एक घर की हसरतों को यूं समेटे
नींद आती ही नहीं
करवट बदलते रात के बारह बजे तक
बिस्तर के अँधेरे में लेटे-लेटे
सोचता हूँ
तुम्हारी कागज़ी इन खुराफातों में
मैं कहाँ पार हूँ -
फाइलों के तरतीब्तर अम्बार में
बिजनेस प्रमोशन में
टर्नओवर में
तुम्हारी पार्टियों में शाम की मदहोशियों में !
या कि उजड़े गाँव के
खपरैल वाले एक घर के
सभी सपने ले उड़ा मैं
तबसे उसकी बेइंतहा इंतज़ार करती
रात - दिन की खामोशियों में
मैं कहाँ पर हूँ ?
वह भी इक दुनिया है
दुनिया की तरह
जो धड़कती है
फड़कती है आँख में क्यों अपशकुन बनकर !
इक टिकट काटे वापसी का जेब में रखकर
मैं घूमता हूँ दर - ब - दर
कब तक बचाता रह सकूंगा
शातिर समय के जेबकतरे से
मैं बचाता आ रहा हूँ खुद को
सपने देखने के सौ - सौ खतरे से
कोई सुख भी होता है क्या इस तरह से गम का मारा !
करवट बदलते
रात के बारह बजे तक
बिस्तर के अँधेरे में यूं ही लेटे
सोचता हूँ -
क्या करूं ?
गौतम बुद्ध - सा
मैं दबाये पाँव
निकल भागूं
छोड़ दूं यह कपिलवस्तु तुम्हारे हाल पर
या कि अपने सोच पर कर्फ्यू लगा दूं
जिस तरह कर्फ्यू लगा है
शहर में !
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