tag:blogger.com,1999:blog-33412192492582504352024-03-12T19:15:33.411-07:00जनपदमौसम तो इंसान के अन्दर रहता हैअरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.comBlogger300125tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-83223685800873054742012-10-18T08:56:00.002-07:002012-10-18T08:56:32.124-07:00गद्य-वद्य कुछ लिखा करोदिवंगत कवि त्रिलोचन का काव्य-व्यक्तित्व पचास वषों से भी ज्यादा लंबे समय तक फैला हुआ है। त्रिलोचन जी को अपना काव्यगुरू मानने वाले वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह का कहना है- त्रिलोचन एक खास अर्थ में आधुनिक हैं और सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि वे आधुनिकता के सारे प्रचलित सांचों को अस्वीकार करते हुए भी आधुनिक हैं। यहां पढि.ए त्रिलोचन जी का एक सॉनेट-
-----------------
गद्य-वद्य कुछ लिखा करो। कविता में क्या है।
आलोचना जमेगी। आलोचक का दर्जा-
मानो शेर जंगली सन्नाटे में गर्जा
ऐसा कुछ है। लोग सहमते हैं। पाया है
इतना रूतबा कहां किसी ने कभी। इसलिए
आलोचना लिखो। शर्मा ने स्वयं अकेले
बडे.-बड़े दिग्गज ही नहीं, हिमालय ठेले,
शक्ति और कौशल के कई प्रमाण दे दिए :
उद्यम करके कोलतार ले-लेकर पोता,
बड़े-बड़े कवियों की मुख छवि लुप्त हो गई,
गली-गली में उनके स्वर की गूंज खो गई,
लोग भुनभुनाए घर में, इससे क्या होता !
रूख देखकर समीक्षा का अब मैं हूं हामी,
कोई लिखा करे कुछ, जल्दी होगा नामी।
अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-20651806715039789542012-05-15T10:01:00.002-07:002012-05-15T10:06:47.287-07:00दर्द का अपना इक मकान भी था<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
दर्द का अपना इक मकान भी था श्याम सखा श्याम कवि और कथाकार-उपन्यासकार श्याम सखा श्याम ने बुनियादी तौर पर तो इलाज वाली डाक्टरी की पढ़ाई की है और वे एमबीबीएस, एफसीजीपी हैं, लेकिन उन्होंने रचनाकर्म पर पीएच.डी. और चार एम.फिल शोधकार्य भी किए हैं। उनके लेखन का क्षेत्र व्यापक है और हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी व हरियाणवी में उनकी कृतियां प्रकाशित व प्रशंसित हैं। हरियाणवी साहित्य अकादमी के निदेशक श्याम जी के गजलों की ताजा किताब शुक्रिया जिंदगी अभी-अभी हिंदी युग्म से छपकर आई है। पढि.ए इसी किताब की यह गजल- ॥ एक॥ जख्म था, जख्म का निशान भी था दर्द का अपना इक मकान भी था। दोस्त था और मेहरबान भी था ले रहा मेरा इम्तिहान भी था। शेयरों में गजब उफान भी था कर्ज में डूबता किसान भी था। आस थी जीने की अभी बाकी रास्ते में मगर मसान भी था। कोई काम आया कब मुसीबत में कहने को अपना खानदान भी था। मर के दोजख मिला तो समझे हम वाकई दूसरा जहान भी था। उम्र भर साथ था निभाना जिन्हें फासिला उनके दरमियान भी था। खुदकुशी श्याम कर ली क्यों तूने तेरी किस्मत में आसमान भी था। श्याम सखा श्याम कवि और कथाकार-उपन्यासकार श्याम सखा श्याम ने बुनियादी तौर पर तो इलाज वाली डाक्टरी की पढ़ाई की है और वे एमबीबीएस, एफसीजीपी हैं, लेकिन उन्होंने रचनाकर्म पर पीएच.डी. और चार एम.फिल शोधकार्य भी किए हैं। उनके लेखन का क्षेत्र व्यापक है और हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी व हरियाणवी में उनकी कृतियां प्रकाशित व प्रशंसित हैं। हरियाणवी साहित्य अकादमी के निदेशक श्याम जी के गजलों की ताजा किताब शुक्रिया जिंदगी अभी-अभी हिंदी युग्म से छपकर आई है। पढि.ए इसी किताब की यह गजल- <br />
<br />
जख्म था, जख्म का निशान भी था <br />
दर्द का अपना इक मकान भी था। <br />
<br />
दोस्त था और मेहरबान भी था <br />
ले रहा मेरा इम्तिहान भी था। <br />
<br />
शेयरों में गजब उफान भी था <br />
कर्ज में डूबता किसान भी था। <br />
<br />
आस थी जीने की अभी बाकी <br />
रास्ते में मगर मसान भी था। <br />
<br />
कोई काम आया कब मुसीबत में <br />
कहने को अपना खानदान भी था। <br />
<br />
मर के दोजख मिला तो समझे हम <br />
वाकई दूसरा जहान भी था। <br />
<br />
<br />
उम्र भर साथ था निभाना जिन्हें <br />
फासिला उनके दरमियान भी था। <br />
<br />
खुदकुशी श्याम कर ली क्यों तूने <br />
तेरी किस्मत में आसमान भी था।</div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-56619651139508455332012-05-13T09:39:00.000-07:002012-05-13T09:45:10.850-07:00अदम गोंडवी की दो गजलेंधरती की सतह पर नाम से अदम गोंडवी की गजलों की किताब दिल्ली के किताबघर से अभी-अभी छपी है। जाहिर है, गजलें नई तो नहीं हैं लेकिन इन्हें बार-बार पढ़ा जा सकता है और यह किताब अपने संग्रह में रखी जा सकती है। पढि.ए इसी संग्रह की दो गजलें-
॥ एक॥
टीवी से अखबार तक गर सेक्स की बौछार हो
फिर बताओ कैसे अपनी सोच का विस्तार हो।
बह गए कितने सिकंदर वक्त के सैलाब में,
अक्ल इस कchche घड़े से कैसे दरिया पार हो।
सभ्यता ने मौत से डरकर उठाए हैं कदम,
ताज की कारीगरी या चीन की दीवार हो।
मेरी खुदूदारी ने अपना सिर झुकाया दो जगह,
वो कोई मजलूम हो या साहिबे-किरदार हो।
एक सपना है जिसे साकार करना है तुम्हें,
झोपड़ी से राजपथ का रास्ता हमवार हो।
॥ दो॥
मुक्तिकामी चेतना, अभ्यर्थना इतिहास की
ये समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की।
आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वण्रिम अतीत,
वो कहानी है महज प्रतिशोध की, संत्रास की।
यक्ष-प्रश्नों में उलझकर रह गई बूढ़ी सदी,
ये प्रतीक्षा की घड़ी है क्या हमारी प्यास की।
इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया,
सेक्स की रंगीनियां या गोलियां सल्फास की।
याद रखिए यूं नहीं ढलते हैं कविता में विचार,
होता है परिपाक धीमी आंच पर एहसास की।अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-17732329757863660222012-04-17T10:36:00.000-07:002012-04-17T10:36:54.141-07:00अनिल यादव की चीन्हाखचाई<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: left;">अनिल यादव पेशे से पत्रकार हैं। घुमक्कड़ हैं। गजब के गद्यकार हैं। उनकी कहानियों की पुस्तक <strong><em>नगरबधुएं अखबार नहीं पढ़तीं</em></strong> और यात्रा पुस्तक <strong><em>वह भी कोई देस है महराज</em></strong> अंतिका प्रकाशन से छपकर आई हैं। दोनों पुस्तकों की खूब चर्चा रही है और सबसे बड़ी बात है कि पाठकों ने इन्हें हाथो-हाथ लिया है। अनिल के लेखन की खासियत है कि उनकी भाषा भी विषयवस्तु का हिस्सा होती है, उसे अलगाया नहीं जा सकता। अनिल ने कभी-कभार छिटपुट कविताएं भी लिखी हैं। पढि.ए उनकी यह चीन्हाखचाई...</div><br />
