है। पढि़ए मशहूर शायर कैफी आजमी की यह नज्म-

दूसरा बनवास/कैफी आजमी

राम बनवास से लौटकर जब घर में आए
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आए
रक्से-दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसम्बर को सिरीराम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आए।

जगमगाते थे जहां राम के कदमों के निशां
प्यार की कहकशां लेती थी अंगड़ाई जहां
मोड़ नफरत के उसी राहगुजर में आए।

धर्म क्या उनका है क्या जात है यह जानता कौन
घर न जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा यार लोग जो घर में आए।

शाकाहारी है मेरे दोस्त तुम्हारा खंजर
तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की खता जख्म जो सर में आए।

पांव सरयू में अभी राम ने धोए भी न थे
कि नजर आए वहां खून के गहरे धब्बे
पांव धोए बिना सरयू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे
राजधानी की फिजां आई नहीं रास मुझे
छह दिसम्बर को मिला दूसरा बनवास मुझे।

ऐ चिंगारी राख न बन!

ताज भोपाली का इंतकाल हुए 33 बरस हो रहे हैं- 12 अप्रैल, 1978 को वे अलविदा कह गए थे। उनको याद करते हुए पढि.ए उनकी ये दो गजलें, जो आज के वक्त में भी उतनी ही मौजूं और जरूरी हैं...

एक
ऐ चिंगारी राख न बन
फूंक दे मेरा ही दामन।

तुझसे वफा की उम्मीदें
देख मेरा दीवानापन।

हम दुखियों से हंसकर मिल
क्या जोबन क्या मायाधन।

मुझमें अपना अक्स न देख
मैं हूं इक टूटा दरपन।

दो
कश्मीर से ताराजे-दकन चीख रहे हैं
सूरज है कहां अहले-वतन चीख रहे हैं।

वो शोर है हर शहर की हर राहगुजर पर
रंगीन लिबासों में बदन चीख रहे हैं।

ये कौन सी बरखा है बरसना है न खुलना
ऐ अब्र सभी सर-ओ-समन चीख रहे हैं।

ऐ गुलबदनो, कोई महकता हुआ झोंका,
हम भी पसे-दीवारे-चमन चीख रहे हैं।

Wednesday, April 6, 2011

ये बस्ती कोई जंगल तो नहीं है

ताज भोपाली की शायरी में जितनी सादगी है, उतनी ही संजीदगी भी है। इन्हीं दो चीजों से वे अपनी गजलों में जादू जगाते हैं। पढि़ए यह गजल-

ये जो कुछ आज है कल तो नहीं है
ये शामे-गम मुसलसल तो नहीं है।

मैं अक्सर रास्तों में सोचता हूं
ये बस्ती कोई जंगल तो नहीं है।

मैं लम्हा-लम्हा मरता जा रहा हूं
मेरा घर मेरा मकतल तो नहीं है।

किसी पर छा गया, बरसा किसी पर
वो इक आवारा बादल तो नहीं है।

यकीनन गम में कोई बात होगी
ये दुनिया यूं ही पागल तो नहीं है।

Tuesday, April 5, 2011

छोटी-सी आजादी के लिए यही एक प्रस्तावना है

जीवन अपने आप में एक कृतज्ञता है, यह बताते हैं कवि कुमार अंबुज। नाकामियों के आगे थक-हार कर बैठ जाने के बजाय बहुत गहरा भरोसा जगाने वाली पढि़ए उनकी एक शानदार कविता-

