साथ-साथ

Monday, January 31, 2011

पगडंडी की चंदनवर्णी धूल

आज अपनी हिन्दी का फलक विश्वव्यापी है, लेकिन इसकी जड़ें कहां हैं? यह भी हम बाबा नागार्जुन  की कविताओं में बखूबी देख सकते हैं। गांवों से उखड़कर जो जिंदगियां शहरों के गमलों में रोप दिए जाने के लिए अभिशप्त हैं, उनके मन में हूक जगा सकती है 1959 की उनकी यह कविता-

बहुत दिनों के बाद/ नागार्जुन
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी-भर देखी
पकी-सुनहली फसलों की मुस्कान
                  -बहुत दिनों के बाद

बहुत दिनों के बाद
अबकी मैं जी-भर सुन पाया
धान कूटती किशोरियों की कोकिल-कंठी तान
                                   -बहुत दिनों के बाद

बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी-भर सूंघे
मौलसिरी के ढेर-ढेर-से ताजे-टटके फूल
                          -बहुत दिनों के बाद

बहुत दिनों के बाद
अबकी मैं जी-भर छू पाया
अपनी गंवई पगडंडी की चंदनवर्णी धूल
                           -बहुत दिनों के बाद

बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी-भर तालमखाना खाया
                            गन्ने चूसे जी-भर
                         -बहुत दिनों के बाद

बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी-भर भोगे
गंध-रूप-रस-शब्द-स्पर्श सब साथ-साथ इस भू पर
                                         -बहुत दिनों के बाद

Sunday, January 30, 2011

बापू के बलिदान दिवस पर नागार्जुन की कविता की याद

देश में गांधी की नीतियों और संकल्पनाओं का सरकारों ने क्या हाल किया है, इसके मदूदेनजर बापू के बलिदान दिवस पर पढि.ए जनकवि बाबा नागार्जुन  की यह कविता, जो वर्ष 1969 की है-

तीनों बंदर बापू के

बापू के भी ताऊ निकले तीनों बंदर बापू के
सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बंदर बापू के
सचमुच जीवनदानी निकले तीनों बंदर बापू के
ज्ञानी निकले, ध्यानी निकले तीनों बंदर बापू के
जल-थल-गगन-बिहारी निकले तीनों बंदर बापू के
लीला के गिरधारी निकले तीनों बंदर बापू के
सर्वोदय के नटवर लाल
फैला दुनिया भर में जाल
अभी जिएंगे ये सौ साल
ढाई घर घोड़े की चाल
मत पूछो तुम इनका हाल
सर्वोदय के नटवर लाल
लंबी उमर मिली है, खुश हैं तीनों बंदर बापू के
दिल की कली खिली है, खुश हैं तीनों बंदर बापू के
बूढ़े हैं, फिर भी जवान हैं तीनों बंदर बापू के
परम चतुर हैं, अति सुजान हैं तीनों बंदर बापू के
सौवीं बरसी मना रहे हैं तीनों बंदर बापू के
बापू को ही बना रहे हैं तीनों बंदर बापू के
बज्जे होंगे मालामाल
खूब गलेगी उनकी दाल
औरों की टपकेगी राल
इनकी मगर तनेगी पाल
मत पूछो तुम इनका हाल
सर्वोदय के नटवर लाल
सेठों का हित साध रहे हैं तीनों बंदर बापू के
युग पर प्रवचन लाद रहे हैं तीनों बंदर बापू के
सत्य-अहिंसा फांक रहे हैं तीनों बंदर बापू के
पूंछों से छवि आंक रहे हैं तीनों बंदर बापू के
दल से ऊपर, दल के नीचे तीनों बंदर बापू के
मुस्काते हैं आंखें मीचे तीनों बंदर बापू के
छील रहे गीता की खाल
उननिषदें हैं इनकी ढाल
उधर सजे मोती के थाल
इधर जमे सतजुगी दलाल
मत पूछो तुम इनका हाल
सर्वोदय के नटवर लाल
मुंड़ रहे दुनिया-जहान को तीनों बंदर बापू के
चिढ़ा रहे हैं आसमान को तीनों बंदर बापू के
करें रात-दिन टूर हवाई तीनों बंदर बापू के
बदल-बदल कर चखें मलाई तीनों बंदर बापू के
गांधी-छाप झूल डाले हैं तीनों बंदर बापू के
असली हैं, सर्कस वाले हैं तीनों बंदर बापू के
दिल चटकीला, उजले बाल
नाप चुके हैं गगन विशाल
फूल गए हैं कैसे गाल
मत पूछो तुम इनका हाल
सर्वोदय के नटवर लाल
हमें अंगूठा दिखा रहे हैं तीनों बंदर बापू के
कैसी हिकमत सिखा रहे हैं तीनों बंदर बापू के
प्रेम-पगे हैं, शहद-सने हैं तीनों बंदर बापू के
गुरूओं के भी गुरू बने हैं तीनों बंदर बापू के
सौवीं बरसी मना रहे हैं तीनों बंदर बापू के
बापू को ही बना रहे हैं तीनों बंदर बापू के।

