साथ-साथ

Thursday, December 31, 2009

छप्पर की छाया तले

सुबह हो गयी दोपहर हुई दोपहर शाम ।

वह खटता है खेत में तू जपता है राम ॥

बैठ पेड़ की छाहँ में रोया बहुत किसान ।

सौ सपनों की कब्र है मालिक का खलिहान ॥

मालिक तेरे खेत में मेहनत अपनी बाँझ ।

सूर्योदय हम चाहते , नहीं अँधेरी सांझ ॥

कहाँ बजेंगी ढोलकें, कहाँ पड़ेगी थाप ।

हरियाली से दिल जले निकले कुँए से भाप ॥

सूना चौबारा पडा, सूनी है चौपाल ।

आब गया अब गाँव का आल्हा - ढोलक - ताल ॥

लूट मची है गाँव में घर - घर हाहाकार ।

तू बहरा - खामोश है तुझको सौ धिक्कार ॥

छप्पर की छाया तले कटते बारह मास ।

यह छाया ही जानती मौसम का इतिहास ॥

Tuesday, December 29, 2009

मौसम है मनमोहन जैसा

मौसम है मनमोहन जैसा

सबकुछ हो गया ग्लोबल - ग्लोबल, लोकल जैसा - तैसा ।

ख़बर रसीली बड़ी नशीली सैफ - करीना जैसी,

चैनल - चैनल मस्ती छाई, देखो गदह पचीसी ।

ठंडी जेब, तबीयत ठंडी, मन - मिजाज़ है ठंडा,

लोग पहेली बूझ रहे हैं पहले मुर्गी या अंडा ।

बड़े ठसक से बैंक गए थे सूरत हो गयी रोनी,

नकली नोट मिल गए भइया क्या होनी - अनहोनी ।

खेत बिक गए, भैंस बिक गयी, छुट्टा घूमे भैंसा

हम भी यहीं आप भी यहीं हुआ तमाशा ऐसा ॥

Sunday, December 20, 2009

जब आप खर्राटे भरते रहे

आप तो सीधी सड़क पर

गाडी दौडाना जानते हैं ।

मत पढ़िए कविता

पता नहीं कहाँ - कहाँ तक

घसीट ले जाएगी, भद्रजन !

खतरनाक चीज है यह

अपनी रफ़्तार में फ़ेंक सकती है

गाड़ी को पटरी के बाहर,

आप तो बस जमाए रहिये कारोबार

करते हुए

बंगला - गाड़ी - राजनीति

औरत और बच्चों का जाप

मगर मत पढ़िए कविता

जिंदगी में खलल पैदा करेगी, कमबख्त ।

मसलन, एक लड़की

अपनी अच्छी उम्र तक

खाती रही नौकरी की मार

नहीं कर पाई प्रेम

मसलन, एक आदमी

कारोबार की फ़िक्र के साथ

इस चौकीदारी पर तैनात रहा

की बच्चों को लगने न पाये कविता की छूत

रात भर कविता का भूत

सताता रहा उस लड़की को

जो नौकरी के बजाय नहीं कर पाई प्रेम

और करवट बदल कर सुबकती रही

उम्र गुजर जाने के बाद

रातभर इस बेगानी दुनिया में

जब आप खर्राटे भरते रहे !

Friday, December 18, 2009

शहर एक दुहस्वप्न

जब मैं नहीं था

कहाँ था शहर !

इस तरह तो नहीं था

मैं हूँ शहर में

और मेरे भीतर धंसा है शहर

मेरे जेहन में

मेरे लहू में

मेरी साँस में

कूट - कूटकर भर गया है

बाईं पटरी पर चप्पल घसीटता

चौराहे पर ठिठका

हडबडी में रास्ता पार करता

बेतहाशा दौड़ता - भागता - हांफता

पसीने से लथपथ

धक्के खाता शहर

जब मैं नहीं था

कहाँ था !

आमसभा में भकुआया

भाषण सुनता

मूगंफली टूंगता

तालियाँ पीटता

जुलूस में चिन्चियाता

दफ्तर में देर से पहुंचकर

अफसर की डाट खाता

सर झुकाए सारी सर बोलता

मिमियाता कहाँ था शहर

जब मैं नहीं था ...