<strong>॥ एक॥</strong><br />
<br />
भारी जबड़े वाली एक सांवली<br />
बुढ़ाती लड़की को <br />
तीन-चार आदमी रह-रहकर<br />
आंटे की तरह गूंथने लगते थे<br />
<br />
वह आनंद में विभोर जब <br />
लेती थी सिसकारी<br />
दांत दिखते थे और आंखे ढरक जाती थीं<br />
मरती गाय की तरह।<br />
<br />
वैसे ही तुंदियल थे वैसे ही फूहड़<br />
वही छींटदार कमीजें<br />
वही सेल में दाम पूछने भर अंग्रेजी<br />
वैसे ही गुस्से में फनफनाते थे बेवजह<br />
दांत पीसते अकड़े रहते थे<br />
<br />
जैसे मेरे अगल-बगल <br />
ब्लू फिल्म जैसे जीवन में।<br />
<br />
कपट उदासीनता से देखते थे बूढ़े<br />
अंडकोषों के जोर से चीखते थे बेबस लड़के<br />
<br />
मेरे जीवन से फाड़े उस परदे पर <br />
मिस लिन्डा का सबसे स्वाभाविक अभिनय<br />
बलात्कार से बचने का था।<br />
<br />
हाउस फुल था<br />
वह शस्य श्यामल सिनेमा हाल।<br />
<br />
<strong>॥ दो॥ </strong><br />
<br />
तोते : शरारती लड़के खदेड़े गए<br />
कौए : कामकाजी और दुनियादार<br />
मैना : अंधेरा देख घर की तरफ भागती देहातिन<br />
गौरेया : भेली खाते कुदकती कोई लड़की<br />
<br />
वे ट्रैफिक में रेंगते, तनावग्रस्त<br />
बेडरूमों में पसरे तुंदियलों के देख क्या सोचते होंगे<br />
यही न, मरें साले ये इसी लायक हैं।<br />
<br />
<br />
सच मानो<br />
मैं चिड़ियों की नजर में अच्छा बनने की कोशिश नहीं कर रहा हूं। <br />
<br />
<strong>॥ तीन॥</strong><br />
<br />
ओ घरघुसने, बाहर निकल <br />
पान की दुकान तक बेमकसद यूं ही चल।<br />
कबाड़ी की साइकिल की तीलियों पर टूटते <br />
सूर्य को देख<br />
ओ चिन्ताग्रस्त, एक्जीक्यूटिव इंडिया के पूत<br />
कूड़े को घूर गरदन झमकाते कौवे की तरह<br />
कितनी ही बार धरती की परिक्रमा करने के बाद वहां<br />
पर्वत शिखर से टकरा कर टूटी कार पड़ी है<br />
और एक गुड़िया है जो <br />
रोज सजने-सिसकने से उकताकर भाग निकली है घर से <br />
जो सिगरेट की डिब्बी का तकिया लगाए नंगी <br />
मुस्करा रही है। <br />
देख ओ अकेलेपन और अवसाद के मारे <br />
उन गुलाबी छल्लों की गांठों में प्रेम है <br />
जिन्हें स्मारक के जतन से बांधा गया।<br />
किसी दाई या बाई के <br />
खपरैल जैसे पैर देख<br />
फूली नसों पर मैल की धारियों में <br />
उन द्वीपों की धूल, <br />
जहां तू कभी गया नहीं। <br />
और कुछ नहीं तो सुन<br />
छत के ऊपर बादलों तक चढ़ता <br />
तानसेन तरकारी वाले का अलाप<br />
खरीद ले अठन्नी की इमली<br />
अबे ओ घरघुसने, बाहर निकल<br />
एक्जीक्यूटिव इंडिया के पूत।</div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-36554889216701829162012-04-14T09:06:00.000-07:002012-04-14T09:06:20.144-07:00और अगर तुम बना नहीं सको अपना जीवन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">यात्रा बुक्स, दिल्ली से छपी है कवाफी की कविताओं की किताब, जिसका नाम माशूक है। उनकी कविताओं का बहुत ही शानदार अनुवाद किया है पीयूष दईया ने। पीयूष स्वयं एक अच्छे कवि हैं।<br />
<br />
<strong>॥ जहां तक हो सके॥</strong><br />
<br />
<strong>कवाफी</strong><br />
<br />
जैसा चाहो वैसा<br />
तो कम से कम इतना करो उसे बिगाड़ो मत<br />
...बैर मत काढ़ो यूं खुद से...<br />
सब के इतना मुंह लगा रहकर<br />
लटकते-मटकते उठते-बैठते चटरपटर करते<br />
<br />
अपना जीवन सस्ता मत बना लो<br />
दर-दर मारे-मारे फिरकर<br />
हर कहीं इसे कुलियों जैसे ढोते-घसीटते और बेपर्दा करते<br />
यारबाशों और उनके लगाए मजमों की चालू चटोरागीरी के लिए<br />
कि यह भासने लगे...<br />
कोई ऐसा जो लग लिया हो पीछे छेड़खानी करते तुमसे।</div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-91332364004004372872012-04-13T10:16:00.000-07:002012-04-13T10:16:20.277-07:00कैसा हो स्कूल हमारा!गिर्दा <br />
कैसा हो स्कूल हमारा! <br />
जहां न बस्ता कन्धा तोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा<br />
जहां न पटरी माथा फोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा <br />
जहां न अक्षर कान उघाड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा<br />
जहां न भाषा जख्म उखारे, ऐसा हो स्कूल हमारा<br />
कैसा हो स्कूल हमारा!<br />
जहां अंक सच-सच बतलाए, ऐसा हो स्कूल हमारा<br />
जहां प्रश्न हल तक पहुचांए, ऐसा हो स्कूल हमारा<br />
जहां न हो झूठ का दिखव्वा, ऐसा हो स्कूल हमारा<br />
जहां न सूट-बूट का हव्वा, ऐसा हो स्कूल हमारा<br />
कैसा हो स्कूल हमारा!अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-75567371512865661372011-10-23T08:36:00.000-07:002011-10-23T08:36:29.581-07:00भोंदू जी की सर्दियां<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><strong>वीरेन डंगवाल </strong><br />
बहुत प्यारे कवि और अपनी ही धज की कविताएं लिखने वाले वीरेन डंगवाल की कविताओं के लिए उनके मुरीदों को हमेशा इंतजार और उत्सुकता रहती है। उनकी कविता पुस्तकें <strong>दुष्चक्र में स्रष्टा</strong> और <strong>स्याही ताल</strong> बहुतों के लिए धरोहर सरीखी हैं। पढि.ए इस मौसम की यह कविता... <br />
<br />
आ गई हरी सब्जियों की बहार <br />
पराठे मूली के, मिर्च, नींबू का अचार <br />
<br />
मुलायम आवाज में गाने लगे मुंह-अंधेरे <br />
कउए सुबह का राग शीतल कठोर <br />
धूल और ओस से लथपथ बेर के बूढ़े पेड़ में <br />
पक रहे चुपके से विचित्र सुगंधवाले फल <br />
फेरे लगाने लगी गिलहरी चोर <br />
<br />
बहुत दिनों बाद कटा कोहरा खिला घाम <br />
कलियुग में ऐसे ही आते हैं सियाराम <br />
<br />
नया सूट पहन बाबू साहब ने <br />
नई घरवाली को दिखलाया बांका ठाठ <br />
अचार से परांठे खाए सर पर हेल्मेट पहना <br />
फिर दहेज की मोटर साइकिल पर इतराते <br />
ठिठुरते हुए दफ्तर को चले <br />
<br />
भोंदू की तरह। </div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-12311350974179052642011-10-22T08:06:00.000-07:002011-10-22T08:06:49.135-07:00आजकल नेपथ्य में संभावना है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><strong>दुष्यंत कुमार</strong><br />
नई कविता आंदोलन के प्रतिष्ठित कवि दुष्यंत कुमार को सबसे ज्यादा उनकी गजलों के लिए जाना गया। यहां पेश हैं उनकी गजलों की किताब साये में धूप से तीन गजलें...<br />