यहां तक आते हुए/कुमार अंबुज

जैसे एक दोपहर की चमक    घास    कपास    नमक
मेरे पास इतनी नन्ही और नाजुक चीजें हैं
जिन्हें न तो युद्ध के जरिए बचा सकता हूं
और न ही शास्त्रार्थ से
शायद उन्हें जिद से बचाया जा सकता है या फिर आंसुओं से
छोटी-सी आजादी के लिए यही एक प्रस्तावना है
लेकिन सिद्ध करने के लिए मेरे पास वैधानिक तौर पर कुछ नहीं
मेरे पास केवल मेरा यह जीवन है जो जहां है जैसा है वैसा है
मैं एक अयाचित परछाईं अपने होने के स्वप्न की
स्वप्न वह जीवन जिसे मैं जी नहीं पाया
और इस असफलता का दुख यहीं छोड़ते हुए
एक और सपने के साथ बढऩा चाहता हूं आगे
जैसे मैं एक लहर हूं एक पत्ता और हवा की आवाज
मुझे याद आता है परिजनों का जीवन बचाते हुए
एक दिन ऐसा भी हुआ था कि मेरे गले में मेरे संवाद नहीं थे
मेरी क्रियाओं में शामिल नहीं थीं मेरी इच्छाएं
और यह भी कई बार हुआ कि जिन्हें करता था प्यार
उनके विचारों का नहीं कर पाया सम्मान
और इस बात ने भी रास्तों को दुर्गम बनाया
फिर भी मेरे यहां तक चले आने में
सिर्फ मेरे ही कदम शामिल नहीं हुए,   धन्यवाद
कि पास में ही कई लोग चलते रहे मेरी भाषा बोलते
अंधेरे में भरते हुए आवाजों का प्रकाश
कद्दू की बेल     कत्थई मैदान     अमावस की रात
चींटी     एक सिसकी     दुख की आहट
शब्द और एक बच्चे ने मुझे बार-बार अपना बनाया
इन्हीं सबके बीच हमेशा मांगता रहा कुल तीन चीजें-
पीने का पानी रोटी और न्याय
हालांकि कई कोने कई जगहें ऐसी भी रहीं
जहां नहीं पहुंच सके मेरी कोशिशों के हाथ
लेकिन समुद्र की आवाज मुझ तक  पहुंचती रही हांफती हुई भी
करोड़ों मील दूर से चलकर आती रही सूर्य की किरण
मैंने देखा एक स्त्री ने अपने तंग दिनों में भी एक जन को
कहीं और नहीं पहले अपनी आत्मा में और फिर
अपने ही गर्भ में जगह दी
इन सब बातों ने मुझे बहुत आभारी बनाया
और जीवन जीने का सलीका सिखाया
यह ठीक है कि कई चीजों को मैं उतनी देर
ठिठककर नहीं देख सका
जितनी देर तक के लिए वे एक मनुष्य से आशा करती थीं
कई अवसरों को भी मैंने खो दिया
मैं उम्मीद में गुनगुनाता हुआ आदमी था धनुर्धारी नहीं
मेरे पास जीवन एक ही था और वह भी गलतियों
चूकों और नाकामियों से भरा हुआ
लेकिन उसी जीवन के भीतर से
आती रहती थीं कुछ करते रहने की आवाजें भी
कितना काम करना था कह नहीं सकता कितना कर पाया
इतना तो जरूर ही हुआ कि मैं अपनी गलतियों
से भी पहचान में आया।

Monday, April 4, 2011

सरकार तो सरकारे रही साहेब!

हालांकि जिंदगी किसी हादसे में लहूलुहान होने के बाद भी उसके पार निकल ही आती है और कहते हैं कि गुजरात में भी मोदी-काल के गर्हित दौर से मोदी-काल में ही वह बाहर निकल आई है। लेकिन इंसान है कि आगे बढ़ते हुए भी वह बार-बार पीछे मुड़कर देख लिया करता है, ताकि वैसे हादसे दोबारा जिंदगी में न आएं। पढि़ए रवींद्र भारती की यह कविता-

गुजरात/रवींद्र भारती

हम मनई हैं लेकिन हैं चिरई की जाति
बच्चे से लग गए रोटी की जुगाड़ में
फुर्र से यहां, फुर्र से वहां
डेरा बांधते-छोड़ते पुरखों की तरह रहे डोलते
का बताएं साहेब, कहां है ठौर-ठिकाना!
हियां, अहमदाबाद में कमाए आए रहे कि शांति है-
मार-पीट, चोरी-चमारी कम है, डाह नहीं है आपस में...
कहत जिऊ भरि आवत है...एई, बड़ी-बड़ी-
तलवार भांजत झुंड के झुंड आए सब...
सोवत-जागत लोग भहराए लागे तर ऊपर
काट डारे गटई, आग लगा दिए, गोलियो दागे-
इहैं, इहैं... हमें तो मुरदा जान के छोड़े
खोद डाले मुरदघट्टी, मसान, कब्रिस्तान...
का कहें साहेब कोई माई-बाप नहीं रहा।

सरकार डेरावत रही, धमकावत रही
सनकावत, ललकारत रही
सरकार तो सरकारे रही साहेब।

इतना ही सुन पाए कि ऊंघ गए साहेब जी
भीड़ में किसी ने किसी से कहा-
जो ऊंघ गया, वह तो हैं सेक्यूलर जी
दल-बल के साथ पधारे कुछ दिन पहले सेक्यूलर जी
आलाकमान के साथी हैं, बहुत पुराने सेक्यूलर जी
कहते हैं कि उनकी लाज बचाने आए भए हैं सेक्यूलर जी।
कहते हैं कि एक खास जाति का वोट-
मुट्ठी में रखते हैं सेक्यूलर जी
कहते हैं कि मसखरी में लल्लू के भी नाना हैं सेक्यूलर जी।
नहीं-नहीं, कहा किसी ने, वह नहीं हैं यह-
वह उधर बैठा है पत्रकार वार्ता में
यह जो ऊंघ रहा है-
आया है अपने ग्रुप के साथ
किसी संस्था ने भेजा है
फी आदमी हजार रुपए मिलेंगे रोज
पंद्रह दिनों तक गान-गवनई करेंगे-
सब कमा के जाएंगे मोटी रकम
यह बस्ती जिलेवाला सुलेमान किसको सुना रहा है दुखड़ा!