जब मैं नहीं था

सड़क पर ऐसी ही रोशनी थी

और पार्क में ऐसा ही अन्धेरा ?

क्या पता !

सिनेमाघर में ऐसी ही फुसफुसाहट थी

बगल की कुर्सी पर - अंधेरे में ?

क्या पता !

जब मैं नहीं था शहर में

जेब भी कहाँ कटी थी इस तरह !

इतना तो मैं डरता नहीं था कभी

सच बोलने में

बेपरदा होने का डर कहाँ था

जब मैं नहीं था शहर में !

इतनी उमस नहीं थी

जब मैं नहीं था

मच्छरदानी के नीचे

इस तरह भागती नहीं थी नींद

जैसे भागती है मच्छरदानी से छन कर ।

दुह्स्वप्नों के पहाड़ का बोझ लिए

छाती की पसलियों को चरमराता

दबोचता है शहर -

एक राक्षस का पंजा कसता है गले पर

ऐसे तो हडबडाकर

बीच में नहीं टूटती थी नींद !

भोर के सपनों को

तेज धार वाली सीटी से चीरती

धडधडाती गुजर जाती है ट्रेन

इसी ने तो ला पटका था मुझे यहाँ

फिर कहाँ आती है नींद !

...........

शहर तो था ही

जब मैं नहीं था

कैसा था मगर

कोई नहीं जानता -

सब जानते हैं सिर्फ़ अपना -अपना शहर

शहर सबका कहाँ होता है -

अपने - अपने सपने की तरह

शहर का अपना - अपना बोझ होता है

शहर की अपनी - अपनी छाया ,

कौन भाग पाता है शहर से भला अपना पीछा छुडाकर

अपने सपनों का बोझ कौन उतार पाता है !

क्या आपके कंधे

मेरी ही तरह

दुखने लगे हैं ?

मेरे सपने यहीं दफन हैं

यही है मेरे सपनों की कब्रगाह

अभी-अभी टूटी है नींद

अभी-अभी उठा है मेरी छाती से

दुह्स्वप्नों के पहाड़ वाला भीमकाय राक्षस

यही मौका है

अंधेरे के बावजूद

दुबारा सवार हो

वह मेरी छाती पर

इससे पहले मुझे बिस्तर छोड़

उठ ही जाना होगा ,

मुझे खोद डालनी है

सपनों की यह कब्रगाह

यहीं दफन हो गए हैं सारे लोकगीत ।

यह कैसी आहट है अंधेरे में -

क्या और भी कुदालें चल रहीं हैं ?

मुझे खोदते ही चले जाना है

बेकार है इन्तजार

सुबह के होने का !

मौसम और सीजन

एक अपाहिज घसीटता चलता है शहर

समूचा दिन - सुबह-शाम - रोज-ब-रोज

पहाड़-सा ढोता है

महीना और साल,

बाघनख-सा उधेड़ देती है तारीख

उसकी दिनचर्या

आंखों के सामने

चिमनी का धुंधलका

छा जाता है ।

दर्द-सा उठती है ऊंची मीनार

वह गांठता है तार-तार

अपना अस्तित्व

मगर सुई से धागा

बार-बार निकल जाता है ।

तब भी कुछ लोग

पतंग-सा उड़ाते हैं

हाथों में डोर थामे,

वे बुनते हैं

स्वेटर-सा रंग-बिरंगा मौसम

उनके लिए

समय और आइसक्रीम

दोनों एक जैसे हैं ।

जिनके लिए

ठण्ड कारोबार है

बरसात है सीजन

और गरमी -

धुप में चिलचिलाते किसी नुक्कड़ पर

गुमटी के घड़े में भरे ठंडे पानी का धर्मादा

उनके लिए

मौसम की कविता

मुनाफे की चीज भला कैसे हो सकती है !

