साथ-साथ

Wednesday, March 30, 2011

खाली दिमाग शैतान का घर

यह कहावत तो सबको पता है कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है, जो तरह-तरह के कुचक्र रचता रहता है। यानी बैठे-ठाले मन में विचार नहीं आते। दरअसल, कर्म का अनुगमन करते हैं विचार। पढि़ए कवि मुक्तिबोध की दो छोटी कविताएं-

विचार आते हैं

विचार आते हैं-
लिखते समय नहीं,
बोझ ढोते वक्त पीठ पर
सिर पर उठाते समय भार
परिश्रम करते समय
चांद उगता है व
पानी में झलमलाने लगता है
हृदय के पानी में।

विचार आते हैं
लिखते समय नहीं,
... पत्थर ढोते वक्त
पीठ पर उठाते वक्त बोझ
सांप मारते समय पिछवाड़े
बच्चों की नेकर फचीटते वक्त!

पत्थर पहाड़ बन जाते हैं
नक्शे बनते हैं भौगोलिक
पीठ कच्छप बन जाते हैं
समय पृथ्वी बन जाता है...

बेचैन चील

बेचैन चील!
उस-जैसा मैं पर्यटनशील
प्यासा-प्यासा,
देखता रहूंगा एक दमकती हुई झील
या पानी का कोरा झांसा
जिसकी सफेद चिलचिलाहटों में है अजीब
इनकार एक सूना!!

Monday, March 28, 2011

मुक्तिबोध का आईना

कवि गजानन माधव मुक्तिबोध अपने परवर्ती कवियों के लिए एक अनिवार्य पाठ की तरह रहे हैं। जीवन-जगत की जटिलताओं से उलझकर उन्हें सुलझाने में और जन-जीवन से खुद को एकाकार करने में उनकी कविता में सघन तनाव और बेचैनी दिखाई देती है। लंबी कविताओं के विशिष्ट कवि मुक्तिबोध ने अक्सर मैं-शैली अपनाई है। आत्म वक्तव्य के मुहावरे में पढि़ए उनकी दो छोटी कविताएं-

मैं उनका ही होता

मैं उनका ही होता, जिनसे
मैंने रूप-भाव पाए हैं।
वे मेरे ही हिए बंधे हैं
जो मर्यादाएं लाए हैं।
मेरे शब्द, भाव उनके हैं
मेरे पैर और पथ मेरा,
मेरा अंत और अथ मेरा,
ऐसे किंतु चाव उनके हैं।
मैं ऊंचा होता चलता हूं
उनके ओछेपन से गिर-गिर,
उनके छिछलेपन से खुद-खुद,
मैं गहरा होता चलता हूं।

बहुत दिनों से

मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से
बहुत-बहुत-सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना
और कि साथ-साथ यों साथ-साथ
फिर बहना बहना बहना
मेघों की आवाजों से
कुहरे की भाषाओं से
रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोना
है बोल रहा धरती से
जी खोल रहा धरती से
त्यों चाह रहा कहना
उपमा संकेतों से
रूपक से, मौन प्रतीकों से

मैं बहुत दिनों से बहुत-बहुत-सी बातें
तुमसे चाह रहा था कहना!
जैसे मैदानों को आसमान,
कुहरे की, मेघों की भाषा त्याग
बिचारा आसमान कुछ
रूप बदल कर रंग बदल कर कहे।

Sunday, March 27, 2011

दिल तेरी नजर की शह पाकर...

भोपाल की उर्दू शायरी की नुमाइंदगी करने वालों में एक नाम ताज भोपाली यानी सैयद मुहम्मद अली ताज का भी है। पतझर के इस मौसम में आम की मंजरियों की खुशबू की तरह असर करने वाली उनकी ये दो गजलें पढि़ए और अच्छे मूड में हों तो गुनगुनाइए भी...

एक
दिल तेरी नजर की शह पाकर मिलने के बहाने ढूंढे है
गीतों की फजाएं मांगे है गजलों के जमाने ढूंढे है।

आंखों में लिए शबनम की चमक सीने में लिए दूरी की कसक
वो आज हमारे पास आकर कुछ जख्म पुराने ढूंढे है।

क्या बात है तेरी बातों की लहजा है कि है जादू कोई
हर आन फिजा में दिल उड़कर तारों के खजाने ढूंढे है।

पहले तो छुटे ये दैरो-हरम, फिर घर छूटा, फिर मयखाना
अब ताज तुम्हारी गलियों में रोने के ठिकाने ढूंढे है।

दो
बहुत दिनों से नजर में है यार की सूरत
गमे-जमाना से लेकिन फरार की सूरत।

नजर तो आए कहीं से बहार की सूरत
निकालिए तो कोई ऐतबार की सूरत।

खुला हुआ है दरे-मयकदा दिलों की तरह
महक रही है फिजा जुल्फे-यार की सूरत।

हजार मरहले-जीस्त सामने आए
बदल-बदल के तमन्नाए-यार की सूरत।

Saturday, March 26, 2011

वीर रस विदा

जिस तरह की लड़ाइयों और जय-पराजय के बीच वीर रस का सरोवर लबालब भरा रहता था, उनसे हम बहुत दूर आ चुके हैं, सो वह सरोवर सूख चुका है- वीर रस की विदाई हो चुकी है। अब संघर्ष यानी जीवन संघर्ष के मायने बदल चुके हैं। समकालीन दौर के बहुचर्चित व महत्वपूर्ण कवि कुमार अंबुज की यह कविता पढि़ए-

एक दीवार पर दो तलवारें देखकर / कुमार अंबुज

कब कौन-से युद्ध लड़े गए इनसे
किसी को याद नहीं
दीवार के चेहरे पर एक जोड़ी मूंछों की तरह
चिपकी हुई ये तलवारें
इस मकान को विरासत में मिली हैं

दशहरे की पूजा के निशान
सालभर चमकते हैं मूठ पर
घर का मालिक मेहमान का स्वागत करते हुए
कनखियों से तलवारों की तरफ देखता है
और दोनों के बीच दो तलवारें खड़ी हो जाती हैं
जिन्हें मालिक मूंछों की तरह उमेठता है

तलवारें याद दिलाती हैं
कि घर कभी जमींदारी की रोशनी में जगमगाता था
तलवारें बताती हैं कि लोग झुककर सलाम करते हुए
अपने ही जूतों पर बैठकर बात करते थे
कि तलवारों पर नहीं पड़ सकी कभी
किसी नीच आदमी की परछाईं

ये तलवारें उजड़ चुके वैभव का चमकदार दुख हैं
रात की गहन चुप्पी में इनकी मूठों से
कराह और रोने की मिली-जुली आवाज आती है
कुछ घुड़सवारों के कटे हुए हाथ
तलवारों को रातभर भांजते हैं

यह पूरी दीवार इन तलवारों के सहारे खड़ी है
और पूरा घर इस एक  दीवार के सहारे
अगर हट गईं ये तलवारें
तो भरभराकर गिर पड़ेगा यह घर...

