सुबह आँख मलती हुई, लिए कंपकंपी शाम ।
मन में गरमी भर सके जपो धुप का नाम॥
पाला पड़ता फसल पर दिल में जले अलाव ।
इस हरजाई ठण्ड को गाली देता गाँव ॥
पांवों में चुभने लगी सुबह - सुबह की दूब।
माली निकला बाग़ की हरियाली से ऊब ॥
बिस्तर में गठरी बनो डाले पेट में पाँव ।
सारे घर को ठण्ड ने बना लिया है ठांव ॥
बरगद कहे अधीर हो बर्फानी मत छेड़ ।
कुछ तो शर्म - लिहाज़ कर, अब मैं हुआ अधेड़ ॥
ठंडक बढती ही गयी कोहरे का फैलाव ।
लोग इकट्ठा हो गए जलते गए अलाव ॥
खांसी की ठकठक हुई जगी चिलम की आग ।
दिल से एक धुंआ उठा या पीड़ा का राग ॥
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