Thursday, December 17, 2009

अजब प्रेम की गजब कहानी

अजब प्रेम की गजब कहानी ।

लोकतंत्र का गला सूखता जनता पानी - पानी ॥

रामदास को हुई रतौंधी रहीम की गूंगी बानी,

गावं - गली में भूख बिराजै मिले न दाना - पानी ॥

ठेकेदारी धन सरकारी ले गए दिलवर जानी,

कुछ बैठे भोपाल - लखनऊ कुछ दिल्ली रजधानी ॥

ऐ के सैंतालिस, गाड़ी क्वालिस, आंखों में शैतानी,

डंडा - झंडा, हर हथकंडा, बोले मधुरी बानी ॥

आज माफिया कल को मंत्री यह भविष्य की बानी,

ना जाने किस भेष में आए, जो बूझे सो ग्यानी ॥

Wednesday, December 16, 2009

आज कोई कविता नहीं

आज कोई कविता नहीं । उसकी जगह उन सभी सम्मानित रचना धर्मियों - कर्मियों, कविता प्रेमियों - मर्मियों को मैं ह्रदय से कृतज्ञता व्यक्त करना चाह रहा हूँ जिन्होंने मेरी कवितायेँ पढ़ी और अपनी आत्मीय टिप्पणी से मेरा यह भरोसा मजबूत किया की तुमुल कोलाहल कलह के बीच भी बिना शोर किए आवाज़ में असर पैदा किया जा सकता है। उन सम्मानितों का नाम लूँ , इसके पहले एक छोटा प्रसंग - कोलकाता के जनसत्ता में जब सबको कंप्यूटर पर काम करना जरूरी किया जा रहा था, तब हमारे प्रधान सम्पादक प्रभाष जोशी ने मुझसे पूछा - कविता कठिन है या कंप्यूटर ? मेरा जवाब था - बेशक कविता कठिन है । हालांकि मुझे कंप्यूटर भी तब कठिन लग रहा था और आज भी बस कामचलाऊ मामला है।
दोस्तों, मैं यह मानता हूँ की कविता तभी तक लिखी जा सकती है , जबतक उसे पढने वाले हैं - ठीक वैसे ही जैसे गाये और सुने न जाएँ तो गीत कैसे लिखे जा सकते हैं ? यानी रचना लिखने और पढने-सराहने वाले की साझेदारी में ही सम्भव है । इसलिए मैं उड़न तश्तरी वाले समीर लाल, अफलातून, आवेश तिवारी, पंकज पराशर, राजेश उत्साही, शरद कोकास, डाक्टर राधेश्याम शुक्ल, मधुकर राजपूत, अजित वडनेरकर, परमजीत बाली, लोक्संघर्ष वाले सुमन जी, नीरज गोस्वामी, अनिल कान्त, वानीगीत, देवेन्द्र खरे, मनोज कुमार, अलका सारावत, अंशुमाली रस्तोगी, दिनेश दधीची, पीसी गोदियाल, प्रवाह वाले पंकज जी, अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी, प्रवीण त्रिवेदी, शेष नारायण सिंह, निर्मला कपिला, रजनीश परिहार, भंगार, घुघूती बासूती, अलबेला खत्री, राजेय शा, एम् वर्मा, मिथिलेश दुबे, अजय कुमार, अरुण सी रॉय, अमित के सागर, मनोज कुमार सोनी, नारद मुनि, विजय कुमार कुशवाहा, अमलेश राय - को अपनी कविताओं का साझीदार मानकर आभार जताता हूँ । कुछ मित्र तो मेरे ब्लॉग के फालोवर ही बन गए हैं - सबका आभारी हूँ , उनका भी - जिन्होंने कविताएँ पढ़ी तो होंगी मगर अपनी राय नहीं दे सके ।
कल फिर कविता लेकर हाज़िर होऊंगा। नमस्ते दोस्तों !

Tuesday, December 15, 2009

तानाशाह का जन्म

राजा परेशान था

और बेनींद

परेशान था की

जनता अयोग्य हो गयी है

भला जाहिलों का प्रतिनिधि होकर

उसे कैसे आ सकती थी नीद !

और ठीक इसी तरह पैदा हो गया तानाशाह ।

एक राजा के सपनों में

जाहिलों की ताकझांक

क्या बर्दाश्त की जा सकती है ?

हरगिज़ नहीं, श्रीमान !