फिलहाल इनके लोहे पर जंग लग चुका है
और धार पड़ गई भोथरी इतनी
कि नहीं काटा जा सकता एक आलू भी।

Friday, March 25, 2011

बहरेपन की शिनाख्त

बहरेपन की असल शिनाख्त यह है कि आदमी अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनना बंद कर दे। दरअसल, कान से न सुनाई देना यानी शारीरिक बहरेपन से कहीं ज्यादा खतरनाक है आत्मा का बहरापन। एकांत श्रीवास्तव की यह कविता पढ़कर जरूर कुछ ज्यादा सुनाई देने लगेगा-

पुकार/ एकांत श्रीवास्तव

बरसों से एक पुकार
मेरा पीछा कर रही है
एक महीन और मार्मिक पुकार
इस महानगर में भी
मैं इसे साफ-साफ सुन सकता हूं

आज जब यह पहली बारिश के बाद
धरती की सोंधी सुगंध की तरह
हर तरफ भर गई है
मैं एकदम बेचैन और अवश
हो गया हूं इसके सामने
क्या यह जड़ों की पुकार है
फुनगियों के लिए?
क्या यह डूबते दिन की पुकार है
पखेरुओं के लिए?

यह उस रास्ते की पुकार हो सकती है
जिसे अभी लौटने को कहकर
मैं छोड़ आया हूं

यह पहाड़ों में भटकती कंदील की पुकार होगी

यह मां की पुकार होगी
मैं बरसों से घर नहीं लौटा।

Thursday, March 24, 2011

दुनिया एक बीज की आवाज पर टिकी है

1964 में रायपुर के हुरा गांव में जन्मे एकांत श्रीवास्तव का काव्य संसार एक बीज की तरह विकसित होकर सघन और समृद्ध हुआ है। ग्रामीण पृष्ठïभूमि से निकले एकांत की कविता का फलक व्यापक हुआ है और उनकी बहुतेरी कविताओं में अपनी जड़ों से शिद्दत से जुड़े रहने की ललक व बेचैनी दिखाई देती है। पढि़ए यह कविता-

एक बीज की आवाज पर/ एकांत श्रीवास्तव

बीज में पेड़
पेड़ में जंगल
जंगल में सारी वनस्पति पृथ्वी की
और सारी वनस्पति एक बीज में

सैकड़ों चिडिय़ों के संगीत से भरा भविष्य
और हमारे हरे-भरे दिन लिए
चीखता है बीज
पृथ्वी के गर्भ के नीम अंधेरे में-
इस बार पानी में सबसे पहले मैं भीगूं

बारिश की पहली फुहार की उंगली पकड़ कर
मैं बाहर आऊं
तुम्हारी दुनिया में

दुनिया एक बीज की आवाज पर टिकी है।

Wednesday, March 23, 2011

पुराने जमाने में आंसुओं की बहुत कीमत थी

हिंदी की साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रकारिता को नई ऊंचाई देनेवाले मंगलेश डबराल समकालीन हिंदी कविता के प्रातिनिधिक स्वर हैं। पहले ही कविता संग्रह पहाड़ पर लालटेन से चर्चित मंगलेश की कविता पुस्तकों घर का रास्ता और आवाज भी एक जगह है में उनकी कविता का व्यापक फलक देख सकते हैं। पढि़ए उनकी एक कविता-

आंसुओं की कविता / मंगलेश डबराल

पुराने जमाने में आंसुओं की बहुत कीमत थी/ वे मोतियों के बराबर थे और उन्हें बहता देखकर सबके दिल कांप उठते थे/अपनी-अपनी आत्मा के मुताबिक वे कम या ज्यादा पारदर्शी होते थे और रोशनी को सात से अधिक रंगों में बांट देते थे

बाद में आंखों को कष्ट न देने के लिए कुछ लोगों ने मोती खरीदे और उन्हें महंगे और स्थाई आंसुओं की तरह पेश करने लगे। इस तरह आंसुओं में विभाजन शुरू हुआ/असली आंसू धीरे-धीरे पृष्ठïभूमि में चले गए/दूसरी तरफ मोतियों का कारोबार खूब फैल चुका है

जो लोग सचमुच रोते हैं अंधेरे में अकेले दीवार से माथा टिकाकर उनकी आंखों से बहुत देर बाद बमुश्किल एक आंसूनुमा चीज निकलती है और उन्हीं के शरीर में गुम हो जाती है।

Tuesday, March 22, 2011

पुकार भी और प्रार्थना भी

कुछ गजलें प्रार्थना के शिल्प में एक पुकार की तरह भी हो सकती हैं। ऐसी कुछ गजलें जाने-माने शायर कुमार पाशी ने भी लिखी हैं। पढि़ए उनकी यह गजल-

गजल/कुमार पाशी

जुगनू कोई जुल्मत मिटाने के लिए दे
इक ख्वाब तो आंखों में सजाने के लिए दे

ले चाक किए लेता हूं मैं अपना गिरेबां
अब दश्त मुझे खाक उड़ाने के लिए दे

हर पेड़ को शाखें कभी सरसब्ज अता कर
हर शाख को कुछ फूल सजाने के लिए दे

इक नूर फजा में है तो इक रंग हवा में
मंजर ये मुझे सबको दिखाने के लिए दे

खुशियां दे कि मैं बांट सकूं अहले-जमीं को
और दर्द मुझे दिल में छुपाने के लिए दे

सेराब करे दश्त को जो अपने लहू से
ऐसा कोई किरदार निभाने के लिए दे

Monday, March 21, 2011

आलोक तोमर को याद करते हुए

दिवंगत पत्रकार साथी आलोक तोमर की याद के उमड़ते-घुमड़ते आवेग को तिनके का सहारा देती वरिष्ठ कवि भगवत रावत की यह कविता याद आ रही है। आलोक भी मध्य प्रदेश के थे और भगवत रावत भी मध्य प्रदेश के ही हैं। पढि़ए कविता-

उसकी चुप में/ भगवत रावत
एक चलता-फिरता हंसता-बोलता आदमी
कभी नहीं सोचता कि उसके जीवन में
एक दिन ऐसा आएगा
जब उसकी हंसी पर ताला लग जाएगा
वह मुसीबतों से नहीं डरता
लडऩे से नहीं घबराता
यहां तक कि कई बार
मौत को घर से बाहर धकेल चुका होता है

ऐसा आदमी जब किसी दिन अचानक
चुप हो जाता है
तो एक बहुत जरूरी आवाज
हवा में घुलने से रह जाती है
जैसे आटे में घुलना छोड़ दे नमक
फेफड़ों में ऑक्सीजन
और आंखों में प्रेम

फिर इसके बाद
कहां क्या-क्या होने से रह जाएगा
यह कौन किसको बता पाएगा
यह तो वह खुद भी नहीं जानता
कि हवा में घुली हुई उसकी हंसी
किन बंद दरवाजों को खोलती थी

मैं नहीं जानता
ऐसी हालत में क्या किया जाना चाहिए
सिवा इसके कि थोड़ी देर के लिए
उसकी चुप में शामिल हो जाना चाहिए।