Wednesday, January 26, 2011

एक अजीब दिन

वरिष्ठ हिंदी कवि कुंवर नारायण की यह छोटी सी कविता आज गणतंत्र दिवस पर प्रस्तुत है. इसका शीर्षक एक अजीब दिन क्यों है, यह बताने की जरूरत नहीं है - देश-प्रदेश का माहौल देखते हुए खुद ही समझा जा सकता है...
एक अजीब दिन / कुंवर नारायण
आज सारे दिन बाहर घूमता रहा
और कोई दुर्घटना नहीं हुई.
आज सारे दिन लोगों से मिलता रहा
और कहीं अपमानित नहीं हुआ.
आज सारे दिन सच बोलता रहा
और किसी ने बुरा न माना.
आज सबका यकीन किया
आज कहीं धोखा नहीं खाया.
और सबसे बड़ा चमत्कार तो यह
कि घर लौटकर मैंने किसी और को नहीं
अपने ही को लौटा हुआ पाया.

Tuesday, January 25, 2011

बेसुर समय में सुर साधक का जाना

अरविन्द चतुर्वेद :
अप्रतिम गायक पंडित भीमसेन जोशी का जाना हर संगीत अनुरागी को एक गहरे अवसाद और अभाव से भर गया है। उनका न होना भारतीय शास्त्रीय संगीत जगत के लिए मुहावरे में नहीं बल्कि अक्षरश: अपूरणीय क्षति है। केवल इसलिए नहीं कि अब हम उन्हें गाते हुए नहीं सुन सकेंगे बल्कि इसलिए भी कि संगीत साधना के लिए अब उनके जैसा दूसरा कोई प्रेरक व्यक्तित्व नजर नहीं आता। एक निहायत ही बेसुरे समय में सुर साधक पंडित भीमसेन जोशी की कमी और भी ज्यादा अखरती है और मन को मथती है। बहुत से लोग, जिन्होंने जोशी जी को मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा गाते हुए टीवी के पर्दे पर देखा-सुना था, उनके जेहन में उनकी छवि, आलाप और तान अभी भी कायम होंगे। हालांकि अमर हो चुकी यह संगीत रचना तो महज जोशी जी के गायन की एक हल्की-फुल्की झलक भर थी, मगर उनका अवदान तो एक सुर समुद्र की तरह है जिसे गुणीजन भली-भांति जानते हैं। पंडित जसराज ने जोशी जी को याद करते हुए ठीक ही कहा है कि उन्होंने हमलोगों के लिए राह आसान कर दी है। जब पंडित जसराज यह कह रहे थे तो उनका आशय यही था कि शास्त्रीय राग-रागिनियों को उनके पूरे अनुशासन में प्रस्तुत करते हुए भी जोशी जी ने शास्त्रीय संगीत को पर्याप्त जनप्रिय बनाया और उसकी परिधि का अभूतपूर्व विस्तार किया। पंडित भीमसेन जोशी ने अपने गुरू के किराना घराने को अपनी गायकी से तो मालामाल किया ही, साथ ही खयाल, ठुमरी, भजन और अभंगों को गाकर शास्त्रीय गायन के क्षेत्र में अप्रत्यक्ष रूप से बने हुए छुआछूत को भी मिटाया। अगर हम गायकी से अलग इस महान सुर साधक की जीवनयात्रा को भी देखें तो वह भी देशप्रेम और एकता की अदूूभुत मिसाल है। हमारा समय कितना बेसुरा है यह जानने के लिए आप याद कर सकते हैं कि कुछ ही महीनों पहले बेलगाम इलाके की खींचतान को लेकर कर्नाटक और महाराष्ट्र में ठन गई थी और दोनों राज्य एक-दूसरे के आमने-सामने थे। मगर कर्नाटक में जन्मे पंडित भीमसेन जोशी ने अपना ठिकाना महाराष्ट्र में पुणे को बनाया था और अपने दक्षिण भारतीय मातृसंगीत कर्नाटक संगीत के बजाय हिंदुस्तानी संगीत के संधान और साधना के लिए ग्वालियर समेत पूरे देश की खाक छानी। यह उचित ही है कि कर्नाटक ने अपने महान सपूत के तिरोधान पर राजकीय शोक घोषित कर श्रद्घांजलि दी है। लेकिन इस बेसुरे समय में सबसे ज्यादा अखरने वाली बात तो यह है कि बाजारू संगीत के झंडूबाम में शीला की जवानी पर फिदा हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास गुणवत्तायुक्त भारतीय संगीत के लिए कोई अवसर नहीं है। भांति-भांति के मनोरंजन चैनलों की भरमार है, लेकिन किसी माई के लाल में बूता नहीं है कि भारतीय शास्त्रीय, पारंपरिक व लोक संगीत और कलाओं के लिए एक अदद चैनल चला सके। यह भी बेसुरे वक्त का ही तकाजा है कि न भारतीय कलाओं के लिए ललक है और न उनके लिए वातावरण बनाने का किसी में हौसला।