और ठीक इसी जगह पैदा हो गया तानाशाह ।

उस वक्त रात के कोई बारह बजे होंगे

जब बेनीद सूजी आंखों वाले राजा ने

एक गिलास पानी पीया होगा,

राजा को महसूस हुआ की

पानी से भरे गिलास पर भी

जाहिल प्रजा की उँगलियों की छाप है

यह तो हद है भई, गुस्ताखी की !

यह सूखे का वक्त था

भायं - भायं करते अकाल का

और राजा ठंडे पानी से गला तर कर रहा था

और गिलास पर अयोग्य जनता की

उँगलियों की छाप थी,

तो क्या राजा के सपने यूँ ही

बेनीद बेपनाह हो जाएँ ?

यूँ ही तो नहीं मिला है राज - काज !

और ठीक इसी वक्त पैदा हो गया तानाशाह ।

राजा ने मंत्रियों को खारिज किया

और संतरियों की बहाली कर ली

उसने हुक्म जारी किया की

उसके सपनों के चारों तरफ़

कंटीले तारों का घेरा खडा कर दिया जाए

बल्कि आदमकद से ऊंची

दीवारें ही खड़ी कर दी जाएँ,

एक भी जाहिल आदमी

सपनों में ताकझांक न कर सके

और राजा सो सके चैन से ।

आख़िर अयोग्य जनता को

खारिज करने का और उपाय क्या था !

Monday, December 14, 2009

फलसफा

फलसफा कब तक चलेगा

भूख भी औ नींद भी ।

इस मुहर्रम जिंदगी में

मौलवी क्या ईद भी !

गीत गाओ जिंदगी के

और कैसी शर्त है,

एक पिंजरा खूबसूरत

मुश्तकिल ताकीद भी ।

इससे बढ़कर आजतक

देखा नहीं अचरज कोई

ख़ुद तो वह बीमार है

पर बांटता ताबीज़ भी ।

Sunday, December 13, 2009

घोडा

यह दिन

बड़ा मायूस करता है मुझे, रूपा !

बेटे का जन्मदिन

और टूटा हुआ घोडा ।

अपना रथ

न जाने किस जगह जाकर रुकेगा

बेबस बिना लगाम का

छूटा हुआ घोडा ।

यह जिंदगी

क्या रंग लाएगी, कभी सोचो

जब बात सुनता ही नहीं

रूठा हुआ घोडा ।

सब जल चुकी हैं बस्तियां

डाकू चले गए

अब हिनहिनाता है, खडा

छूटा हुआ घोडा ।

Saturday, December 12, 2009

झारखंड की रात

गाँव का मालिक उनको कहता

बड़े अनाड़ी

मर्द पहाड़ी ।

हाथ में बंशी

सोई भैंस

बड़ी रात

सपनों का तैश

काँप रही जाड़े में काया

जलते ठीकरे

गरमी से लैस

दूर - दूर उठती - गिरती पर

राग पहाड़ी

थामे ताड़ी ।

मगर एक दिन

चिनगी उठी आग से

उसने बंशी के राग से

मुंह मोड़ा -

घोर अन्धेरा यह सन्नाटा

वह तोड़ेगा -

नंगे पाँव चुभ गया काँटा

बस, फेंका बंशी

कसकर मारी एक कुल्हाड़ी ।

जागा मालिक

कांपा मालिक

गरम दुशाला

ढांपे मालिक

- धीमी नाडी ।

खड़े पहाड़ी

अड़े पहाड़ी

बहुत अगाडी

बहुत पिछाड़ी

साथ खड़े थे

साथ अड़े थे -

मालिक साला

फ़ेंक दुशाला

हम नहीं अनाड़ी

मर्द पहाड़ी ।

Friday, December 11, 2009

पेड़ बरगद का

कहते हैं, बरगद के पेड़ के नीचे कुछ नहीं पनपता !

किसी भी बात पर वह कुछ नहीं कहता

अजब खामोश रहता है

मुझे वह पेड़ बरगद का

असल मनहूस लगता है ।

गाँव में सूखा पडा था

झुलसते थे पेड़ सारे

और धरती आह भरती थी

सूरज इस तरह तपता

की सारे रास्ते भी तप रहे थे

धुप के मारे

चूल्हा पड़ा रहता था उदास

माँ की छलछलाई आँख रहती थी

मगर वह पेड़ बरगद का

कभी भी कुछ नहीं बोला

ज़रा-सा भी नहीं डोला

अजब खामोश रहता है !