Sunday, March 20, 2011

अंगूठे की अहमियत

अंगूठे की अहमियत कितनी है, यह तो एकलव्य-द्रोण की छल-कथा के जरिए हम सभी जानते ही हैं, लेकिन कुमार विजय गुप्त की यह कविता अपने ही ढंग से अंगूठे की अहमियत को रेखांकित करती है-

एक अकेला अंगूठा/ कुमार विजय गुप्त

एक अकेले अंगूठे ने
वसीयत कर दी सारी अंगूठियां
उंगलियों के नाम

रोका, गालों पे लुढ़कते हुए
आंसू की असंख्य बूंदों को

एक अकेले अंगूठे ने
उंगलियों के गासे में भरा हुनर
तलहथ्थियों को दी बित्ता भर लंबाई
हथेलियों को भर मुट्ठी क्षमता

आकाश के ललाट पर बढ़कर लगाया
विजयी भव का सूर्य-तिलक

अंगूठे को पिस्टन बनाकर
हमने भी कई बार उगलवाया
डबडबाए हुए नल के हलक से पानी

शरारती हुए तो काटी चिकोटी
मस्ती में आए तो बजाई चुटकी

अफसोस!
इसी अंगूठे से लिया गया
कोरे कागज पर काला टिप्पा
रची गई हर बार
जीने के हक से बेदखल करने की साजिश

अंगूठे का दर्द वो ही जानें
जिन्होंने जमीन में धंसाया अंगूठा
हल के फाल की तरह
और खांच दी चाहतों की क्यारियां

एकलव्य का कटा हुआ अंगूठा
दर्द के संबोधन-चिन्ह की तरह
एक बार जरूर खड़ा हुआ होगा
द्रोण के समक्ष भी

इधर अंगूठे ने भी बदले तेवर
दाएं-बाएं डोलकर सिर्फ दिखाता नहीं ठेंगा
बल्कि सफलीभूत होने पर तनकर कहता- डन

ज्यों नाचता लट्टू लोहे के गुने पर
घूमती रहेगी पृथ्वी
अकेले अंगूठे के टेक पर।

संपादक ने पूछा समाचार संपादक से

यह बहुत छोटी-सी कविता है वाल्मीकि विमल की। सीधी-सरल सी लगने वाली बात भी कभी-कभी कैसे गहरे अर्थ देनेवाली कविता बन जाती है, इसे एक उदाहरण के तौर पर देख सकते हैं-

निकष/वाल्मीकि विमल

संपादक ने पूछा
समाचार संपादक से
कितने मरे पंजाब में?
समाचार संपादक ने
सिर ऊपर किया
चश्मा उतारा
और ठंडी सांस लेते हुए बोला-
पंद्रह
बस, पंद्रह!
दे दो सिंगल कालम में।

Friday, March 18, 2011

हालांकि दुनिया कोई बहुत प्रेमपूर्ण नहीं है

आज भी दुनिया बहुत प्रेमपूर्ण नहीं है, बल्कि उसका रवैया अक्सर प्रेमियों के खिलाफ नजर आता है। इसके बावजूद प्रेमियों के चलते ही दुनिया में कुछ बहुत अच्छी चीजें बची हुई हैं। पढि़ए अरविंद श्रीवास्तव की यह कविता-

प्रेमियों के रहने से/अरविंद श्रीवास्तव

प्रेमियों के रहने से
मरे नहीं शब्द
मरी नहीं परंपराएं
कंसर्टों में गाए जाते रहे प्रेमगीत
लिखी जाती रहीं प्रेम कविताएं
बचाए जाते रहे प्रेमपत्र
डोरिया कमीज के कपड़े
मूंगफली के दाने
पार्क व लॉन वाले फूलों को
और बचाया जा सका
उजाले से रात को

प्रेमियों के रहने से
मरी नहीं चार्ली चैपलिन की कॉमेडी
अभिनेत्रियां नहीं हुईं कभी बूढ़ी
चालीस के दशक वाले सहगल के गीतों को
बचाए रखा प्रेमियों ने

प्रेमियों के रहने से एक आदिम सिहरन
जीवित रही अपने पूरे वजूद के साथ
हर वक्त

डाल दिए प्रेमियों ने पुराने और भोथरे हथियार
अजायबघर में

संरक्षित रही विरासत
जीवित रहीं स्मृतियां

आषाढ़ के दिन और पूस की रातें
कटती रहीं बगैर किसी फजीहत के
प्रेमियों के रहने से

प्रेमियों के रहने से
आसान होती रहीं पृथ्वी की मुश्किलें
और अच्छी व उटपटांग चीजों के साथ
बेखौफ जीती रही पृथ्वी।

Thursday, March 17, 2011

दोस्त कहते हैं कि पीकर भी न सच बोला करूं

मशहूर शायर कुमार पाशी के बारे में शानी ने लिखा है कि उर्दू की जदीद यानी आधुनिक शायरी में कुमार पाशी एक ऐसा अहम नाम है, जिसे छोड़कर जदीदियत की कोई भी बहस अधूरी और एकांगी होगी। पेश है पाशी की एक गजल-

गजल/कुमार पाशी

झूठ को आदत बना लूं मस्लहत ओढ़ा करूं
दोस्त कहते हैं कि पीकर भी न सच बोला करूं

जहर कितना भी हो बाहर की फजाओं में मगर
फिक्र में मिस्री भरूं इजहार को मीठा करूं

दिन में हंस-हंसकर मिलूं अपनों से भी गैरों से भी
रात को घर के दरो-दीवार से झगड़ा करूं

देख ले वो भी मेरे आंगन में फैली सुबह को
मर गया है जो मेरे अंदर उसे जिंदा करूं

साहिलों की रेत क्या देगी पता पाशी मुझे
उतरूं पानी में तो गहराई का अंदाजा करूं

Wednesday, March 16, 2011

यह एकल परिवार का जमाना है

चूंकि यह एकल परिवार का जमाना है यानी पति-पत्नी और बच्चा या बच्चे, इसलिए अब खासकर शहरों में संयुक्त परिवार की याद एक आह भरी स्मृति बनकर रह गई है। कविता में इसकी हाहाकारी गूंज-अनुगूंज अनेक आवाजों में सुनाई पड़ती है। जैसे वरिष्ठ और बुजुर्ग कथाकार-कवि रामदरश मिश्र की यह कविता-

परिवार/रामदरश मिश्र

कल तक हम परिवार थे
एक-दूसरे की आंखों में
अपने को पढ़ते हुए
एक-दूसरे के ओठों पर
अपनी हंसी रचते हुए
हमारे किवाड़ों पर
जब हमारी अंगुलियों की थाप पड़ती थी
तब घर के भीतर बिछी हुई उत्सुक प्रतीक्षाएं
सितार के तारों की तरह झनझना उठती थीं
और किवाड़ों के पास आकर
वे थाप में समा जाती थीं
पूरा आंगन चिडिय़ों की चहचहाहट से भर जाता था
एक की नींद टूटती थी
तो सपने दूसरे की आंखों में उग आते थे
इंद्रधनुष की तरह
उठा हुआ एक हाथ
शाम की तरह गिरता था
तो दूसरे हाथ उठ जाते थे सुबह की तरह
एक पांव जमता था बर्फ की तरह
तो दूसरे पांवों से नदी बह चलती थी
खिड़की चाहे किसी ओर हो
हर कमरे का मुंह आंगन में ही खुलता था
भिन्न-भिन्न रंगों के होकर भी हम उद्यान थे
अलग-अलग होकर भी हमारे स्वर सहगान थे

