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Friday, September 24, 2010

हमारे वक्त की एक बीमारी के बारे में

हमारे वक्त की कई समस्याओं की वजह एक बीमारी है। इस बीमारी की पहचान अपनी एक कविता में कवि विनोद दास ने की है। यह कविता पढि.ए और सोचिए कि कैसे दूर हो यह बीमारी...

कोई नहीं सुनता/ विनोद दास

एक युवा कवि हताश था
कोई नहीं सुनता कविता
कवि मित्र भी नहीं

कोई किसी की नहीं सुनता
सुनना
अब एक प्राचीन दुर्लभ प्रक्रिया भर है
मैंने कहा

डॉक्टर रोग नहीं सुनता
दवा दे देता है

परीक्षक
उत्तर नहीं सुनते
और अंक दे देते हैं

बच्चे
दादी से कहानी नहीं सुनते
छोटे परदे पर देखते रहते हैं
संतति निरोध का विज्ञापन

टहल खत्म होने के बाद
पत्नी सुनाती है पूरे दिन की
अपनी व्यथा-कथा
पति नहीं सुनता
सिर्फ भरता रहता है हुंकारी

सच तो यह है
कोई अपने मन की आवाज भी नहीं सुनता

पूरी सभ्यता जैसे बहरी हो गई है
उसे एक उम्दा कान मशीन की जरूरत है।

Tuesday, September 21, 2010

यह हमशक्लों का समय है

हैरान-परेशान होने की जरूरत नहीं है। वाकई यह हमशक्लों का ही समय है। कैसे? यह बता रहे हैं कवि विनोद दास अपनी एक कविता में। इसे पढ़ने के बाद आप भी महसूस करेंगे- यह हमशक्लों का समय है...

हमशक्ल/ विनोद दास

वे दो विरोधी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि हैं

एक-दूसरे के साथ
वे रोज दांव खेलते हैं
और उन घरों में मुहरे बैठा देते हैं
जिधर से विरोधी भाग सकता है।
अगर एक किसी खास काट का कुर्ता पहनता है
तो दूसरा झट सफारी को तिलांजलि देकर
उसी काट का कुर्ता सिलवाता है

दूसरा ईजाद करता है कोई लोकप्रिय नारा
बिना किसी शर्म-संकोच
पहला उसे अपने घोषणा-पत्र में छाप देता है

बाजार में हमशक्ल पुर्जे ही नहीं बढ़े हैं
हमशक्ल मानवाकृतियां भी बढ़ी हैं
ब्यूटीपार्लर से निकलती दो लिपी-पुती स्त्रियां
लगभग एक जैसी लगती हैं

यह हमशक्लों का समय है

वे दोनों प्रतिनिधि एक जैसी कार में चलते हैं
उनके पीछे एक जैसे बाहुबली कार्यकर्ता रहते हैं
वे दोनों बहुराष्ट्रीय कंपनियों को न्यौता देने विदेश जाते हैं
उनकी भाषा में एक जैसे विशेषण होते हैं
उन दोनों के बीच अदृश्य समझौता है
सार्वजनिक मंचों पर सिर्फ
वे एक-दूसरे की तीखी आलोचना करते हैं
भगवतीचरण वर्मा की कहानी दो बांके की तरह।

Sunday, September 19, 2010

अयोध्या अभी भी उदार है

कवि विनोद दास की अयोध्या सीरीज से एक और कविता प्रस्तुत है। ये कविताएं उनके संग्रह वर्णमाला से बाहर में संकलित हैं, जो 1995 में किताबघर दिल्ली से प्रकाशित हुआ था।
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अयोध्या
अभी भी उदार है

सरयू
उसी तरह हर लेती है थकान
यात्रियों की

दस्तक देने पर
दरवाजे थोड़ा ठहर कर सही
लेकिन खुलते हैं

लोग अब भी मिलते हैं
और दुश्मनों की तरह
हाथ नहीं मिलाते
रोककर पूछते हैं
बच्चों का परीक्षाफल
पान खिलाते हैं
चाय गुमटियों की बेंचों पर बैठकर
बतकही और बहस करते हैं

औरतें पड़ोसियों से आटा मांग लेती हैं
और आटा चक्की
गेहूं पीस देती है
और धर्म नहीं पूछती

अयोध्यावासी
अभी भी मिलनसार हैं

सिर्फ जब वे बात करते हैं
पता नहीं क्यों
कभी कभी
उनकी आवाज में
कुछ जली चीज की गंध आती है
और कुछ नहीं।