वह भी क्या बरसात थी

की एन मौके पर मरा था बैल दादा का

और दादी हुड़क-हुड़क कर खूब रोई थी

बादलों की मार ऐसी थी

की सारे बह गए छप्पर

सारा गाँव अपनी जान लेकर

दूर भागा था

मगर सर पर काले कौवों का लिए जमघट

बाढ़ के पानी में गर्दन तक गया था डूब

और तब भी पेड़ बरगद का रहा चुपचाप

अजब खामोश रहता है !

रातभर बुखार में

भोलू का तपता हुआ तन

दमे की खांसी रातभर काका की

रातभर आंखों में धुंआ हुई जाती

जागती काकी -

की जल्दी से सुबह हो जाय

इन बीमार रातों की

की इन नाउम्मीद सपनों की

कभी तो सुबह हो जाय -

कर्ज उतरे

बीमारियों से पिंड छूटे

झोपड़ी पर नया छप्पर चढ़ जाय

भोलू की बहू आ जाय

और दो बैल खूटे पर बंधे हों

झोपड़ी के पास,

- ये सपने

महज इतने

कभी पूरे हों

की इन नाउम्मीद सपनों की

कभी तो सुबह हो जाय !

भोलू ,

रात को तू उस मनहूस बरगद की ओर

तो नहीं गया था ?

मत जाना,

अँधेरी रात में गुमसुम

उस पेड़ में

बहुत पुराना भूत रहता है ।

न जाने कितने

बाढ़ - सूखा, बुखार - दमा

भूख और कर्ज और मौत

आए - गए

मगर वह पेड़ बरगद का

ज़रा-सा भी नहीं खडका

अंधेरे में

बहुत गुमसुम, बहुत चुपचाप

पड़ा है इस तरह

तेरे जनम के भी आठ जनम पहले से

मौसम से उसका हजार समझौता है

गाँव की पगडण्डी से

आदमी से , बैल से

बच्चों से , परिंदों से

बाढ़ से , सूखा से

भूख से , बीमारी से

अपनों से , सपनों से

उसका कोई नाता नहीं

गुमसुम चुपचाप ऐसा की

सारा गाँव चीख-चीख कर मर जाय

तब भी वह कुछ नहीं बोलेगा

ज़रा - सा भी नहीं डोलेगा

किसी भी बात पर वह कुछ नहीं कहता

अजब खामोश रहता है

मुझे क्या , सभी को वह पेड़ बरगद का

असल मनहूस लगता है ।

Thursday, December 10, 2009

ख़ुद के तुम दुश्मन

तुम्हारी बुद्धि मारेगी तुम्हारा मन

बनोगे ख़ुद के तुम दुश्मन

कैरियर का ग्राफ ऊपर तब उठेगा

जिंदगी के रंग से जब हाथ धो लोगे

भेद खोलोगे नहीं तुम

आग बुझने का

बस धुआं ऊपर उठेगा

और ऐसे धुंधलके में तुम

फिरोगे ख़ुद की छाया बन

तुम्हारी बुद्धि मारेगी तुम्हारा मन ...

तुमने अब तक कितनी रूई

धुन लिया प्यारे

बुन लिया ख़ुद के लिए

ऐसा चमकता जाल

की जिसको तोड़कर बाहर निकलना

नहीं मुमकिन, नहीं कोई हाल

अब नहीं गलती तुम्हारी दाल

ख़ुद के लिए तुमको मिला

यह आत्म निर्वासन-

तुम्हारी बुद्धि मारेगी तुम्हारा मन

बनोगे ख़ुद के तुम दुश्मन !

एक पुरानी कहानी

एक दीपक

रात भर जलता रहा, जलता रहा

घुप अँधेरा

बर्फ - सा

गलता रहा, गलता रहा ।

यह ख़बर

बिल्कुल न मिल पाए

प्रजा को मन्त्रिवर

एक दीपक

झूम कर

जलता रहा, जलता रहा ।

पता चलते ही

पलटकर यह सफा इतिहास का

सम्राट

मोतीजाल बस बुनता रहा ।

दीप ही जलने लगें

तो मुकुट चमकेगा कहाँ !