आज हम एक ही मतपेटी में पड़े हुए
अलग-अलग दलों के वोट हैं
व्यक्ति से मुहर बने हुए
साथ-साथ रहते हुए भी
एक-दूसरे से तने हुए।

Tuesday, March 15, 2011

घर में लगाना चाहता है दुनिया का सबसे मजबूत ताला

बिहार में वैशाली जिले के एक गांव में 1954 में जन्मे कवि मदन कश्यप समकालीन कविता में एक जरूरी उपस्थिति के तौर पर देखे जाते हैं। उनमें निरंतरता भी है और विविधता भी। पढि़ए उनकी जोकर सीरीज की तीन कविताएं-

जोकर/मदन कश्यप

एक
एक दिन अचानक ताश की गड्डी से उछलकर
सिंहासन पर जा बैठा जोकर
देखते रह गए बादशाह-बेगम
गुलाम तो खैर गुलाम थे
दहले-नहले भी अवाक्
छक्कों-पंजों का कुछ नहीं चल रहा था
तो दुग्गियों-तिग्गियों को कौन पूछे

हालांकि लाल पान की बेगम जोर से चीखी
और ईंट के बादशाह ने ऐसे दांत पीसे
कि पूरी बत्तीसी ही चूर हो गई
चिड़ी का गुलाम असमंजस में देर तक
सिर झटकता रहा
तीनों इक्के गोलबंद हुए
लेकिन अब क्या हो सकता था
अब तक तो तख्त पर जम चुका था जोकर।

दो
इसे हत्या की खबरें सुनाओ
यह पलकें झपकाएगा
इसे भूख और गरीबी की बातें बताओ
यह पलकें झपकाएगा
इसे विकास की योजनाएं समझाओ
यह पलकें झपकाएगा

इसके सपाट पुते चेहरे और
भावशून्य आंखों में
भीतर तक कुछ नहीं है

पांच मिनट इसके लिए बहुत कठिन है
यह पांच मिनट तक किसी की बातें
नहीं सुन सकता
पांच मिनट तक किसी विषय पर
नहीं बोल सकता
पांच मिनट तक किसी मुद्दे पर
नहीं सोच सकता
हर दूसरे मिनट एक मजाक जरूरी है
इसकी सेहत के लिए

यह केवल अपने मसखरेपन की मूर्ख-मुद्राओं से
भोले-भाले लोगों को फुसलाना जानता है
जो काफी है कुर्सी पर काबिज रहने के लिए।

तीन
अरे यह क्या हुआ सहसा
यह जोकरई के प्रति गंभीरता है
या गंभीरता की जोकरई
बेहद संजीदा हो चला है जोकर
सिंहासन सहित उड़ जाना चाहता है यह
ऊंचे आसमान में
हवाई जहाज पर चढ़कर
हवाई जहाज से भी तेज भागना चाहता है
जाने कहां पहुंचना है इसे

यह जल्दी-जल्दी पूरा करना चाहता है
अपना सब कामकाज
आज का बाजार बंद होने से पहले
पूरा बाजार खरीद लेना चाहता है
अपने घर में लगाना चाहता है
दुनिया का सबसे मजबूत ताला
दुनिया के सबसे ताकतवर आदमी को
बनाना चाहता है अपना अंगरक्षक

कहीं बहुत दूर पीछे छूट गया है अब
तिरपनवें पत्ते का सुकून।

Monday, March 14, 2011

प्रकृति से पंगा लेता विकास

जापान की त्रासदी ने आंख में उंगली डालकर बता दिया है कि अतिवादी विकास इसी तरह विनाश का तांडव मचाता रहेगा। क्या विकासवादी लोग इस सवाल पर विचार करेंगे कि कुल मिलाकर यह प्रकृति के विरुद्ध क्यों है? पढि़ए कवि निलय उपाध्याय की यह कविता-

मकड़ी/निलय उपाध्याय

मकड़ी-
जैसे खुद बुने जाल में फंसकर दम तोड़ देती है
सुविधाओं के पीछे पागल दम तोड़ देगी
यह दुनिया

तड़कते आसमान से बिजली की रास पकड़
कूदने वाले- पछताएंगे

सूखे नारियल में पानी की तरह बचा रहेगा जीवन

मनबोध बाबू,
मिट्टी को सीमेंट में बदलने की जरूरतों में
चाहे जितना जीवन शामिल हो
जितना विज्ञान
उससे अधिक शामिल होता है बाजार
उससे अधिक शामिल होती है व्यवस्था

व्यवस्था के दर्शन से अक्सर बाहर निकल जाता है जीवन
और जीवन से बाहर निकल जाती है व्यवस्था।

Sunday, March 13, 2011

जो हिटलर के बारे में सोचते हैं

उत्तर प्रदेश के इटावा में जन्मे संजय चतुर्वेदी पढ़ाई और पेशे से चिकित्सा विज्ञानी हैं। उनका पहला कविता संग्रह 1985 में सबेरा तब भी होगा छपकर आया था। प्रस्तुत है अपेक्षाकृत थोड़ी लंबी उनकी एक विचारोत्तेजक कविता-