Thursday, September 16, 2010

अयोध्या को खुश देखना चाहता हूं

अयोध्या में बाबरी विध्वंस के साथ उतरी विभीषिका पर ढेर सारी कविताएं लिखी गई । कवि विनोद दास ने तो अयोध्या सीरीज के तहत कई छोटी कविताएं लिखी थीं। एक बार फिर अदालत से आनेवाले फैसले को लेकर अयोध्या चर्चा में है। पढि.ए यह कविता...
अयोध्या/ विनोद दास
अयोध्या में
कुछ न कुछ रोज टूटता है
और उद्वेगहीन अफसर
टेलीफोन पर कान लगाए
अदृश्य आदेशों के इंतजार में बैठे रहते हैं

अयोध्या में
इतना टूट चुका है
कि वहां अब जिधर देखो
सूराख ही सूराख है

कुछ दीवारों में
कुछ आत्माओं में

और इंजीनियर परेशान है

किसी न किसी तरह
वे भर देते हैं दीवारों के सूराख
लेकिन अपनी किसी किताब में उन्हें
आत्मा के सूराखों को भरने की तकनीक नहीं मिलती

अयोध्या की आत्मा के
पोर पोर रिस रहे हैं
और मैं जानता हूं
कि अयोध्या को एक अच्छे डॉक्टर की जरूरत है

मैं डॉक्टर नहीं हूं
लेकिन मेरे पास
प्रेम का एक फाहा है

रिसते जख्मों पर
मैं उसे रखना चाहता हूं

मैं अयोध्या को खुश देखना चाहता हूं।

Monday, September 13, 2010

सम्पूर्ण तिरस्कार के खिलाफ

सम्पूर्ण तिरस्कार अच्छा नहीं होता। इससे होता यह है कि ढेर सारी खराबियों के साथ कुछ बची-खुची अच्छाइयां भी अदेखी रह जाती हैं। असल में सम्पूर्ण तिरस्कार एक प्रकार की मूढ़ता ही है, जो विवेक और धैर्य पूर्वक खराबियों से अच्छाइयों को अलगाने की योग्यता नष्ट करता है। पढि.ए कवि विनोद दास की यह कविता...


दागी आलू / विनोद दास

छिलकों के साथ
मैं फेंकने जा रहा था
दागी आलू

वह आई
और उसने एक-एक करके चुन लिए
सब दागी आलू

फिर उसने काट कर अलग किया
उनका वह हिस्सा
जो सड़ा था

मैं शर्मिन्दा था
आलू का एक बड़ा हिस्सा अच्छा और बेदाग था

मुझे लगा
कितना कुछ अच्छा बचाया जा सकता है
इस तरह
इस पृथ्वी पर।

Friday, September 10, 2010

मे आई कम इन सर

विनोद दास

प्रतिदिन
दफ्तर से विदा लेने से पहले
पारदर्शी केबिन की कुर्सी पर
वे अपने पुत्र के विराजने की कल्पना कर मुदित होते थे
और उसे पब्लिक स्कूल के देसी संस्करण में पढ़ाने के लिए
वापसी वेला में अक्सर सब्जी की कटौती करते थे

जब अफसर डांटता
तो वे डांट कुछ कम सुनते
अफसर की फररटी अंग्रेजी पर मुग्ध होकर
उसमें अपने पुत्र का चेहरा ज्यादा देखते थे

सत्ताइस बरस
सब्जी की कटौती देसी पब्लिक स्कूल को अर्पित करने के बाद

सत्ताइस बरस
अफसर की अंग्रेजी डांट धैर्यपूर्वक सुनने के बाद
सेवानिवृत्त पिता
सत्ताइस बरस बाद बांटना चाहते हैं
हाल ही में बने अपने अफसर पुत्र से मन की व्यथा

किंतु जब वे देखते हैं
उसका पाषाणवतू भावहीन चेहरा
उन्हें लगता है
वह एक पारदर्शी केबिन में बैठा है
और वे बाहर से बार-बार पूछ रहे हैं
मे आई कम इन सर
मे आई कम इन सर

और वह अपनी ऐनक ही ऊपर नहीं उठाता।

Thursday, September 9, 2010

यह कविता पढ़ते हुए किस नेता की याद आती है

समकालीन कविता की दुनिया में विनोद दास एक जरूरी नाम हैं। बानगी के बतौर उनकी कुछ कविताओं के क्रम में पढि.ए यह कविता...

