साथ-साथ

Thursday, July 28, 2011

आज नागार्जुन होते तो ऐसी कविता न लिखते

बस्तर के दुर्गम इलाके की यात्रा में एक आदिवासी से हुई मुलाकात को लेकर बाबा नागार्जुन ने 1973 में जैसी कविता लिखी थी, आज वे होते तो कुछ और ही लिखते। पढ़ लीजिए वह कविता...

शालवनों के निविड़ टापू में / नागार्जुन

हलबी और हिंदी का
हमारा दुभाषिया साथी
करने लगा उससे बातें

फूल बाबू के लिए चाहिए थी माचिस
पास की झोपड़ी से वह ले आया साबुत दिया सलाई
क्षण भर बाद वापस भी दे आया
फिर वो पैसे मांगने लगा इशारे से
हमने थमा दी अठन्नी...
यानी पचास पैसों वाला नया सिक्का
खुशी में चमकने लगीं माड़िया की आंखें
कहने लगा : जोहार! जोहार! जोहार साहब...

मुस्कुराकर बतलाया हमारे दुभाषिए ने-
(इत्ती-सी देर में उन दोनों में हो गई थीं जरा-मरा-सी बातें)
दस-पंद्रह वर्ष पहले यह दिल्ली गया था
आदिवासी लोकनृत्य वाली अपनी पार्टी के साथ...

मैंने जानना चाहा-
पूछो, उन दिनों कौन था दिल्ली का राजा?
नचाकर हथेलियां
अबूझ-सी पहेलियों में गुम हो गया बेचारा शबर-पुत्र!
क्या कहे! क्या न कहे!
नाम ले कौन-सा!
कौन-सा नाम न ले!
इतनी लंबी अवधि में स्मृति-पटल पर से धुल-पुंछकर
गायब हो चुके थे वे नाम...।
मैंने आखिर सुझाई चंद संज्ञाएं-
नेहरू, राजेंदर परसाद, राधा कृस्नन...
बोलो, कौन था उन दिनों दिल्ली का राजा...?
मालूम नहीं अपने को...
अपन को नइं मालूम...
डालकर भौंहों पर जोर बोला माड़िया अधेड़

और अगले ही क्षण
हथेलियों पर उछालता वही सिक्का
उतर गया सड़क के नीचे
खो गया शालवनों के निविड़ टापू में
माड़िया अधेड़।

बोला हमारा दुभाषिया मित्र-
(रविशंकर विश्वविद्यालय का एमए)
अपन इसके साथ दो रोज रह पाते!
काश, झोपड़ियों वाली इसकी बस्ती तक
पहुंच पाते अपन
रातों वाली अडूडेबाजी में साथ देते इसका
साखू के पत्तों वाले दोने में साथ-साथ पीते सल्फी
चखते भुना हुआ गोश्त सुअर का साथ-साथ
फिर शायद खुलकर बातें करता यह हमसे...।

और हम चारों जने
देखते रह गए शालवनों की उस पगडंडी की ओर
कम-से-कम दस मिनट तक देखते रहे
तैरती रहीं आरण्यक छवियां सूनी निगाहों में
लेकिन वह तो अब तक अलक्षित हो चुका था
जा चुका था गहरे निविड़ अरण्य की अतल झील के अंदर।

...स्टार्ट हुई हमारी जीप
बैलाडीला वाली उसी सड़क पर
दंतेवाड़ा से 55 किलोमीटर आगे...

 

Sunday, July 24, 2011

बरसाती मौसम के निशीथ में

साधारण में असाधारण को खोज निकालना बाबा nagarjun नागाजर्न की कविता की वह खासियत है, जो उन्हें अद्वितीय बनाती है। ऐसी ही एक कविता पढि.ए...

क्रंदन भी भा सकता है / नागाजुन nagarjun

अपना न हो तो

क्रंदन भी

कानों को

भा सकता है...

स्वजन-परिजन,

चहेते पशु-पक्षी,

निकटवर्ती बगिया के

फूलों पर मंडराते

सु-परिचित भ्रमर,

किसी का आर्तनाद

दुखा जाता है मेरा दिल...

 

बरसाती मौसम के निशीथ में

सुने मैंने हाल ही

उस गरीब के चीत्कार

सांप के जबड़ों में फंसा था वो

कर रहा था

चीत्कार निरंतर

मेंढक बेचारा...

हमारी पड़ोस वाली

तलइया के किनारे...