कौन था वह राजद्रोही

यह सबक देता रहा ।

गुप्तचर छोड़े गए हैं

तबसे उसकी टओह में

नहीं मिलता वह

न जाने किस जगह रहता रहा ।

आग का संगीत

तबसे गूंजता है

हर तरफ़

क्या कहूं

इतनी भयानक बात है, आलीजहा !

Wednesday, December 9, 2009

महानगर में निर्गुण

एक
कहीं - कहीं पर
अटक - अटक कर
कहीं - कहीं तो
भटक - भटक कर
यहाँ न पाया - वहाँ न पाया
मूरख जीवन व्यर्थ गंवाया !
सौ चेहरों का बोझ ढो रही
कैसी तेरी निर्मल काया -
देखो - देखो, बहुरुपिया आया !
दो
भक्ति - भाव से -
श्रद्धा के असली तनाव से
माथे पर पड़ गयी शिकन
माला पहन
भये यों गदगद
जैसे कोई परम दुधारू गाय।
सोभा बरनि न जाय !
तीन
ले - दे कर निपटाओ भाई !
खरे - खरे से काम न चलता
खोटा सिक्का चले शहर में
दूर की कौड़ी कहाँ से लाई ?
चुप्पा - चुप्पा फिरे जगत में
कोई न बूझे
अपनी धुन में -
उसने अपनी रीति चलाई
बंगला पाया - गाडी पाई
इत्ती बात समझ ना आई
मूरख, जीवन व्यर्थ गंवाया !
चार
संभल के चलो यार
ये तो शहर धक्कामार
चलो, मैं ही पहले
अडंगी मारकर बताता हूँ -
आगे कदम फूँक-फूँक कर
रखना, मेरे यार
ये तो शहर धक्कामार !

Monday, December 7, 2009

बकरियां और बच्चे

कुल जमा बारह बकरियां हैं - मेमनों समेत

एक औरत है

एक मर्द

और उनके कुल जमा छः बच्चे

बच्चे अदल - बदल कर

बकरियां चराने जाते हैं

दो बच्चे तो बिल्कुल मेमनों जैसे हैं

और छोटी लड़की

औरत के स्तन में मुह दिए

सोती रहती है

या चिचियाती रहती है - उस वक्त

जब औरत उसे अलग कर

रोटी सेंकने या पानी भरने

जैसा काम कर रही होती है ,

सुबह - शाम बच्चों का रोना

और बकरियों का मिमियाना

मिला - जुला आदतन अनुभव बन गया है

जिस पर ध्यान दिए बगैर

औरत अपने सर के बाल

खुजलाती रहती है

और मर्द पीता रहता है बीडी,

वह कभी कभी ही मुस्कराता है - औरत के साथ

जब बच्चे रोते नहीं होते

या बकरियां चुपचाप होती हैं

मगर , यह कभी कभी ही हो पाता है ।

उन दोनों को

देस- दुनिया की कोई ख़बर नहीं होती

बकरियां और बच्चों को छोड़कर

- अगर इन्हें भी देस-दुनिया में

शामिल कर लिया जाए तब !

उन्हें यह नहीं मालूम

की कलकत्ता और मुंबई

या बाकी शहरों में भी

बूचडखाने हैं,

इसीलिये कल

जब एक मेमना गुमसुम हो गया था

और पत्तियां नहीं खा रहा था

तब औरत रो रही थी

और मर्द बीडी नहीं पी रहा था,

यह बेवकूफी आप नहीं कर सकते

क्योंकि आप अखबार पढ़ते हैं

और जानते हैं की

हर जगह बूचड़खाना है।

Saturday, December 5, 2009

बिना छत का शहर

यार भी हैं लोग भी

चौरास्ते हैं और घर

क्या बात है की नहीं लगता

मुझे ये अपना शहर ।

मैंने सुना था ये शहर

है शरीफ लोगों का

कहते हैं मगर लोग

सुनो, है बड़ा बदनाम शहर ।

लोग कहते हैं मुसाफिर

बड़ा अनजान है तू

रोशनी की चाह छोड़

चलो उससे संभल कर ।

ताजुब है एक शानदार

इमारत की बगल में

बैठे हैं यहाँ छिपे हुए

कई - कई खँडहर ।

शुक्र कीजै की आसमान से

पत्थर नहीं बरसे

वरना किस हाल में होता

ये बिना छत का शहर !