Thursday, January 20, 2011

तुझको तो खबर होगी

दिलदारी और दिलेरी कोई दिल्लगी का काम नहीं है। ये दोनों चीजें देखनी हों तो फैज अहमद फैज की शायरी में देखिए। जिंदादिली और जीवट के भी वो बादशाह हैं। पढि.ए यह खूबसूरत गजल-

कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल, कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आएंगे, सुनते थे सहर होगी

कब जान लहू होगी, कब अश्क गुहर होगा
किस दिन तेरी शनवाई, ऐ दीदा-ए-तर होगी

कब महकेगी फस्ल-ए-गुल, कब बहकेगा मयखाना
कब सुब्ह-ए-सुखन होगी, कब शाम-ए-नजर होगी

वाइज है न जाहिद है, नासेह है न कातिल है
अब शहर में यारों की किस तरह बसर होगी

कब तक अभी रह देखे, ऐ कामत-ए-जानानां
कब हस्र मुअय्यन है, तुझको तो खबर होगी।

Monday, January 17, 2011

बात कहां ठहरी है!

फैज अहमद फैज कहते हैं कि हमने पिंजरे में रहकर फरियाद का जो ढंग ईजाद किया है, समूचे गुलशन में वही तर्जे-बयां कायम है। पेश है यह खूबसूरत गजल-

अब वही हर्फ -ए-जुनूं सबकी जबां ठहरी है
जो भी चल निकली है वो बात कहां ठहरी है

आजतक शेख के इकराम में जो रौ थी हराम
अब वही दुश्मन-ए-दीं, राहत-ए-जां ठहरी है

है वही आरिज-ए-लैला, वही शीरीं का दहन
निगह-ए-शौक घड़ी भर को जहां ठहरी है

वस्ल की शब थी तो किस दर्जा सुबुक गुजरी थी
हिज्र की शब है तो क्या सख्त गरां ठहरी है

बिखरी इक बार तो हाथ आई है कब मौज-ए-शमीम
दिल से निकली है तो कब लब पे फुगां ठहरी है

दस्त-ए-सैयाद भी आजिज है, कफ-ए-गुलचीं भी
बू-ए-गुल ठहरी न बुलबुल की जबां ठहरी है

आते-आते यूं ही दम भर को रूकी होगी बहार
जाते-जाते यूं ही पल भर को खिजां ठहरी है

हमने जो तर्ज-ए-फुगां की है कफस में ईजाद
फैज गुलशन में वही तर्ज-ए-बयां ठहरी है
----------------------------------------------
हर्फ-ए-जुनूं= उन्माद का शब्द, इकराम= कृपादृष्टि, रौ= चीज,
दुश्मन-ए-दीं= धर्म विरोधी, आरिज-ए-लैला= लैला के गाल,
दहन= चेहरा-मुख, सुबुक= आसान, हिज्र= विरह, गरां= भारी,
मौज-ए-शमीम= खुशबू की लहर, फुगां= फरियाद,
दस्त-ए-सैयाद= शिकारी का हाथ, कफ-ए-गुलचीं= फूल चुननेवाले का हाथ, तर्ज-ए-फुगां= फरियाद का ढंग, कफस= पिंजरा।

Sunday, January 16, 2011

कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे!

किसी आदमी को अपमानित करने के लिए जिस पशु की जात से सबसे ज्यादा सम्बोधित किया जाता है, वह है बेचारा कुत्ता। लेकिन कुत्तों की हालत कुत्तों जैसी क्यों है- महान शायर फैज अहमद फैज की यह नज्म पढ़कर समझ सकते हैं...