<br />
<strong>॥ एक ॥</strong><br />
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है।<br />
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है॥<br />
<br />
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,<br />
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है॥<br />
<br />
इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है,<br />
हर किसी का पांव घुटनों तक सना है॥<br />
<br />
पक्ष औ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,<br />
बात इतनी है कि कोई पुल बना है॥<br />
<br />
रक्त वषों से नसों में खौलता है,<br />
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है॥<br />
<br />
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,<br />
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है॥<br />
<br />
दोस्तो! अब मंच पर सुविधा नहीं है,<br />
आजकल नेपथ्य में संभावना है॥<br />
<br />
<strong>॥ दो ॥</strong><br />
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है।<br />
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है॥<br />
<br />
वे कर रहे हैं इश्क पे संजीदा गुफ्तगू,<br />
मैं क्या बताऊं मेरा कहीं और ध्यान है॥<br />
<br />
सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर<br />
झोले में उसके पास कोई संविधान है॥<br />
<br />
उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप<br />
वो आदमी नया है मगर सावधान है॥<br />
<br />
फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए<br />
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है॥<br />
<br />
देखे हैं हमने दौर कई अब खबर नहीं<br />
पैरों तले जमीन है या आसमान है॥<br />
<br />
वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से<br />
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेजुबान है॥<br />
<br />
<strong>॥ तीन ॥</strong><br />
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है।<br />
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है॥<br />
<br />
एक चिनगारी कहीं से ढूंढ़ लाओ दोस्तों,<br />
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है॥<br />
<br />
एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,<br />
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है॥<br />
<br />
एक चादर सांझ ने सारे नगर पर डाल दी,<br />
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है॥<br />
<br />
निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,<br />
पत्थरों से ओट में जा-जा के बतियाती तो है॥<br />
<br />
दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,<br />
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है॥<br />
<br />
</div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-76665298477632794762011-10-07T08:51:00.000-07:002011-10-07T08:51:52.782-07:00दशरथ की एक बेटी थी शान्ता<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: left;">बोधिसत्व</div>बहुचर्चित कवि बोधिसत्व की यह कविता हाल ही किसी ब्लॉग पर पढ़ी थी। रामलीला के इस मौसम में आप भी पढि.ए, यह कविता बहुत-कुछ सोचने पर विवश करेगी आपको। <br />
दशरथ की एक बेटी थी शान्ता<br />
लोग बताते हैं<br />
जब वह पैदा हुई<br />
अयोध्या में अकाल पड़ा<br />
बारह वषों तक<br />
धरती धूल हो गयी!<br />
<br />
चिन्तित राजा को सलाह दी गयी कि<br />
उनकी पुत्री शान्ता ही अकाल का कारण है!<br />
<br />
राजा दशरथ ने अकाल दूर करने के लिए<br />
श्रृंगी ऋषि को पुत्री दान दे दी<br />
<br />
उसके बाद शान्ता<br />
कभी नहीं आयी अयोध्या<br />
लोग बताते हैं<br />
दशरथ उसे बुलाने से डरते थे<br />
<br />
बहुत दिनों तक सूना रहा अवध का आंगन<br />
फिर उसी शान्ता के पति श्रृंगी ऋषि ने<br />
दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ कराया<br />
दशरथ चार पुत्रों के पिता बन गये<br />
संतति का अकाल मिट गया<br />
<br />
शान्ता राह देखती रही<br />
अपने भाइयों की<br />
पर कोई नहीं गया उसे आनने<br />
हाल जानने कभी<br />
<br />
मर्यादा पुरूषोत्तम भी नहीं,<br />
शायद वे भी रामराज्य में अकाल पड़ने से डरते थे<br />
जबकि वन जाते समय<br />
राम<br />
शान्ता के आश्रम से होकर गुजरे थे<br />
पर मिलने नहीं गये<br />
<br />
शान्ता जब तक रही<br />
राह देखती रही भाइयों की<br />
आएंगे राम-लखन<br />
आएंगे भरत-शत्रुघ्न<br />
<br />
बिना बुलाये आने को<br />
राजी नहीं थी शान्ता<br />
सती की कथा सुन चुकी थी बचपन में,<br />
दशरथ से!</div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-11069312401358442182011-09-12T08:22:00.000-07:002011-09-12T08:22:40.795-07:00चिट फंडन के मार बजीफा करें क्रांति रंगीन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: left;"><strong>कवि संजय चतुर्वेदी</strong> की लोक रंग में रंगी और व्यंग्य के रस में पगी ये कवितायेँ आज की वस्तुस्थितियों पर गजब की टिपण्णी करती हैं. इन कविताओं में जो विकट उत्पात है, क्या यह आज के बाजारवादी वक्त का उत्पात नहीं है ?</div><br />
<strong>॥ अलप काल बिद्या सब आई॥</strong><br />
<br />
ऐसी परगति निज कुल घालक।<br />
काले धन के मार बजीफा हम कल्चर के पालक,<br />
एक सखी सतगुरू पै थूकै, एक बनी संचालक,<br />
अलप काल बिद्या सब आई, बीर भए सब बालक॥<br />
<br />
<strong>॥ कलासूरमा सदायश: प्रार्थी॥</strong><br />
<br />
कातिक के कूकुर थोरे-थोरे गुररत<br />
थोरे-थोरे घिघियात फंसे आदिम बिधान में।<br />
<br />
थोरे हुसियार थोरे-थोरे लाचार<br />
थोरे-थोरे चिड़ीमार सैन मारत जहान में।<br />
<br />
कोऊ भए बागी कोऊ-कोऊ अनुरागी<br />
कोऊ घायल बैरागी करामाती खैंचतान में।<br />
<br />
जैसी महान टुच्ची बासना के मैया-बाप<br />
सोई गुन आत भए अगली संतान में।<br />
<br />
<strong>॥ कालियनाग जमुनजल भोगै॥</strong><br />
<br />
आलोचक हैं अति कुटैम के खेंचत तार महीन।<br />
कबिता रोय पाठ बिनसै साहित्य भए स्रीहीन।<br />
चिट फंडन के मार बजीफा करें क्रांति रंगीन।<br />
कालियनाग जमुनजल भोगै खुदई बजावै बीन॥<br />
<br />
<strong>॥ ऊधौ देत सुपारी॥</strong><br />
<br />
हम नक्काद सबद पटवारी।<br />
सरबत सखी निजाम हरामी हम ताके अधिकारी।<br />