मतदाता/संजय चतुर्वेदी

मैं टैगोर के बारे में कुछ विचार रखता था
लेकिन अब नहीं रखता
क्योंकि इससे बंगालियों की भावनाओं को ठेस पहुंचती
ईसाई दुनिया में इतने मजबूत और खाते-पीते थे
कि बिना ठेस के भी चोट कर सकते थे
इसलिए ईसा के बारे में सोचना बंद कर दिया
मुहम्मद साहब इस्लाम के अलावा
एक ऐतिहासिक व्यक्ति भी थे
लेकिन मुसलमान उनपर इस कदर काबिज थे
कि मुहम्मद साहब के बारे में सोचना बंद कर दिया
मैं सोचना चाहता था
लेकिन मैं नहीं सोचता था
मैं सोचता था कि सोचना और जीना एक चीज है
लेकिन सोचने से जीवन को ठेस पहुंचने की संभावना थी
मैं वर्ण व्यवस्था के बारे में सोचना चाहता था
मैं सभी संतों को ब्राह्मण, द्रष्टाओं को ऋषि
कारीगरों, कलावंतों, मेहनतकशों को द्विज मानता था
लेकिन ब्राह्मणों के नाम पर ऐसे बहुत से कलंक थे
जिन्हें इन बातों से ठेस पहुंचती
मैं अंबेडकर के बारे में सोचना चाहता था
लेकिन उनकी मूर्तियों के बारे में भी
और उन जमीनों के बारे में भी जिन पर वे स्थित थीं
मैं खुशवंत सिंह और शोभा डे जैसी फितरतों के बारे में
कुछ निश्चित विचार रखता था
लेकिन ऐसे लोग भी दुनिया में काफी थे
और ठेस लग सकती थी
मैं संजय गांधी और संजय सिंह जैसे लोगों के बारे में भी
कभी-कभी सोचता था
लेकिन इससे युवक कांग्रेस
और इसी तरह के अन्य तत्वों को ठेस पहुंचती
मैं दस्युरानियों, दस्युराजाओं
और उनके द्वारा मारे गए लोगों की आत्माओं के बारे में सोचता था
मैं हत्यारों और उनके कलादलालों के बारे में सोचना चाहता था
लेकिन इससे कला की स्वायत्तता को ठेस पहुंचती
मैं प्रापर्टी डीलर्स के बारे में सोचता था जो इस देश के हाकिम थे
मैं असरदार लोगों के बारे में सोचता
कभी उनके मानव अधिकारों
कभी उनकी अग्रिम जमानतों के बारे में
जैसे असरदार होना
आजीवन पाप की अग्रिम जमानत हो
लेकिन मैं किस-किस के बारे में सोचता
मैं हिटलर और नागासाकी के बारे में एक साथ सोचना चाहता था
स्तालिन और निक्सन के बारे में भी
लेकिन मैं जानता था
जो हिटलर के बारे में सोचते हैं
वे नागासाकी के बारे में नहीं सोचते
हालांकि मैं यह भी जानता था
नागासाकी या विएतनाम
अमेरिका के निजी मामले नहीं थे
और यह भी कि दोनों जगह
दिल दहला देने वाली तादाद में
निर्दोष नागरिकों को मारा गया
धीरे-धीरे सभी महत्वपूर्ण विषयों पर
लफंगों का कब्जा होता जा रहा था
यह अपराधियों के बारे में सोचने का समय था
हरामकारों के बारे में
हम उनकी भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचा सकते थे
और वे हमारी जिंदगी को ठेस पहुंचा रहे थे
मैं वोट देना चाहता था
लेकिन किसी निशान पर मुहर लगा देने से
मेरे मत का पता नहीं चलता
मैं हुल्लड़, कीर्तन, रतजगों और सपनों में खलल देती अजानों से
तंग आ चुका था
मैं चाहता था सोचूं
और नहीं सोचता था
सोचना और बोलना एक चीज होती
मैं हिंदू जीवन जीने की कोशिश करता था
लेकिन उससे किसी हिंदू परिषद को कोई तकलीफ हो सकती थी
बस समाज में अभी जगह थी
कि मैं कालिदास और सूरदास के बारे में सोच सकता था
पीपल, यमुना और हिमालय के बारे में
अपने विचार रख सकता था
और गैलीलियो पर स्वतंत्र रूप से बोल सकता था
उससे किसी भड़ुए को कोई मतलब नहीं था

मैं संविधान और न्यायपालिका के बारे में सोचना चाहता था
लेकिन मैं नहीं सोचता था
मैं राजनैतिक रूप से सही होना चाहता था
लेकिन मैं पाता था कि ऐसा करते-करते
मैं इंसानी रूप से गलत होता जा रहा हूं।

Saturday, March 12, 2011

कालिदास बनकर भी क्या करेगा कालिये

कवि-गद्यकार विष्णु नागर जितने सहज व्यक्ति हैं, उतने ही सहज रचनाकार भी। वे बहुआयामी लेखक हैं- कथाकार, व्यंग्यकार, सुयोग्य पत्रकार और संपादक। मैं फिर कहता हूं चिडिय़ा और तालाब में डूबी छह लड़कियां कविता संग्रहों से पहचान बनाने वाले विष्णु नागर की चार छोटी कविताएं प्रस्तुत हैं-

एक
दोस्तो
मेरे दुश्मनों से मिलो
वे भी अच्छे लोग हैं
फर्क ये है
कि ये मेरे प्रशंसक नहीं हैं!

दो
रोने में
बच्चे का मन
खूब ही रमा हुआ था
रोने को वह गाने लगा था
गाता रहता इसी तरह वह कुछ और देर
मगर तभी कुत्ता कहीं से प्रकट हुआ
गाना फिर रोने में बदलने लगा।

तीन
कालिदास बनकर भी
तू क्या करेगा रे कालिये
ध्वज प्रणाम किया कर
ओ. के. साबुन से नहाकर
कमल-सा खिला कर
विज्ञापन- सा दिखाकर।

चार
एक नासमझ को
यह समझने में
बहुत वक्त लगा
कि वह समझदार नहीं है
बहुत ही बाद में उसे समझ में आया
कि खैर, यह भी अच्छा ही हुआ!

Friday, March 11, 2011

बहस की तेज आंच पर पकेंगे नपुंसक विचार

कविता का एक काम यह भी है कि अगर राह न मिले तो राह पाने की वह मन में बेचैनी पैदा करे। पढि़ए ऐसी ही एक कविता निर्मला पुतुल की। निर्मला पुतुल झारखंड की हिंदी कविता का एक प्रतिनिधि स्वर हैं-

एक बार फिर/निर्मला पुतुल

एक बार फिर-
हम इकट्ठे होंगे एक विशाल सभागार में
किराए की भीड़ के बीच

एक बार फिर-
ऊंची नाक वाली अधकटी ब्लाउज पहनी महिलाएं
करेंगी हमारे जुलूस का नेतृत्व
और मंचासीन होंगी प्रतिनिधित्व के नाम पर

एक बार फिर-
हमारी सभा को संबोधित करेंगी माननीया मुख्यमंत्री
बढ़ाएंगी मंच की शोभा ऐश्वर्या राय
और गौरवान्वित होंगे हम अपनी सभा में उनकी उपस्थिति से

एक बार फिर-
शब्दों के उडऩ खटोले पर बिठा
वे ले जाएंगी हमें संसद के गलियारे में
जहां पुरुषों के अहं से टकराएगा ३३ प्रतिशत का मुद्दा
और चकनाचूर हो जाएंगे फिर उसमें निहित हमारे सपने

एक बार फिर-
पुराने आंकड़े को भूल हम करेंगे प्रस्तुत नए आंकड़े
दहेज,हत्या,अपहरण, बलात्कार, वेश्यावृत्ति, यौन उत्पीडऩ के
और लेंगे दर्जनों प्रस्ताव इनके उन्मूलन के लिए

एक बार फिर-
हमारी चर्चाओं से होकर गुजरेंगी
इंदिरा, बेनजीर, मेधा पाटकर, मदर टेरेसा और लक्ष्मीबाई

एक बार फिर-
अपनी ताकत का सामूहिक प्रदर्शन करते
हम गुजरेंगे शहर की गलियों से
पुरुष-सत्ता के खिलाफ हवा में मुट्ठी बंधे हाथ लहराते हुए

एक बार फिर-
सड़क किनारे खड़े लोग सेंकेंगे अपनी आंखें हमें देख
और रोमांचित हो बतियाएंगे आपस में कि
यार शहर में बसंत उतर आया!