सुलेमान साहेब को ऊंघता देख बड़बड़ाया
यह लीजिए, साहेबो सो गए...
गिद्ध कितना मंडरा रहे हैं...
यह भी ससुरे हैं चिरई की जाति...


Sunday, April 3, 2011

बरगद के चरण-तले की धूल

कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने मुक्तिबोध के बारे में लिखा है- मुक्तिबोध ने अपनी जिंदगी का ज्यादातर हिस्सा कस्बों या छोटे शहरों में गुजारा। उनकी कविता इस निजी भूगोल से बराबर प्रतिकृत हुई है। आज के अनेक कवियों की तरह इस बात ने उन्हें किसी सामाजिक पिछड़ेपन के भाव से कभी नहीं ग्रसा। बल्कि इस भूगोल ने उनकी कविता को उसका गहरा निजीपन और आत्मीयता प्रदान की। अब पढि़ए कवि मुक्तिबोध की यह कविता- इस सूचना के साथ कि वे आज के छत्तीसगढ़ में राजनांदगांव में रहते आये थे....

बहुत शर्म आती है

बहुत शर्म आती है मैंने
खून बहाया नहीं तुम्हारे साथ
बहुत तड़पकर उठे वज्र-से
गलियों के जब खेतों-खलिहानों के हाथ
बहुत खून था छोटी-छोटी पंखुडिय़ों में
जो शहीद हो गईं किसी अनजाने कोने
कोई भी न बचे,
केवल पत्थर रह गए तुम्हारे लिए अकेले रोने

किसी एक
वीरान गांव के
भूरे अवशेषों के रखवाले बरगद के
चरण-तले की धूल
मैंने मस्तक पर लगा तुम्हें जब याद किया
देखी मैंने वह सांझ
जमा था जिसके लंबे विस्तारों में
केवल मौन तुम्हारा खून!!
बहुत खून था कोमल-कोमल पंखुरियों में
बूढ़े पीले पातों में
जो हुई रक्त से लाल
खेतों-खलिहानों की मिट्टी
उसकी भूख-प्यास
अपने अंतर में धारण कर
जब मैंने ले-ले नाम पुकारा बहुत जोर से
आसपास के पहाड़-शिल
से आई गूंज या आवाज
जिसने बतलाया वह ज्वलंत इतिहास
मानव-मुक्ति-यास का!!
सुनकर जिसे
बहुत शर्म आती है
मैंने खून बहाया नहीं तुम्हारे साथ!!


Friday, April 1, 2011

आत्मीय एक छवि तुम्हें नित्य भटकाएगी

कवि मुक्तिबोध की पांच चरणों में लिखी कविता का पहला और अंतिम हिस्सा प्रस्तुत है। जिंदगी क्या आत्मीयता की तलाश में एक पुलक भरा भटकाव है? क्या यह भटकाव ही हमें अनुभव सम्पन्न नहीं बनाता? इस भटकाव में ही जिंदगी को अर्थवत्ता मिलती है...

पता नहीं.../मुक्तिबोध

पता नहीं, कब कौन कहां किस ओर मिले
किस सांझ मिले, किस सुबह मिले!!
यह राह जिंदगी की
जिससे जिस जगह मिले
हैं ठीक वहीं, बस वहीं अहाते मेंहदी के
जिनके भीतर
है कोई घर
बाहर प्रसन्न पीली कनेर
बरगद ऊंचा, जमीन गीली
मन जिन्हें देख कल्पना करेगा जाने क्या!!
तब बैठ एक
गंभीर वृक्ष के तले
टटोलो मन, जिससे जिस छोर मिले,
कर अपने-अपने तप्त अनुभवों की तुलना
घुलना मिलना!!
.............
अपनी धकधक
में दर्दीले फैले-फैलेपन की मिठास,
या नि:स्वात्मक विकास का युग
जिसकी मानव-गति को सुनकर
तुम दौड़ोगे प्रत्येक व्यक्ति के
चरण-तले जनपथ बनकर!!
वे आस्थाएं तुमको दरिद्र करवाएंगी
कि दैन्य ही भोगोगे
पर, तुम अनन्य होगे,
प्रसन्न होगे!!
आत्मीय एक छवि तुम्हें नित्य भटकाएगी
जिस जगह, जहां जो छोर मिले
ले जाएगी...
...पता नहीं, कब कौन कहां किस ओर मिले।