दाल-भात में मूसर मारें और खाएं तरकारी,<br />
बिन बल्ला कौ किरकिट खेलें लंबी ठोकें पारी,<br />
गैल-गैल भाजै बनवारी ऊधौ देत सुपारी॥</div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-21279580580801255422011-09-06T07:35:00.000-07:002011-09-06T07:35:14.243-07:00कुछ और संवाद कथाएं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
संवेदनशील लेखक-पत्रकार <strong>रत्नेश कुमार</strong> रहने वाले बिहार के हैं और नौकरी गुवाहाटी में करते हैं। नेकदिल इंसान हैं और गहरी सामाजिक समझ है उनके पास। उन्होंने अपने ढंग की विधा विकसित की है- संवाद कथा। ये संवाद कथाएं लगभग सूक्तियों जैसा असर छोड़ती हैं। प्रस्तुत हैं उनकी कुछ संवाद कथाएं...<br />
<br />
<strong>0</strong><br />
<br />
- रिश्वत से अपना रिश्ता रक्त का है।<br />
<br />
- अपना भक्त का।<br />
<br />
<strong>0</strong><br />
<br />
- गांधी प्राणी के डॉक्टर हैं।<br />
<br />
- माक्र्स?<br />
<br />
- प्रणाली के।<br />
<br />
<strong>0</strong><br />
<br />
- भोजपुरी हिंदी की अनपढ़ बहन है।<br />
<br />
- हिंदी?<br />
<br />
- संस्कृत की सातवीं पास बेटी।<br />
<br />
<strong>0</strong><br />
<br />
- सच बोलो न, बहुत सुख मिलता है।<br />
<br />
- सुविधा तो झूठ बोलने से मिलती है।<br />
<br />
<strong>0</strong><br />
<br />
- कछुआ और खरगोश की कहानी पढ़ी है?<br />
<br />
- कलम और कंप्यूटर को देखकर याद आ रही है, न।<br />
<br />
<strong>0</strong><br />
<br />
- भय के हाथ में कुछ था।<br />
<br />
- हां, भगवान का पता।<br />
<br />
<strong>0</strong><br />
<br />
- पति-पत्नी में प्रेम कम होता है।<br />
<br />
- अधिक क्या होता है?<br />
<br />
- पैंतरा।<br />
<br />
<strong>0</strong><br />
<br />
- इस पथ पर जब देखो- नो एंट्री।<br />
<br />
- महात्मा गांधी पथ है, न।<br />
<br />
<strong>0</strong><br />
<br />
- हंसी और मक्कारी सौत थीं।<br />
<br />
- थीं यानी?<br />
<br />
- आज सखी हैं।<br />
<br />
<strong>0</strong><br />
<br />
- वर जातिवाचक संज्ञा है, न?<br />
<br />
- नहीं, द्रव्यवाचक संज्ञा।<br />
<br />
<strong>0</strong><br />
<br />
- वतन और वेतन दोनों में एक चुनने को बोला जाए तो लोग बोलेंगे वतन, किंतु लेंगे वेतन।<br />
<br />
- यही तो अपना चरित्र है, मित्र।<br />
<br />
<strong>0</strong><br />
<br />
- एक भ्रष्ट व्यक्ति : बिना अतिरिक्त मन रिक्त रहता है।<br />
<br />
- दूसरा भ्रष्ट व्यक्ति : तिक्त भी।<br />
<br />
<strong>0</strong><br />
<br />
- हिंसा की हंसी सुन रहे हो, न?<br />
<br />
- मैं तो अहिंसा की रूलाई भी सुन रहा हूं। </div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-54775761124694055602011-09-04T08:46:00.000-07:002011-09-04T08:46:18.206-07:00रत्नेश कुमार की कुछ संवाद कथाएं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">संवेदनशील लेखक-पत्रकार रत्नेश कुमार रहने वाले बिहार के हैं और नौकरी गुवाहाटी में करते हैं। नेकदिल इंसान हैं और गहरी सामाजिक समझ है उनके पास। उन्होंने अपने ढंग की विधा विकसित की है- संवाद कथा। ये संवाद कथाएं लगभग सूक्तियों जैसा असर छोड़ती हैं। प्रस्तुत हैं उनकी कुछ संवाद कथाएं...<br />
<br />
<strong>0</strong><br />
- हिंदू दो तरह के होते हैं।<br />
- दो तरह के?<br />
- हां, एक को भारत का हारना बुरा लगता है और दूसरे को पाकिस्तान का जीतना।<br />
<strong>0</strong><br />
- श्रमिक आदम की औलाद है।<br />
- पूंजीपति?<br />
- आमदनी की।<br />
<strong>0</strong><br />
- बंदूक से दुनिया छोटी होती है।<br />
- बांसुरी से बड़ी।<br />
<strong>0</strong><br />
- दिल्ली दारू है।<br />
- दिसपुर?<br />
- दारू का असर।<br />
<div closure_uid_zgsr9n="121"><strong>0</strong></div>- तुमने हरिश्चंद्र का साथ क्यों छोड़ दिया?<br />
- वह हमेशा सच बोलता है।<br />
<strong>0</strong><br />
- एक ऐसा शब्द बताओ, जिसके सामने हर शब्द छोटा और खोटा हो?<br />
- प्रेम।<br />
<strong>0</strong><br />
- व्यक्ति पैर से चलता है।<br />
- परिवार?<br />
- प्रेम से।<br />
<strong>0</strong><br />
- प से पति होता है।<br />
- पतित भी।<br />
<strong>0</strong><br />
- अपने भारत में संबंध के अनुसार अभिवादन है।<br />
- उनके इंडिया में समय के अनुसार।<br />
<strong>0</strong><br />
- पत्नी जीवन है।<br />
- प्रेमिका?<br />
- जीवन का स्वाद।<br />
<div closure_uid_zgsr9n="122"><strong>0</strong></div>- महिला भी महिला का अपहरण करती है।<br />
- लक्ष्मी ने सरस्वती का अपहरण कर ही लिया है।<br />
<div closure_uid_zgsr9n="124"><strong><em>क्रमश:</em></strong></div></div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-82297746305442236562011-08-31T09:57:00.000-07:002011-08-31T09:57:42.831-07:00उड़ते हुए भी अपनी चहक छोड़ जाएगा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div closure_uid_eppjlg="114">1988 में छपी <strong>ज्ञानप्रकाश विवेक</strong> की दो गजलें यहां पेश हैं। इन्हें पढ़कर आप खुद सोच सकते हैं कि दुनिया चाहे जितनी तेजी से बदल रही हो, मगर आज लगभग 23 साल बाद भी ये अहसास कितने ताजा हैं और कतई बासी नहीं हुए हैं... </div><div closure_uid_eppjlg="114"><br />
</div><div closure_uid_eppjlg="114"><strong>एक </strong> </div><div closure_uid_eppjlg="116">ये कारवाने वक्त कसक छोड़ जाएगा </div><div closure_uid_eppjlg="117">हर रास्ते पर अपने सबक छोड़ जाएगा। </div><div closure_uid_eppjlg="118">मारोगे तुम गुलेल परिंदे को, और वो </div><div closure_uid_eppjlg="119">उड़ते हुए भी अपनी चहक छोड़ जाएगा। </div><div closure_uid_eppjlg="120">जुगनू की सादगी का मैं कैसे करूं बयां </div><div closure_uid_eppjlg="121">मर जाएगा, मगर वो चमक छोड़ जाएगा। </div>है चांद तो लिखेगा मेरे हाथ पर नमन<br />
<div closure_uid_eppjlg="122">आकाश है तो अपना उफक छोड़ जाएगा। </div><div closure_uid_eppjlg="123">उतरेगा बादलों की तरह लम्स जब तेरा </div><div closure_uid_eppjlg="124">मेरी हथेलियों पे धनक छोड़ जाएगा। </div><div closure_uid_eppjlg="125">बारूद बनके आएगा वो मेरे घर कभी </div><div closure_uid_eppjlg="126">कुछ दे न दे, पर अपनी धमक छोड़ जाएगा। </div><div closure_uid_eppjlg="127">तू मानता है अपना मुकद्दर जिसे विवेक </div><div closure_uid_eppjlg="128">जख्मों पे तेरे वो भी नमक छोड़ जाएगा। </div><div closure_uid_eppjlg="142"><br />