एक बार फिर-
शहर के व्यस्ततम चौराहे पर इकट्ठे होंगे हम
और पुरुष वर्चस्ववादिता को ललकारते
लगाएंगे खोखले नारे
नए-नए संकल्पों को मुट्ठियों में बांधे

एक बार फिर-
हमारा मुंह चिढ़ाते आंदोलन को ठेंगा दिखाएंगी
पोस्टरों से झांकती ब्रा-पैंटी वाली सिने तारिकाएं
खुलेआम बेशर्मी से नायक की बाहों में झूलते हुए

एक बार फिर-
हमारे उत्तेजक नारों की ऊष्मा से
गर्म हो जाएगी शहर की हवा
और बहस की तेज आंच पर पकेंगे नपुंसक विचार

एक बार फिर-
धीरे-धीरे ठंडी पड़ जाएगी भीतर की आग
और छितरा जाएंगे हम चौराहे से
अपने पति और बच्चों के दफ्तर व स्कूल से
लौट आने की चिंता में...।

Thursday, March 10, 2011

मित्र उसे झाड़ते हुए रूमाल से चला गया

आज की कविता में निर्मल आनंद की विशिष्ट पहचान है लोक या ग्राम्य संवेदना का आधुनिकता बोध के साथ संश्लेषण प्रस्तुत करने में। खेती-किसानी से जुड़े निर्मल छत्तीसगढ़ में रायपुर जिले के कोमा-राजिम गांव के रहने वाले हैं। पढि़ए उनकी मित्र शीर्षक यह कविता-

मित्र/निर्मल आनंद

चमचमाती कार में दस साल बाद गांव आए हैं मित्र
बड़े अफसर हो गए हैं भीतर बाहर से
उनकी बातों से नहीं आती जरा भी गंवईहापन की बू
वे हिंदी बोलते-बोलते अंगरेजी बोल पड़ते हैं
मुंह ताकते रह जाते हैं गांव के लोग
गोरा बदन आंखों पर धूप का चश्मा
और कलाई पर सुनहरी डायल की
घड़ी चमक रही है

कौन कहेगा यह वही बसंत गुरुजी का लड़का है
जो कभी इन्हीं गलियों में भंवरा, बांटी, गिल्ली-डंडा
और धूल से खेलकर बड़ा हुआ है
कौन कहेगा मैं उसका लंगोटिया यार हूं
जो बचपन में नंगे नहाते तालाब में डुबक-डुबक कर
बगीचे में साथ-साथ चुराते अमरूद
पकड़े जाने पर पिटते रखवार के हाथों दोनों

कौन करेगा यकीन कि मेरे घर में दोनों
एक ही बटकी में खाते बासी और उसके घर में मैं सब्जी-रोटी
आठवीं क्लास के बाद बिछड़े और मिले हैं आज
वही मित्र बमुश्किल से दो मिनट के लिए पधारे मेरे घर
और एक गिलास पानी तक नहीं पीया
निकल गए नाक-भौं सिकोड़ते

उसके कपड़े से महंगी इत्र की खुशबू आ रही थी
मेरे कपड़े से पसीने की तेज गंध
गांव बार-बार धूल की शक्ल में
उसके कपड़े से लिपट रहा था
मित्र उसे झाड़ते हुए रूमाल से चला गया
वापस शहर
कहीं उसे डस्ट एलर्जी न हो जाए।

Wednesday, March 9, 2011

बहुत कुछ बोल देती है यह नज्म

जिसे लोग देखते और महसूस करते हैं, उसके बारे में निदा फाजली की यह नज्म बहुत कुछ बोल देती है। बीते दौर का एक बयान है यह नज्म। वह जख्मी दौर, जो इतिहास में दर्ज हो चुका है और कुछ लोग आज भी इस फितरत में लगे हैं कि उसकी वापसी हो...

एक राजनेता के नाम/निदा फाजली

मुझे मालूम है!
तुम्हारे नाम से
मन्सूब हैं-

टूटे हुए सूरज
शिकस्ता चांद
काला आसमां
कर्फ्यू भरी राहें
सुलगते खेल के मैदान
रोती-चीखती मांएं

मुझे मालूम है
चारों तरफ
जो ये तबाही है
हुकूमत में
सियासत के
तमाशे की गवाही है

तुम्हें-
हिन्दू की चाहत है
न मुस्लिम से अदावत है
तुम्हारा धर्म
सदियों से
तिजारत था, तिजारत है

मुझे मालूम है लेकिन
तुम्हें मुजरिम कहूं कैसे
अदालत में
तुम्हारे जुर्म को साबित करूं कैसे

तुम्हारी जेब में खंजर
न हाथों में कोई बम था
तुम्हारे साथ तो
मर्यादा पुरुषोत्तम का परचम था।

Tuesday, March 8, 2011

उपदेश नहीं सलाह

कवि कभी किसी धर्मगुरु की तरह उपदेश नहीं देता, वह हमेशा दोस्त की तरह सलाह देता है। पढि़ए मशहूर शायर निदा फाजली की ऐसी ही एक खूबसूरत दोस्त-गजल...

गजल/निदा फाजली

सफर को जब भी किसी दास्तान में रखना
कदम यकीन में मंजिल गुमान में रखना

जो साथ है वही घर का नसीब है लेकिन
जो खो गया है उसे भी मकान में रखना

जो देखती हैं निगाहें वही नहीं सबकुछ
ये एहतियात भी अपने बयान में रखना

वो एक ख्वाब जो चेहरा कभी नहीं बनता
बना के चांद उसे आसमान में रखना

चमकते चांद-सितारों का क्या भरोसा है
जमीं की धूल भी अपनी उड़ान में रखना

सवाल तो बिना मेहनत के हल नहीं होते
नसीब को भी मगर इम्तिहान में रखना

Monday, March 7, 2011

वक्त पे घर क्यों नहीं जाता

हिंदी और उर्दू को धूप-छांह की तरह जिस शायर ने एक-दूसरे के बेहद करीब किया है, बेशक वह निदा फाजली ही हैं। बहुत सहल भाषा में बहुत गहरी बातें उनकी शायरी की खूबी है। जैसे कि यह गजल-

गजल/निदा फाजली

बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुजर क्यों नहीं जाता

सब कुछ तो है क्या ढूंढती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक्त पे घर क्यों नहीं जाता

वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहां में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता

मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता

वो ख्वाब जो बरसों से न चेहरा, न बदन है
वो ख्वाब हवाओं में बिखर क्यों नहीं जाता

Sunday, March 6, 2011

अपनी-अपनी मुंबई

जो मुंबई के बाहर रहते हैं और टीवी पर नजारा लेते हैं, उनमें बहुतों के लिए मुंबई दलाल स्ट्रीट लगती है तो बहुतों को फिल्मी दुनिया। लेकिन अभी दो दिन पहले जब टीवी के पर्दे पर बांद्रा के गरीबनगर को भस्मीभूत करने वाली आग की लपटें दिखाई पड़ीं तो मुंबई का एक और भी चेहरा नजर आ गया। अब मुंबई में ही रहने वाले विख्यात शायर निदा फाजली की इस शहर पर लिखी यह नज्म भी पढ़ लीजिए-

बम्बई/निदा फाजली

यह कैसी बस्ती है
मैं किस तरफ चला आया
फजा में गूंज रही हैं हजारों आवाजें
सुलग रही हैं हवाओं में अनगिनत सांसें
जिधर भी देखो
खवे, कूल्हे, पिंडलियां, टांगें
मगर कहीं-
कोई चेहरा नजर नहीं आता!

