यह शहराती जिन्दगी चकाचौंध की धाक ।
पढ़ा - लिखा मैं गाँव का अपने घर की नाक ॥
इस सरहद पर शहर है उस सरहद पर गाँव ।
हुआ अपाहिज आदमी खड़े - खड़े इक पाँव ॥
मेहनत और मशीन का ऐसा विकट हिसाब ।
तू मजूर भूखों मरे, पैसा गिने नकाब ॥
औरत अगर गरीब है, है बदचलन जरूर ।
मुखिया इज्जतदार है कह गयी पुलिस हुजूर ॥
बूढा बरगद गाँव में ज्यों सबको दे छाँह ।
मुखिया ऐसा चाहिए थामे सबकी बांह ॥
जली हुई बीडी बुझी खाली - खाली जेब ।
अच्छा - खासा आदमी सौ - सौ खाय फरेब ॥
बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।
ReplyDeleteबूढा बरगद गाँव में ज्यों सबको दे छाँह ।
मुखिया ऐसा चाहिए थामे सबकी बांह ॥