</div><strong>दो</strong><br />
<div closure_uid_eppjlg="129">ऐ जिंदगी तू मुझको जरा आजमा के देख </div><div closure_uid_eppjlg="130">मैं आइना हूं, मुझमें जरा मुस्करा के देख। </div><div closure_uid_eppjlg="131">मैं रेत पर लिखा हुआ अक्षर नहीं कोई </div><div closure_uid_eppjlg="132">तुझको नहीं यकीन तो मुझको मिटा के देख। </div><div closure_uid_eppjlg="133">शीशा हूं टूटकर भी सदा छोड़ जाऊंगा </div><div closure_uid_eppjlg="134">पत्थर पे एक बार तू मुझको गिरा के देख। </div>तुझमें परिंदे अपनी बनाएंगे बस्तियां<br />
<div closure_uid_eppjlg="135">खुद को तू एक बार शजर-सा बना के देख। </div><div closure_uid_eppjlg="136">सपना हूं मैं तो फेंक दे आंखों को खोलकर </div><div closure_uid_eppjlg="137">आंसू हूं मैं तो अपनी पलक पर उठा के देख। </div><div closure_uid_eppjlg="138">क्या जाने टूट जाए अंधेरों का हौसला </div><div closure_uid_eppjlg="139">इन आंधियों में तू भी जरा झिलमिला के देख। </div><br />
</div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-46044681526961307272011-08-27T07:24:00.000-07:002011-08-27T07:24:28.909-07:00जय हो लोकनायक : भीड़-भाड़ ने पुकारा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div closure_uid_of5grl="113"><strong>नागार्जुन </strong></div><div closure_uid_of5grl="113">1974 में शुरू हुआ बिहार का छात्र-युवा आंदोलन लोकनायक जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में देखते ही देखते देशव्यापी संपूर्ण क्रांति में बदल गया था। लेकिन अंतत: उसकी परिणति व्यवस्था परिवर्तन न होकर महज सत्ता परिवर्तन बन कर रह गई और जेपी का मकसद पूरा नहीं हो सका। बाबा नागार्जुन ने 1978 में इसी को लक्ष्य कर यह कविता लिखी थी ... </div><br />
जय हो लोकनायक : भीड़-भाड़ ने पुकारा<br />
जीत हुई पटना में, दिल्ली में हारा<br />
क्या करता आखिर, बूढ़ा बेचारा<br />
तरूणों ने साथ दिया, सयानों ने मारा<br />
जय हो लोकनायक : भीड़-भाड़ ने पुकारा<br />
<br />
लिया नहीं संग्रामी श्रमिकों का सहारा<br />
किसानों ने यह सब संशय में निहारा<br />
छू न सकी उनको प्रवचन की धारा<br />
सेठों ने थमाया हमदर्दी का दुधारा<br />
क्या करता आखिर बूढ़ा बेचारा<br />
<br />
कुएं से निकल आया बाघ हत्यारा<br />
फंस गया उलटे हमदर्द बंजारा<br />
उतरा नहीं बाघिन के गुस्से का पारा<br />
दे न पाया हिंसा का उत्तर करारा<br />
क्या करता आखिर बूढ़ा बेचारा<br />
<br />
जय हो लोकनायक : भीड़-भाड़ ने पुकारा<br />
मध्यवर्गीय तरूणों ने निष्ठा से निहारा<br />
शिखरमुखी दल नायक पा गए सहारा<br />
बाघिन के मांद में जा फंसा बिचारा<br />
गुफा में बंद है शराफत का मारा</div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-73196303242174953132011-08-20T08:02:00.000-07:002011-08-20T08:02:45.681-07:00किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><strong>नागार्जुन </strong><br />
<br />
<div closure_uid_vnjscp="123">किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है?</div>कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?<br />
सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है<br />
गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है<br />
चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है<br />
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है<br />
जैसे भी टिकट मिला, जहां भी टिकट मिला<br />
शासन के घोड़े पर वह भी सवार है<br />
उसी की जनवरी छब्बीस<br />
उसी का पंद्रह अगस्त है<br />
बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्त है<br />
कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है<br />
कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्त है<br />
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा<br />
मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्त है<br />
सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्त है<br />
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है<br />
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है<br />
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है<br />
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है<br />
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है<br />
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है<br />
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो<br />
मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है!<br />
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो<br />
मजदूर की छाती में कै ठो हाड़ है!<br />
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो<br />
घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है!<br />
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो<br />
बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है!<br />
देख लो जी, देख लो, देख लो जी, देख लो<br />
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!<br />
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है<br />
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है<br />
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है<br />
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है<br />
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है<br />
गरीबों की बस्ती में उखाड़ है, पछाड़ है<br />
धतू तेरी, धतू तेरी, कुच्छो नहीं! कुच्छो नहीं<br />
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है<br />
ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं<br />
पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है<br />
कुच्छो नहीं, कुच्छो नहीं<br />
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है<br />
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!<br />
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!<br />