यहां तो सब ही बड़े-छोटे अपने चेहरों को
चमकती आंखों को, गालों को, हंसते होठों को
सरों के खोल से बाहर निकाल लेते हैं
सवेरे उठते ही
जेबों में डाल लेते हैं!

अजीब बस्ती है!
इसमें न दिन, न रात, न शाम
बसों की सीट से सूरज तुलूअ होता है
झुलसती टीन की खोली में चांद सोता है

यहां तो कुछ भी नहीं!
रेल और बसों के सिवा
जमीं पे रेंगते बेहिस समंदरों के सिवा
इमारतों को निगलती इमारतों के सिवा
ये कब्र-कब्र जजीरा किसे जगाओगे
खुद अपने आप से उलझोगे, टूट जाओगे
यहां तो कोई भी चेहरा नजर नहीं आता!
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खवे-कंधे, तुलूअ-उदय, बेहिस-चेतनाशून्य, जजीरा-द्वीप

Saturday, March 5, 2011

याद है...

चुपके-चुपके रात-दिन...गजल को गाकर गुलाम अली साहब ने खूब लोकप्रिय कर दिया है, लेकिन कुछ ही लोगों को पता होगा कि इसका शायर कौन है? यह गजल उर्दू के मशहूर कवि हसरत मोहानी की है। 1875 ई. में यूपी के उन्नाव जिले में मोहान में जन्मे सय्यद फजलुल हसन एक शायर, पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में हसरत मोहानी नाम से जाने गए। आजादी के बाद 1951 ई. में लखनऊ में उनका इंतकाल हुआ। मौलाना हसरत मोहानी सूफी थे और पक्के कृष्ण भक्त भी। यह जो आजकल बड़े अहमकाना तरीके से हिंदू-मुसलमान किया जाता है, तब के समझदार लोगों में बिल्कुल नहीं था। हसरत मोहानी तो खैर मथुरा-ब्रिंदावन की तीर्थयात्रा भी करते रहते थे। उन्होंने लिखा है-
मथुरा में भी कुबूल हो हसरत की हाजिरी
सुनते हैं आशिकों पे तुम्हारा करम है खास।

अब उनकी यह गजल भी पढ़ लीजिए-

चुपके-चुपके रात-दिन आंसू बहाना याद है
हमको अबतक आशिकी का वह जमाना याद है

खींच लाना वह मेरा पर्दे का कोना दफअतन
और दुपट्टे से तेरा वह मुंह छिपाना याद है

गैर की नजरों से बचकर सबकी मर्जी के खिलाफ
वह तेरा चोरी-छिपे रातों को आना याद है

आ गया गर वस्ल की शब भी कहीं जिक्रे-फिराक
वह तेरा रो-रो के मुझको भी रुलाना याद है

दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
वह तेरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है

Friday, March 4, 2011

सबसे पहले स्त्रियों को ही धन्यवाद!

1989 में छपे अपने पहले ही कविता संग्रह प्रार्थना के शिल्प में नहीं से चर्चित-प्रतिष्ठित देवीप्रसाद मिश्र अपेक्षाकृत लंबी कविताओं के कवि हैं। उनकी कविताओं में हमारे समय का संकट बहुत शिद्दत से महसूस किया जा सकता है। पढि़ए उनकी यह कविता-

एक मुलायम धरती के लिए /देवीप्रसाद मिश्र

हमें नदियां नहीं खोदनी पड़ीं
न ही हमारे पुरखों को
फिर भी वे थीं वे हैं

हवा को हम किसी कोटर से नहीं लाए
वह थी। वह है।

दूब हमने नहीं बोई
समुद्र को नीला रंग हमने नहीं दिया

जामुन कसैली हो
कैथा खट्ïटा
आम खट्ïटा या मीठा
अनन्नास खटमिट्ठा
महुआ मादक हो- इसके लिए हमने कुछ नहीं किया

बबूल को काला और युक्लिप्टस को सफेद
हमने नहीं बनाया
आल्प्स आकाश और अमीबा
काली मिट्ïटी, अफ्रीका और अंटार्कटिका
शिवालिक, और ब्रह्मपुत्र
सतलज और सरपत

बकरियां, तितलियां, तेंदुआ
सोयाबीन और पेंगुइन
नरकुल और सरसों के फूल
चील, चरागाह और अबाबील
तिल, मधुमक्खियां और भील
दजला, फरात, हाथीघास
अरहर, कास और कपास
टिड्डे, बछड़े, घोड़े और कौए हमने कुछ नहीं बनाए

संसार की बहुत अद्ïभुत और बहुत अच्छी चीजें हमने नहीं बनाईं
फिर भी वे थीं। वे हैं।

तो अब हमें जो करना है बहुत कम है
लेकिन आसान नहीं है
कि मकान और कब्र के लिए उतनी ही जगह मिले सबको
उतने ही सिक्के मिलें
उतनी ही तितलियां
शहद और शक्कर पर उतनी ही हकदारी हो सबकी

सबके हिस्से का सूखा और शीत और पतझड़ समान हो
समान हो सबका वसंत और हरापन

उतना ही इंद्रधनुष
उतना ही सन और उतना ही सूत
उतना ही अन्न और उतना ही अम्ल
उतना ही जल सबको मिले

मेरे छालों के लिए क्योंकि असंख्य छालों के लिए जरूरी हो गया है
कि रुई के फाहों की तरह मुलायम हो पृथ्वी की पीठ
क्योंकि सिर्फ इतने तक के लिए नहीं थी पृथ्वी
कि पैरों में नाल ठोककर हम दौड़ते रहें घोड़ों की तरह
क्योंकि डरावने सहवासों के लिए ही नहीं थी पृथ्वी
क्योंकि सिर्फ घुटनों में सिर डालकर औरतों के सुबकने
                                               के लिए ही नहीं थी पृथ्वी
जैसे शहर सिर्फ आत्महत्याओं के लिए नहीं बने थे

अब भी एक ऐसी पृथ्वी है जो बची रह गई है
सेनानायकों, सामंतों और साम्राज्यों से
दो महायुद्धों से, महलों और मकबरों से
जो लगता है बची रहेगी राजनीतिज्ञों और दीमकों से
तो धन्यवाद! जिनके कारण पृथ्वी पृथ्वी है उन्हें धन्यवाद
इसलिए सबसे पहले स्त्रियों को ही धन्यवाद

जो पृथ्वी को कच्चे घड़े और गर्भस्थ शिशु की तरह
सहेजते हैं उन्हें धन्यवाद

जो चाय की पत्तियां चुनते हैं सुखाते हैं
मनुष्य और पृथ्वी के ठंडे होने के विरुद्ध
जो आरंभिक कार्रवाई हैं
उन्हें धन्यवाद