कुत्ते/ फैज अहमद फैज
ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
के बख्शा गया जिनको जौक-ए-गदाई
जमाने की फटकार सर्माया इनका
जहां भर की दुत्कार इनकी कमाई

न आराम शब की न राहत सवेरे
गिलाजत में घर, नालियों में बसेरे
जो बिगड़ें तो इक दूसरे से लड़ा दो
जरा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फाकों से उकता के मर जाने वाले

ये मजलूम मखलूक गर सर उठाएं
तो इंसान सब सरकशी भूल जाए
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें
ये आकाओं की हडिूयां तक चबा लें

कोई इनको अहसास-ए-जिल्लत दिला दे
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे।

Saturday, January 15, 2011

चुप की जंजीर कटे

शाम या सांझ के बारे में बहुतेरे कवि-शायरों ने कविताएं लिखी हैं। ज्यादातर ऐसी कविताएं रूमानियत भरी और प्रकृति-चित्रण तक सीमित हैं। लेकिन शाम के बारे में फैज अहमद फैज की इस खूबसूरत नज्म का अंदाजे-बयां बिल्कुल अलहदा है।

शाम/ फैज अहमद फैज
इस तरह है के : हर पेड़ कोई मंदिर है
कोई उजड़ा हुआ बेनूर पुराना मंदिर
ढूंढ़ता है जो खराबी के बहाने कब से
चाक हर बाम, हर इक दर का दम-ए-आखिर है
आसमां कोई पुरोहित है जो हर बाम तले
जिस्म पर राख मले, माथे पे सिंदूर मले
सरनिगूं बैठा है चुपचाप न जाने कब से

इस तरह है के : पस-ए-पर्दा कोई साहिर है
जिसने आफाक पे फैलाया है यूं सहूर का दाम
दामन-ए-वक्त से पैबस्त है यूं दामन-ए-शाम
अब कभी शाम बुझेगी न अंधेरा होगा
अब कभी रात ढलेगी न सवेरा होगा

आसमां आस लिए है के ये जादू टूटे
चुप की जंजीर कटे, वक्त का दामन छूटे
दे कोई शंख दुहाई, कोई पायल बोले
कोई बुत जागे, कोई सांवली घूंघट खोले।
-----------------------------------------------
दम-ए-आखिर= आखिरी सांस, सरनिगूं= सिर झुकाए
पस-ए-पर्दा= पर्दे के पीछे, साहिर= जादूगर, आफाक= आकाश
सहूर का दाम= मायाजाल, पैबस्त= जुड़ा हुआ।

Wednesday, January 12, 2011

जब यार हमारा गुजरे था

नए साल में फिर आपको पढ़ा रहे हैं फैज अहमद फैज के कलाम। दो गजलें पेश हैं। पहली गजल दकनी उदर्ू के लहजे में है, हालांकि फैज का तो अपना ही अंदाज है, जो उनकी शायरी में हर कहीं मौजूद है।

॥ एक दकनी गजल॥
कुछ पहले इन आंखों आगे क्या क्या ना नजारा गुजरे था
क्या रौशन हो जाती थी गली जब यार हमारा गुजरे था

थे कितने अच्छे लोग के जिनको अपने गम से फुर्सत थी
सब पूछे थे अहवाल जो कोई दर्द का मारे गुजरे था

अब के तो खिजां ऐसी ठहरी वो सारे जमाने भूल गए
जब मौसम-ए-गुल हर फेरे में आ-आ के दुबारा गुजरे था

थी यारों की बहुतात तो हम अगयार से भी बेजार न थे
जब मिल बैठे तो दुश्मन का भी साथ दुबारा गुजरे था

॥ अपने जिम्मे है तेरा कर्ज॥
हसरत-ए-दीद में गुजरां हैं जमाने कब से
दश्त-ए-उम्मीद में गर्दा हैं दिवाने कब से

देर से आंख पे उतरा नहीं अश्कों का अजाब
अपने जिम्मे है तेरा कर्ज न जाने कब से

किस तरह पाक हो बे-आरजू लम्हों का हिसाब
दर्द आया नहीं दरबार सजाने कब से

पुर करो जाम के शायद हो इसी लहजा रवां
रोक रक्खा है जो इक तीर कजा ने कब से

फैज फिर कब किसी मकतल को करेंगे आबाद
लब पे वीरां है शहीदों के फसाने कब से