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है!<br />
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है<br />
मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्त है<br />
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है।</div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-81596455316400653162011-08-18T09:06:00.000-07:002011-08-18T09:06:16.736-07:00गीली भादों, रैन अमावस!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div closure_uid_r0tszl="128">शहरों में कहां देखने को मिलेगी गीले भादों की तिमिराच्छन्न अमावस की रात? वह रात, जिसे उत्तराखंड के जंगल में बाबा नागार्जुन ने न सिर्फ देखा था, बल्कि भरपूर जिया भी था। आप भी देखिए, वह रात, जो टीवी के परदे पर नहीं दिख सकती...</div><br />
<div closure_uid_r0tszl="129"><strong>जान भर रहे हैं जंगल में/ नागार्जुन</strong></div><br />
गीली भादों<br />
रैन अमावस...<br />
<br />
कैसे ये नीलम उजास के<br />
अच्छत छींट रहे जंगल में<br />
कितना अदूभुत योगदान है<br />
इनका भी वर्षा-मंगल में<br />
लगता है ये ही जीतेंगे<br />
शक्ति प्रदर्शन के दंगल में<br />
लाख लाख हैं, सौ हजार हैं<br />
कौन गिनेगा, बेशुमार हैं<br />
मिल-जुलकर दिप-दिप करते हैं<br />
कौन कहेगा, जल मरते हैं...<br />
जान भर रहे हैं जंगल में<br />
<br />
जुगनू हैं ये स्वयं प्रकाशी<br />
पल-पल भास्वर पल-पल नाशी<br />
कैसा अदूभुत योगदान है<br />
इनका भी वर्षा-मंगल में<br />
<div closure_uid_r0tszl="122"><br />
</div>इनकी विजय सुनिश्चित ही है<br />
तिमिर तीर्थ वाले दंगल में<br />
इन्हें न तुम बेचारे कहना<br />
अजी, यही तो ज्योति-कीट हैं<br />
जान भर रहे हैं जंगल में<br />
<br />
गीली भादों<br />
<div style="text-align: left;">रैन अमावस... </div></div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-27397619671723916512011-08-14T08:29:00.000-07:002011-08-14T08:29:39.034-07:00शीशों का मसीहा कोई नहीं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div closure_uid_l9qx3n="117">स्वाधीनता दिवस की पूर्व संध्या पर पढि.ए इंसान और इंसानियत की जंग लड़ने वाली सबसे ताकतवर कलम से निकली एक शानदार नज्म- जी हां, <strong>फैज अहमद फैज</strong> की...</div><br />
<div closure_uid_l9qx3n="124">मोती हो के शीशा जाम के <strong>दुर</strong></div><div closure_uid_l9qx3n="123">जो टूट गया, सो टूट गया</div>कब अश्कों से जुड़ सकता है<br />
<div closure_uid_l9qx3n="125">जो टूट गया, सो टूट गया</div><br />
तुम नाहक टुकड़े चुन-चुनकर<br />
दामन में छुपाए बैठे हो<br />
शीशों का मसीहा कोई नहीं<br />
क्या आस लगाए बैठे हो<br />
<br />
शायद के इन्हीं टुकड़ों में कहीं<br />
वो सागर-ए-दिल है जिसमें कभी<br />
<strong>सद</strong> नाज से उतरा करती थी<br />
<div closure_uid_l9qx3n="126"><strong>सहबा-ए-गम-ए-जाना</strong> की परी</div><br />
<div closure_uid_l9qx3n="128">फिर दुनिया वालों ने तुमसे</div>ये सागर लेकर फोड़ दिया<br />
जो मय थी बहा दी मिटूटी में<br />
<div closure_uid_l9qx3n="127">मेहमान का <strong>शह-पर</strong> तोड़ दिया</div><br />
<div closure_uid_l9qx3n="129">ये रंगीं <strong>रेजे</strong> हैं शायद</div>उन शोख बिलूरी सपनों के<br />
<div closure_uid_l9qx3n="130">तुम मस्त जवानी में जिनसे</div><div closure_uid_l9qx3n="131"><strong>खिल्वत</strong> को सजाया करते थे</div><div closure_uid_l9qx3n="133"><br />
</div><div closure_uid_l9qx3n="132"><strong>नादारी</strong>, दफ्तर, भूख और गम</div>इन सपनों से टकराते रहे<br />
बेरहम था चौमुख पथराव<br />
ये कांच के ढांचे क्या करते<br />
<br />
या शायद इन जरों में कहीं<br />
<div closure_uid_l9qx3n="135">मोती है तुम्हारी इज्जत का</div><div closure_uid_l9qx3n="134">वो जिससे तुम्हारे <strong>इज्ज</strong> पे भी</div><div closure_uid_l9qx3n="136"><strong>शमशाद-कदों</strong> ने रश्क किया</div><br />
इस माल की धुन में फिरते थे<br />
ताजिर भी बहुत, रहजन भी कई<br />
है चोर नगर यां मुफलिस की<br />
गर जान बची तो आन गई<br />
<br />
<div closure_uid_l9qx3n="137">ये सागर, शीशे, लाल-ओ-गुहर</div><strong>सालिम</strong> हों तो कीमत पाते हैं<br />
यूं टुकड़े-टुकड़े हों तो फकत<br />
चुभते हैं, लहू रूलवाते हैं<br />
<br />
तुम नाहक शीशे चुन-चुनकर<br />
दामन में छुपाए बैठे हो<br />
शीशों का मसीहा कोई नहीं<br />
क्या आस लगाए बैठे हो।<br />
-----------------------------------------------<br />
दुर= मोती, सद= सौ, सहबा-ए-गम-ए-जाना= प्रेमिका के विरह की शराब,<br />
शह-पर= मुख्य पंख, रेजे= कण, खिल्वत= एकांत, नादारी= दरिद्रता, इज्ज= विनम्रता, शमशाद-कदों= अच्छे कदवाले यानी महबूब, सालिम= पूर्ण, पूरे। </div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-54129535327871488802011-08-11T07:46:00.000-07:002011-08-11T07:46:36.100-07:00बैरी बिराजे राज सिंहासन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">जब भी कोई जवान या सिपाही छत्तीसगढ़ में या कहीं और मारा जाता है तो अनायास फैज अहमद फैज की यह नज्म याद आ जाती है। इसे आप भी पढ़ लीजिए...<br />
<br />
<strong>सिपाही का मर्सिया/ फैज अहमद फैज </strong><br />
<br />
<div closure_uid_sh4lac="121">उटूठो अब माटी से उटूठो</div>जागो मेरे लाल<br />
अब जागो मेरे लाल<br />
तुम्हारी सेज सजावन कारन<br />
देखो आई रैन अंधियारन<br />
<br />
नीले शाल-दोशाले लेकर<br />
जिनमें इन दुखियन अंखियन ने<br />
ढेर किए हैं इतने मोती<br />
इतने मोती जिनकी ज्योती<br />
दान से तुम्हारा<br />
जगमग लागा<br />
नाम चमकने<br />
<br />
उटूठो अब माटी से उटूठो<br />
जागो मेरे लाल<br />
अब जागो मेरे लाल<br />
घर-घर बिखरा भोर का कुंदन<br />
घोर अंधेरा अपना आंगन<br />
जाने कब से राह तके हैं<br />
बाली दुल्हनिया, बांके वीरन<br />
सूना तुम्हरा राज पड़ा है<br />
देखो, कितना काज पड़ा है<br />
<br />
बैरी बिराजे राज सिंहासन<br />
तुम माटी में लाल<br />
उटूठो अब माटी से उटूठो, जागो मेरे लाल<br />
हठ न करो माटी से उटूठो, जागो मेरे लाल<br />