कटआउट/ विनोद दास

समूचा शहर उनके आदमकट कटआउट से पटा है

कार खिड़की से झांकते हुए
जब वे अपना कटआउट देखते हैं
उसकी विराटता और भव्यता के सम्मोहन में डूबकर
सिर्फ कृतिकार को नहीं
प्रायोजक को भी मन ही मन धन्यवाद देते हैं
कि जो खुद नहीं हैं
और होना चाहते हैं
उसमें वह सभी कुछ है

कटआउट के करीब
अपने सुदीर्घ जीवन में उनको पहली बार लगा
कि अपनी महत्वाकांक्षा से वे कितने छोटे हैं
फिर कटआउट छूने के लिए
वे बड़े होने लगे
पहले दृष्टि गई और चश्मा लगा
फिर दिल सिकुड़ा
अंतत: कम सुनाई पड़ने लगा

जनता चाहे अपनी तकलीफ बयान करती
या करती उनकी आलोचना
वे हाथ जोड़कर विनीत मुद्रा में
सिर्फ मुस्कराते रहते
गोया उनके धड़ पर
कटआउट का चेहरा चिपका दिया गया हो

अब यह उनकी स्थाई मुद्रा थी
और बदलती नहीं थी
मृतक के चेहरे की आखिरी मुद्रा की तरह।

Wednesday, September 8, 2010

तसलीमा के व्यंग्य की दो-धार

तसलीमा नसरीन की कुछ कविताएं व्यंग्यात्मक हैं। ऐसी कविताओं का व्यंग्य जबरदस्त प्रहार करने वाला और तिलमिला देने वाला है। पढि.ए ऐसी दो छोटी कविताएं...

एक/ जीभ

अब आदमी आदमी की तारीफ नहीं करता।
घर में कुत्ता पालता है, दो-तीन धूसर बिल्लियां
आदमी अब कुत्ते के नहाने-खाने
बिल्ली के नाम-धाम, आचार-व्यवहार की
भरपूर तारीफ करता है।

अब सूत और पाट, कोयले और काठ के बारे में
गहरी बहस में मशगूल हो जाता है आदमी।
फिर भी अच्छा है,
इंट, पत्थर, काठ की तारीफ करके भी अगर
जीभ की फितरत बदल जाए!

दो/ सस्ती चीज

बाजार में इतना सस्ता और कुछ नहीं मिलता
जितनी सस्ती मिलती हैं लड़कियां।
वे आलता की एक शीशी पाकर मारे खुशी के
तीन दिन बिना सोए बिता देती हैं।

बदन में लगाने को दो साबुन
और बालों के लिए खुशबूदार तेल पाकर
इस कदर वश में आ जाती हैं कि उनकी देह का गोश्त निकाल कर
हफ्ते में दो बार हाट-बाजार में बेचा जा सकता है।
एक नथुनी पाकर वे सत्तर दिनों तक पांव चाटती रहती हैं
और एक साड़ी मिल जाने पर पूरे साढ़े तीन महीने तक।

घर का मरियल कुत्ता भी जरूरत पड़ने से भौंक उठता है
लेकिन सस्ती लड़की के मुंह में एक क्लिप लगा रहता है
- सोने का क्लिप।

Wednesday, September 1, 2010

अकेलेपन की आवाजें

सन्नाटे का भी शोर होता है, जो मन में गूंजता है और बहुधा असह्य होता है। अकेलेपन की आवाजें खुद को ही सुनाई पड़ती हैं, भले ही कोई दूसरा न सुन पाए...

आशा-निराशा/ तसलीमा नसरीन

इतना कुछ बजता है, शरीर के सारे रोयें-रेशे बज उठते हैं
बजता है तन-मन के आंगन में सात फेरे लगाकर नाचने वाला
अकेला नूपुर बजता है

भरी कलाई में बजते हैं चांदी के कंगन।
रूनझुन बजती हैं खिड़की के कांच पर आषाढ़ी वर्षा की बूंदें,
बादल से बादल खाते हैं रगड़ और बिजली बज उठती है।
तीन ताल में बजता है स्वप्न
भीतर घोर तांडव करती निस्संगता बजती है।

इतना कुछ बजता है
दरवाजे पर सिर्फ बजती नहीं स्थिर पड़ी एक कुंडी।