साथ-साथ

Saturday, January 2, 2010

सौ - सौ खाय फरेब

यह शहराती जिन्दगी चकाचौंध की धाक ।

पढ़ा - लिखा मैं गाँव का अपने घर की नाक ॥

इस सरहद पर शहर है उस सरहद पर गाँव ।

हुआ अपाहिज आदमी खड़े - खड़े इक पाँव ॥

मेहनत और मशीन का ऐसा विकट हिसाब ।

तू मजूर भूखों मरे, पैसा गिने नकाब ॥

औरत अगर गरीब है, है बदचलन जरूर ।

मुखिया इज्जतदार है कह गयी पुलिस हुजूर ॥

बूढा बरगद गाँव में ज्यों सबको दे छाँह ।

मुखिया ऐसा चाहिए थामे सबकी बांह ॥

जली हुई बीडी बुझी खाली - खाली जेब ।

अच्छा - खासा आदमी सौ - सौ खाय फरेब ॥

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।

    बूढा बरगद गाँव में ज्यों सबको दे छाँह ।

    मुखिया ऐसा चाहिए थामे सबकी बांह ॥

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