अब जागो मेरे लाल। </div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-24891830893622825442011-08-07T08:46:00.000-07:002011-08-07T08:46:13.048-07:00तीन और तिरसठ की प्रतिस्पर्धा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: left;">देश-विदेश में खूब घूम चुके और नौकरी भर परदेस में रहे हिंदी-मैथिली के प्रतिष्ठित कवि कीर्ति नारायण मिश्र सेवा निवृत्ति के बाद आजकल अपने पुश्तैनी परिवेश में बिहार के बरौनी जिलांतर्गत शोकहरा में रहते हैं। साहित्य अकादमी से पुरस्कृत कीर्ति नारायण जी की कविता और गद्य की 10 पुस्तकें अबतक प्रकाशित हो चुकी हैं। पढि.ए उनकी एक बहुत ही प्यारी कविता-</div><br />
<strong>जया/ कीर्ति नारायण मिश्र</strong><br />
<br />
तुम्हारी शरारत भरी चुनौती पर<br />
मैं भागता हूं तुम्हारे पीछे<br />
कभी चौकठ<br />
कभी किवाड़<br />
कभी दीवार<br />
से टकराकर गिरता हूं<br />
सहलाने लगता हूं<br />
अपना गठिया-ग्रस्त घुटना<br />
<br />
तुम भागती हो तो भागती ही चली जाती हो<br />
और मुड़ती हो तो आंधियों की तरह निकल जाती हो<br />
- मुझे चिढ़ाती और अंगूठे दिखाती हुई<br />
मैं लंगड़ाता हुआ<br />
तुम्हारा पीछा करता रह जाता हूं<br />
तीन और तिरसठ की यह प्रतिस्पर्धा<br />
कितनी रोचक हो जाती है जया<br />
जब मैं<br />
हांफते-हांफते किलकारियां भरने लगता हूं<br />
और तुम मेरे पास आ<br />
मुझे प्यार से सहलाने-पुचकारने लगती हो। </div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-66707173825810160612011-08-05T08:10:00.000-07:002011-08-05T08:10:33.996-07:00शासन करता है संदेह<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">दिवंगत कवि श्रीकांत वर्मा का आखिरी कविता संग्रह मगध 1984 में छपा था। इसकी तमाम कविताओं में ऐतिहासिक पात्र और स्थान आते हैं, लेकिन ये कविताएं इतिहास की नहीं, वर्तमान की हैं। पढि.ए यह कविता...<br />
<br />
<strong>चिल्लाता कपिलवस्तु/श्रीकांत वर्मा</strong><br />
<div closure_uid_9wheet="122"><br />
</div>महाराज! लौट चलें-<br />
उज्जयिनी पर शासन की इच्छा<br />
मेरी समझ में<br />
व्यर्थ है-<br />
उज्जयिनी<br />
उज्जयिनी नहीं रही-<br />
न न्याय होता है<br />
न अन्याय<br />
<br />
जैसे कि,<br />
मगध<br />
मगध नहीं रहा-<br />
सभी हृष्टपुष्ट हैं<br />
कोई नहीं रहा<br />
कृशकाय<br />
<br />
किसी में दया नहीं<br />
किसी में<br />
हया नहीं<br />
कोई नहीं सोचता,<br />
जो सोचता है<br />
दोबारा नहीं सोचता।<br />
<br />
लगभग यही स्थिति है काशी की-<br />
काशी में<br />
शवों का हिसाब हो रहा है<br />
किसी को<br />
जीवितों के लिए फुर्सत नहीं<br />
जिन्हें है,<br />
उन्हें जीवित और मृत की पहचान नहीं!<br />
<br />
मिथिला को लीजिए-<br />
कल की बात है<br />
राज्य करते थे विदेह<br />
उसी मिथिला में<br />
शासन करता है संदेह<br />
किसी को धर्म का डर नहीं-<br />
विश्वामित्र, वशिष्ठ<br />
कोई नहीं रहा-<br />
महाराज! सभी नश्वर हैं<br />
कोई अमर नहीं।<br />
<br />
चलना ही है तो कपिलवस्तु चलिए!<br />
जो जाता है कपिलवस्तु<br />
लौटकर नहीं आता<br />
जो नहीं जाता कपिलवस्तु<br />
जीवन गुजारता है<br />
कपिलवस्तु-कपिलवस्तु चिल्लाता।</div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-26774544425938069252011-08-02T07:21:00.000-07:002011-08-02T07:21:53.587-07:00उधर झूंसी इधर दारागंज<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div closure_uid_8yj1iy="110">अब तो इलाहाबाद बहुत बदल गया है- आबादी का बोझ बढ़ा है और जहां भी जरा-सी गुंजाइश बनी है, छोटे-बड़े मकान खड़े हो गए हैं। मगर 1948 की बरसात में इलाहाबाद में गंगा की बाढ़ कैसी थी, यह जानिए बाबा नागार्जुन की इस कविता से...</div><br />
<div closure_uid_8yj1iy="112"><strong>गीले पांक की दुनिया गई है छोड़/नागार्जुन </strong></div><div closure_uid_8yj1iy="112"><br />
</div><div closure_uid_8yj1iy="112">बढ़ी है इस बार गंगा खूब</div>दियारों पर गांव कितने ही गए हैं डूब<br />
किंतु हम तो शहर के इस छोर पर हैं<br />
देखते हैं रात-दिन जल-प्रलय का ही दृश्य<br />
पत्थरों से बंधी गहरी नींववाला<br />
किराए का घर हमारा रहे रहे यह आबाद<br />
पुराना ही सही पर मजबूत<br />
रही जिसको अनवरत झकझोर<br />
क्षुब्ध गंगा की विकट हिलकोर<br />
सामने ही पड़ोसी के-<br />
नीम, सहजन, आंवला, अमरूद<br />
हो रहे आकंठ जल में मग्न<br />
रह न पाए स्तंभ पुल के नग्न<br />
दूधिया पानी बना उनका रजत परिधान<br />
रेलगाड़ी के पसिंजर खड़े होकर<br />
खिड़कियों से झांकते हैं<br />
देखते हैं बाढ़ का यह दृश्य<br />
उधर झूंसी इधर दारागंज...<br />
बीच का विस्तार<br />
बन गया है आज पारावार<br />
<br />
भगवती भागीरथी-<br />
ग्रीष्म में यह हो गई थी प्रतनु-सलिला<br />
विरहिणी की पीठ लुंठित एकवेणी-सदृश<br />
जिसको देखते ही व्यथा से अवसन्न होते रहे मेरे नेत्र<br />
रिक्त ही था वरूण की कल-केलि का यह क्षेत्र<br />
काकु करती रही पुल की प्रतिच्छाया, मगर यह थी मौन<br />
उस प्रतनुता से अरे इस बाढ़ की तुलना करेगा कौन?<br />
<br />
सो गए जल में बड़े हनुमान<br />
तख्तपोश उठा लाए दूर गंगापुत्र<br />
कृष्णद्वैपायनों का परिवार-<br />
मलाहों के झोपड़ों का अति मुखर संसार<br />
त्रिवेणी के बांध पर आकर हुआ आबाद<br />
चिर उपेक्षित हमारी छोटी गली की<br />
रूक्ष-दंतुर सीढि.यां ही बन गई हैं घाट<br />
भला हो इस बाढ़ का!<br />
<br />
पांच दिन बीते कि हटने लग गई बस बाढ़<br />
लौटकर आ जायगा फिर क्या वही आषाढ़?<br />
हटी गंगा<br />
किंतु गीले पांक की दुनिया गई है छोड़<br />
और उस पर<br />
मलाहों के छोकरों की क्रमांकित पद-पंक्ति<br />
खूब सुंदर लग रही है...<br />
मन यही करता कि मैं भी<br />
उन्हीं में से एक होता<br />
और-<br />
नंगे पैर, नंगा सिर<br />
समूचा बदन नंगा...<br />
विचरता पंकिल पुलिन पर<br />
नहीं मछली ना सही,<br />
दस-पांच या दो-चार क्या कुछ घुंघचियां भी नहीं मिलतीं?</div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-26927802628880223182011-07-28T09:47:00.000-07:002011-07-28T09:47:49.231-07:00आज नागार्जुन होते तो ऐसी कविता न लिखते<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">बस्तर के दुर्गम इलाके की यात्रा में एक आदिवासी से हुई मुलाकात को लेकर बाबा नागार्जुन ने 1973 में जैसी कविता लिखी थी, आज वे होते तो कुछ और ही लिखते। पढ़ लीजिए वह कविता...<br />
<br />
