साथ-साथ

Friday, January 29, 2010

दीवारें टूटेंगी

बांटा, उसने बांटा
आदम को
धरती को
एक नहीं सौ बार
हजारों टुकड़ों में बांटा !
तुम्हें भेजकर मंदिर
उसे भेजकर मस्जिद
खा गया सारा आटा !
जाग सबेरे, दे अजान
तू चीख, जोर - जोर से कीर्तन-गान
मगर नींद से नहीं उठेगा
तेरा पत्थर का भगवान
वह नहीं जानता
दिल की धड़कन
और खून का बहना
पत्थर से पत्थर टकराओ
टूटेगा सन्नाटा -
नई राह निकलेगी,
फूटेगा झरना,
बुझेगी प्यास,
चहकेंगी चिड़ियाँ,
एक गीत जन्मेगा
पत्थर से पत्थर टकराओ -
टूटेंगी दीवारें !   दीवारें टूटेंगी

3 comments:

  1. पत्थर से पत्थर टकराव....बहुत कमाल की सोच....अच्छी ही नहीं बहुत अच्छी रचना...बधाई
    नीरज

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  2. वह तोड़ती पत्थर , इलाहाबाद के पथ पर . इस कविता को पढने के बाद निराला की यह कालजयी पंक्तियाँ याद आ गयीं. .बहुत गरीबी में बचपन बीता. बड़े होने पर पड़ोसी नगर अयोध्या में पत्थरों की झनझनाहट सुनते हुए बड़ा हुआ. अरविंद की कविता पढ़ कर ऐसा लगा कि मेरी ही बात कह दी. यह एक बड़ी कविता है .

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  3. बहुत अच्छी रचना...बधाई

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