साथ-साथ

Monday, January 18, 2010

शहर में कर्फ्यू

एक घर की हसरतों को यूं समेटे
नींद आती ही नहीं
करवट बदलते रात के बारह बजे तक
बिस्तर के अँधेरे में लेटे-लेटे
सोचता हूँ
तुम्हारी कागज़ी इन खुराफातों में
मैं कहाँ पार हूँ -
फाइलों के तरतीब्तर अम्बार में
बिजनेस प्रमोशन में
टर्नओवर में
तुम्हारी पार्टियों में शाम की मदहोशियों में !
या कि उजड़े गाँव के
खपरैल वाले एक घर के
सभी सपने ले उड़ा मैं
तबसे उसकी बेइंतहा इंतज़ार करती
रात - दिन की खामोशियों में

मैं कहाँ पर हूँ ?

वह भी इक दुनिया है
दुनिया की तरह
जो धड़कती है
फड़कती है आँख में क्यों अपशकुन बनकर !

इक टिकट काटे वापसी का जेब में रखकर
मैं घूमता हूँ दर - ब - दर
कब तक बचाता रह सकूंगा
शातिर समय के जेबकतरे से
मैं बचाता आ रहा हूँ खुद को
सपने देखने के सौ - सौ खतरे से

कोई सुख भी होता है क्या इस तरह से गम का मारा !

करवट बदलते
रात के बारह बजे तक
बिस्तर के अँधेरे में यूं ही लेटे
सोचता हूँ -
क्या करूं ?
गौतम बुद्ध - सा
मैं दबाये पाँव
निकल भागूं
छोड़ दूं यह कपिलवस्तु तुम्हारे हाल पर
या कि अपने सोच पर कर्फ्यू लगा दूं
जिस तरह कर्फ्यू लगा है
शहर में !  

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