<strong>शालवनों के निविड़ टापू में / नागार्जुन</strong> <br />
<div closure_uid_fyggaz="123"><br />
</div>हलबी और हिंदी का<br />
हमारा दुभाषिया साथी<br />
करने लगा उससे बातें<br />
<br />
फूल बाबू के लिए चाहिए थी माचिस<br />
पास की झोपड़ी से वह ले आया साबुत दिया सलाई<br />
क्षण भर बाद वापस भी दे आया<br />
फिर वो पैसे मांगने लगा इशारे से<br />
हमने थमा दी अठन्नी...<br />
यानी पचास पैसों वाला नया सिक्का<br />
खुशी में चमकने लगीं माड़िया की आंखें<br />
कहने लगा : जोहार! जोहार! जोहार साहब...<br />
<br />
मुस्कुराकर बतलाया हमारे दुभाषिए ने-<br />
(इत्ती-सी देर में उन दोनों में हो गई थीं जरा-मरा-सी बातें)<br />
दस-पंद्रह वर्ष पहले यह दिल्ली गया था<br />
आदिवासी लोकनृत्य वाली अपनी पार्टी के साथ...<br />
<br />
मैंने जानना चाहा-<br />
पूछो, उन दिनों कौन था दिल्ली का राजा?<br />
नचाकर हथेलियां<br />
अबूझ-सी पहेलियों में गुम हो गया बेचारा शबर-पुत्र!<br />
क्या कहे! क्या न कहे!<br />
नाम ले कौन-सा!<br />
कौन-सा नाम न ले!<br />
इतनी लंबी अवधि में स्मृति-पटल पर से धुल-पुंछकर<br />
गायब हो चुके थे वे नाम...।<br />
मैंने आखिर सुझाई चंद संज्ञाएं-<br />
नेहरू, राजेंदर परसाद, राधा कृस्नन...<br />
बोलो, कौन था उन दिनों दिल्ली का राजा...?<br />
मालूम नहीं अपने को...<br />
<div closure_uid_fyggaz="132">अपन को नइं मालूम...</div>डालकर भौंहों पर जोर बोला माड़िया अधेड़<br />
<br />
और अगले ही क्षण<br />
हथेलियों पर उछालता वही सिक्का<br />
उतर गया सड़क के नीचे<br />
खो गया शालवनों के निविड़ टापू में<br />
माड़िया अधेड़।<br />
<br />
बोला हमारा दुभाषिया मित्र-<br />
(रविशंकर विश्वविद्यालय का एमए)<br />
अपन इसके साथ दो रोज रह पाते!<br />
काश, झोपड़ियों वाली इसकी बस्ती तक<br />
पहुंच पाते अपन<br />
रातों वाली अडूडेबाजी में साथ देते इसका<br />
साखू के पत्तों वाले दोने में साथ-साथ पीते सल्फी<br />
चखते भुना हुआ गोश्त सुअर का साथ-साथ<br />
फिर शायद खुलकर बातें करता यह हमसे...।<br />
<br />
और हम चारों जने<br />
देखते रह गए शालवनों की उस पगडंडी की ओर<br />
कम-से-कम दस मिनट तक देखते रहे<br />
तैरती रहीं आरण्यक छवियां सूनी निगाहों में<br />
लेकिन वह तो अब तक अलक्षित हो चुका था<br />
जा चुका था गहरे निविड़ अरण्य की अतल झील के अंदर।<br />
<br />
...स्टार्ट हुई हमारी जीप<br />
बैलाडीला वाली उसी सड़क पर<br />
दंतेवाड़ा से 55 किलोमीटर आगे...<br />
<br />
<br />
<div style="text-align: left;"><br />
</div></div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-74159819018960586002011-07-24T08:40:00.000-07:002011-07-24T08:40:01.397-07:00बरसाती मौसम के निशीथ में<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">साधारण में असाधारण को खोज निकालना बाबा nagarjun नागाजर्न की कविता की वह खासियत है, जो उन्हें अद्वितीय बनाती है। ऐसी ही एक कविता पढि.ए...<br />
<br />
<div closure_uid_hnchgn="118"><strong>क्रंदन भी भा सकता है / नागाजुन nagarjun </strong></div><div closure_uid_hnchgn="120"><br />
</div>अपना न हो तो<br />
<br />
क्रंदन भी<br />
<br />
कानों को<br />
<br />
भा सकता है...<br />
<br />
स्वजन-परिजन,<br />
<br />
चहेते पशु-पक्षी,<br />
<br />
निकटवर्ती बगिया के<br />
<br />
फूलों पर मंडराते<br />
<br />
सु-परिचित भ्रमर,<br />
<br />
किसी का आर्तनाद<br />
<br />
दुखा जाता है मेरा दिल...<br />
<br />
<br />
<br />
बरसाती मौसम के निशीथ में<br />
<br />
सुने मैंने हाल ही<br />
<br />
उस गरीब के चीत्कार<br />
<br />
सांप के जबड़ों में फंसा था वो<br />
<br />
कर रहा था<br />
<br />
चीत्कार निरंतर<br />
<br />
मेंढक बेचारा...<br />
<br />
हमारी पड़ोस वाली <br />
<br />
तलइया के किनारे...<br />
<br />
हाय राम, तुझे-<br />
<br />
काल-कवलित होना था यहीं!<br />
<br />
</div>अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-88882941059081611712011-07-20T07:45:00.000-07:002011-07-20T07:45:36.937-07:00काले रंगों का मौसमबाबा नागार्जुन जब काली-काली घन-घटा देखते हैं तो उन्हें मौसम के ढेर सारे काले रंग दिखाई दे जाते हैं। 1981 में लिखी उनकी यह कविता पढि.ए... <br />
<br />
काले-काले/ नागार्जुन <br />
<br />
काले-काले ऋतु-रंग <br />
<br />
काली-काली घन-घटा <br />
<br />
काले-काले गिरि श्रृंग <br />
<br />
काली-काली छवि-छटा...<br />
<br />
काले-काले परिवेश<br />
<br />
काली-काली करतूत<br />
<br />
<br />
<br />
काली-काली करतूत<br />
<br />
काले-काले परिवेश<br />
<br />
काली-काली महंगाई<br />
<br />
काले-काले अध्यादेश।अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3341219249258250435.post-39583014583557054902011-07-19T08:36:00.000-07:002011-07-19T08:36:47.423-07:00अनोखा है आपका ध्यान-योग!पहले ही जान लें कि यह कविता स्वामी रामदेव के बारे में नहीं है। यह कविता बाबा नागार्जुन की है- पानी के किनारे अपने आहार की प्रतीक्षा में घ्यान-धैर्य की प्रतिमूर्ति बने बगुला पक्षी के बारे में। कविता पढि.ए और याद कीजिए कि ऐसी विलक्षण कविताएं बाबा ही लिख सकते थे...<br />
<br />
<strong>ध्यानमग्न वक-शिरोमणि/ नागार्जुन</strong> <br />
<br />
ध्यानमग्न<br />
<br />
वक-शिरोमणि<br />
<br />
पतली टांगों के सहारे<br />
<br />
जमे हैं झील के किनारे<br />
<br />
जाने कौन हैं इष्टदेव आपके!<br />
<br />
इष्टदेव हैं आपके<br />
<br />
चपल-चटुल लघु-लघु मछलियां...<br />
<br />
चांदी-सी चमकती मछलियां...<br />
<br />
फिसलनशील, सुपाच्य...<br />
<br />
सवेरे-सवेरे आप<br />
<br />
ले चुके हैं दो बार<br />
<br />
अपना अल्पाहार!<br />
<br />
आ रहे हैं जाने कब से<br />
<br />
चिंतन मध्य मत्स्य-शिशु<br />
<br />
भगवानू नीराकार!<br />
<br />
मनाता हूं मन ही मन,<br />
<br />
सुलभ हो आपको अपना शिकार<br />
<br />
तभी तो जमेगा<br />
<br />
आपका माध्यांदिन आहार<br />
<br />
अभी तो महोदय, आप<br />
<br />
डटे रहो इसी प्रकार<br />
<br />
झील के किनारे<br />
<br />
अपने इष्ट के ध्यान में!<br />
<br />
अनोखा है <br />
<br />
आपका ध्यान-योग!<br />
<br />
महोदय, महामहिम!!अरविन्द चतुर्वेदhttp://www.blogger.com/profile/12754065083727268466noreply@blogger.com2