जो सबसे अच्छी तरह से खेलते हैं और सबसे अच्छी तरह से
लड़ते हैं उन्हें धन्यवाद
विवियन रिचर्ड्स को धन्यवाद

जिसके कारण पृथ्वी अपनी धुरी पर नाचती है
जो पृथ्वी का ईंधन है
जिसका पसीना पेट्रोल की तरह महकता है
बस्तर के उस कबायली को धन्यवाद

इस पृथ्वी पर हम कुछ मुलायम हरकतें करना चाहते हैं
कुछ लीलाएं
जैसे प्यार।

जरूरी है प्यार और प्यार के लिए पृथ्वी पर थोड़ी सी जगह
बहुत थोड़ी जगह। दीया भर जगह।
जितनी दर्जी को कपड़ा सीने के लिए चाहिए
मोची को जूता बनाने के लिए

जैसे जमीन पर फिलिस्तीन थोड़ी सी जगह चाहता है
थोड़ी सी जगह हम भी अपने प्यार के लिए चाहते हैं

जरूरी है प्यार
जैसे दुनिया के ग्लोब पर फिलिस्तीन जरूरी है।

Wednesday, March 2, 2011

बैटरी का हनुमान उठा रहा है प्लास्टिक का पहाड़

इसी वर्ष अपनी कथाकृति के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित बहुचर्चित लेखक उदय प्रकाश सर्वाधिक पठित, प्रशंसित और लोकप्रिय कथाकार तो हैं ही, लेकिन वे मूलत: और प्रथमत: कवि ही हैं। पढि़ए उनकी एक कविता-

बचाओ /उदय प्रकाश

चिंता करो मूर्धन्य- ष की
किसी तरह बचा सको तो बचा लो- ङ
देखो, कौन चुराकर लिए चला जा रहा है खड़ी पाई
और वर्णमाला के सारे अंक
जाने कहां चला गया ऋषियों का- ऋ

चली आ रही है इस्पात, फाइबर और अज्ञात यौगिक
धातुओं की तमाम अपरिचित-अभूतपूर्व चीजें
किसी विस्फोट के बादल की तरह हमारे संसार में
बैटरी का हनुमान उठा रहा है प्लास्टिक का पहाड़
और बच्चों के हाथों में बोल रही है कोई
डरावनी चीज- डींप...डींप...डींप...

बचा लो मेरी नानी का पहियों वाला काठ का नीला घोड़ा
संभाल कर रखो अपने लट्टू
पतंगें छुपा दो किसी सुरक्षित जगह पर

देखो...हिलता है पृथ्वी पर
अमरूद का अंतिम पेड़
उड़ते हैं आकाश में पृथ्वी के अंतिम तोते

बताएं सारे विद्वान
मैं कहां पर टांग दूं अपने दादा की मिरजई
किस संग्रहालय को भेजूं पिता का बसूला
मां का करधन और बहन के बिछुए मैं
किस सरकार को सौंपूं हिफाजत के लिए

मैं अपील करता हूं राष्ट्रपति से कि
वे घोषित करें
खिचड़ी, ठठेरा, मदारी, लोहार, किताब, भड़भूजा,
कवि और हाथी को
विलुप्तप्राय राष्ट्रीय प्राणी

वैसे खड़ाऊं, दातून और पीतल के लोटे को
बचाने की इतनी सख्त जरूरत नहीं है
रथ, राजकुमारी, धनुष, ढाल और तांत्रिकों के
संरक्षण के लिए भी किसी कानून की जरूरत नहीं है इतनी

बचाना ही हो तो बचाए जाने चाहिए
गांव में खेत, जंगल में पेड़, शहर में हवा,
पेड़ों में घोंसले, अखबारों में सच्चाई, राजनीति में
सिद्धांत, प्रशासन में मनुष्यता, दाल में हल्दी

क्या कुम्हार, धर्मनिरपेक्षता और
एक-दूसरे पर भरोसे को बचाने के लिए
नहीं किया जा सकता संविधान में संशोधन

सरदार जी आप तो बचाइए अपनी पगड़ी
और पंजाब का टप्पा
मुल्ला जी, उर्दू के बाद आप फिक्र करें शोरबे का
जायका बचाने की

इधर मैं एक बार फिर करता हूं प्रयत्न
कि बच सके तो बच जाए हिंदी में कविता।

Tuesday, March 1, 2011

अब तो पूरी शिद्ïदत से कोई लड़ता भी नहीं

राजेश जोशी हमारे वक्त के बहुत ही भरोसे के कवि हैं। उतने ही जबरदस्त गद्यकार भी। उनकी कविता जीवन-संघर्ष में शामिल हमारे बीच की वह जरूरी आवाज है, जिसे कतई अनसुना नहीं किया जा सकता। पढि़ए उनकी एक कविता...

प्लेटफार्म पर / राजेश जोशी

आवारगी के उन दिनों में जब देर रात लौटने पर
बंद हो जाते थे घरों के दरवाजे
गुजारी हमने कई-कई रातें प्लेटफार्म पर चहलकदमी करते हुए।

देर रात जब सुनसान होते हैं प्लेटफार्म और
बहुत कम गुजरती हैं रेल गाडिय़ां
दूर आसमान में टहलता रहता है बांका चांद
खाली पटरियों पर बीच में शंटिंग करते रहते हैं इंजन
ठंडी होती हुई रात के सन्नाटे में गूंजती है
इंजन की तेज सीटी और पहियों का संगीत।

ऊंघते हुए चायवाले, टिकिट कलेक्टर, इंजन ड्राइवर, गार्ड और
पटरियों की देखभाल करने वाले मजदूर हाथ में लालटेन लिए
अलग-अलग कोनों में खड़े बतियाते हैं।
उनकी फुसफुसाहटों और इक्का दुक्का यात्रियों के बीच
उस छोटे स्टेशन पर मटरगश्ती करते
गुजारी हमने कई रातें।

हर दिन लंबी होती सड़कों और बड़े होते शहरों में अब
कम होता जा रहा है चलन किसी को लेने आने या
छोडऩे जाने का।
झर रही है स्वीकृत होती जाती व्यवहारिकता में
सम्बंधों की गर्माहट आत्मीयता!

अब तो पूरी शिद्ïदत से कोई लड़ता भी नहीं
शिष्टïता के पाखंड और औपचारिकता के बीच बहुत खामोशी से
चलती है ठंडी कटुता की दुधारी छुरी।

उदासी बढ़ रही है कस्बों में और शहरों में उदासीनता!

आवारगी करते, व्यर्थ भटकते हुए प्लेटफार्म पर
हर आती-जाती ट्रेन की खिड़कियों से झांकते लोगों को हिलाए
                                                                                   हमने हाथ
दूर तक तलाशे होंगे उन लोगों ने हमारे अपरिचित चेहरों में
अपने स्वजनों के चेहरे!

दिनो दिन ठंडी होती जाती मन में बची आंच ने
कुछ पल को कुरेदा होगा जरूर
कुछ लोगों का मन!