Thursday, December 3, 2009

तीन तिलंगे

मेरे शहर के तीन तिलंगे

तीनों नंगे

गांधी के बन्दर - अवतार

तीनों छाप रहे अखबार

उपदेश ओढ़कर कारोबार

बढ़ती जाती जीवन की मार

फसल काटते शान्ति - प्रेम की

जब - जब होते दंगे ।

एक भरे गोदाम - तिजोरी

दूजे को कुर्सी प्यारी

और तीसरा मस्जिद - मन्दिर

का मौलवी - पुजारी

जनता भूख - भजन की मारी

जनता को खाए बीमारी

इसकी उनसे कैसी यारी

उनको लागे नगरी प्यारी

उनकी सेहत का क्या कहना

तीनों घूमें चंगे

तीन तिलंगे - तीनों नंगे !

Wednesday, December 2, 2009

पेट भी इक कब्र है

दुनिया तो है

बस आपसी चर्चाओं की ।

रेत की नदी में

ठहरी हुई नौकाओं की ।

ख्वाब मछलियों के

और मछुआरों - जालों का खौफ,

यह सदी है

कुछ बिगड़ी हुई हवाओं की ।

बेनीद बेपनाह बेगैरत बेलज्जत होकर

मर गयी तासीर

मेरे दौर की दुआओं की ।

दफन हो जाते हैं सपने

महज रोटी के लिए,

पेट भी इक कब्र है

इच्छाओं की ।

Tuesday, December 1, 2009

तुझे न आती शर्म ( सन्दर्भ - ६ दिसंबर )

मेरे मन में राम हैं, यही अयोध्या - धाम ।

तेरे मन में धाम है, तेरा कैसे राम ॥

तू चाहे की लोग सब चलें तुम्हारे साथ ।

चल शबरी की झोपडी, गह केवट का हाथ ॥

रावण की यह वासना भव्य स्वर्ण मय गेह।

तुलसी वहां न जाइए कंचन बरसत मेह॥

राम चले वनवास को सौंप भरत को राज ।

तू कैसा अनुचर हुआ तुझे चाहिए राज ॥

बाल्मीक - तुलसी रचे वही हमारे राम ।

हम उनको ही जानते , तेरे कबसे राम !

तू कहता तू भक्त है, तू ही जाने मर्म ।

राम नाम को बेचते तुझे न आती शर्म ॥

काशी में - अयोध्या में

मैं कहाँ जाऊं आख़िर !

इस शहर में फैल गयी है बीमारी

और उत्तर के कसबे में

रात - दिन हो रही हैं हत्याएं

पूरब की तरफ़ भी नहीं जा सकता

हफ्ते भर से वहाँ लगा है कर्फ्यू

अगर पच्छिम की बस्ती में जाता हूँ

तो हलाक कर दिया जाऊंगा ।

आख़िर कहाँ जाऊं मैं ?

मेरा नाम इश्वर नहीं है

न कोई मुझे खुदा पुकारता है

मैं हिन्दू हूँ या मुसलमान

कोई फर्क नहीं पड़ता

हर तरफ़ तो मची है मार - काट

इश्वर और खुदा में ।

मैं कैसे रहूँ इस काशी में - अयोध्या में

कोई भी कैसे रह सकता है

बचकर इस काबे में

कुत्ते की मौत मरने से पहले

मैं भरपेट खा लेना चाहता हूँ

ढाबे में ।

मैं कैसे बच सकता हूँ

रोज़ - रोज़ की तकरार से

हत्यारे इस तरह मार रहे हैं - प्यार से

की मैं अपना सर तोड़ रहा हूँ

नफ़रत की दीवार से ।

मैं कहाँ जा सकता हूँ आख़िर

आख़िर कोई भी कहाँ जा सकता है

निरोग रहने के लिए !

( सन्दर्भ ६ दिसंबर )