हाय राम, तुझे-

काल-कवलित होना था यहीं!

Wednesday, July 20, 2011

काले रंगों का मौसम

बाबा नागार्जुन जब काली-काली घन-घटा देखते हैं तो उन्हें मौसम के ढेर सारे काले रंग दिखाई दे जाते हैं। 1981 में लिखी उनकी यह कविता पढि.ए...

काले-काले/ नागार्जुन

काले-काले ऋतु-रंग

काली-काली घन-घटा

काले-काले गिरि श्रृंग

काली-काली छवि-छटा...

काले-काले परिवेश

काली-काली करतूत



काली-काली करतूत

काले-काले परिवेश

काली-काली महंगाई

काले-काले अध्यादेश।

Tuesday, July 19, 2011

अनोखा है आपका ध्यान-योग!

पहले ही जान लें कि यह कविता स्वामी रामदेव के बारे में नहीं है। यह कविता बाबा नागार्जुन की है- पानी के किनारे अपने आहार की प्रतीक्षा में घ्यान-धैर्य की प्रतिमूर्ति बने बगुला पक्षी के बारे में। कविता पढि.ए और याद कीजिए कि ऐसी विलक्षण कविताएं बाबा ही लिख सकते थे...

ध्यानमग्न वक-शिरोमणि/ नागार्जुन

ध्यानमग्न

वक-शिरोमणि

पतली टांगों के सहारे

जमे हैं झील के किनारे

जाने कौन हैं इष्टदेव आपके!

इष्टदेव हैं आपके

चपल-चटुल लघु-लघु मछलियां...

चांदी-सी चमकती मछलियां...

फिसलनशील, सुपाच्य...

सवेरे-सवेरे आप

ले चुके हैं दो बार

अपना अल्पाहार!

आ रहे हैं जाने कब से

चिंतन मध्य मत्स्य-शिशु

भगवानू नीराकार!

मनाता हूं मन ही मन,

सुलभ हो आपको अपना शिकार

तभी तो जमेगा

आपका माध्यांदिन आहार

अभी तो महोदय, आप

डटे रहो इसी प्रकार

झील के किनारे

अपने इष्ट के ध्यान में!

अनोखा है

आपका ध्यान-योग!

महोदय, महामहिम!!

Monday, July 11, 2011

जैसे कोई नींद में चलता हुआ व्यक्ति

युद्ध की व्यर्थता का गहरा एहसास कराती कवि श्रीकांत वर्मा की युद्ध नायक शीर्षक कविता का यह अंश पढ़िए. यह कविता उनके संग्रह जलसाघर में संकलित है .

युद्ध नायक / श्रीकांत वर्मा

जरूरी नहीं था युद्ध में मारा जाना
मगर मैं मारा गया युद्ध में!
युद्ध se मतलब युद्धभूमि में नहीं
बल्कि युद्ध se बचकर
सड़क पर चलता हुआ
सहस्रों सूर्यों के प्रकाश की तरह
एक बम के फटने se
मारा गया मैं!

iske पहले
कि मैं चीखकर कहता
हिरोशिमा अमर है
मैं मारा जा चुका था!
दबी की दबी रह गई चीख.
पीछे कुछ नहीं
केवल स्मृतियाँ हैं -
मूर्ति se मूर्ति
मनुष्य se मनुष्य
कविता se कविता
मोहनजोदड़ो se अब तक का
सिलसिला है.
युद्ध की अटूट एक श्रृंखला है!

अभी
कल ही की तो बात है
ढाका
एक मांस के लोथड़े की तरह
फेंक दिया गया था
दस हजार कुत्तों के बीच.

युद्ध कब शुरू हुआ था हिन्दचीन में?
ह्रदय में
दो करोड़ साठ लाख घाव लिए
वियेतनाम
बीसवीं शताब्दी के बीच se
गुजरता है!

अभी
कल ही की तो बात है
यूरोप
एक युद्ध se निकलकर
दूसरे युद्ध की ओर
इस तरह चला गया था
जैसे कोई नींद में चलता हुआ व्यक्ति!
.........................................................

Saturday, July 9, 2011

जब सब जयkaa र kaर रहे थे

kaवि श्रीkaanत वर्मा ke 1973 में छपे चौथे kaविता संग्रह जलसाघर kee kaई kaविताएं खासी चर्चित रही हैं। ऐसी ही एk kaविता पढि़ए, जो भीड़ ke जुनूनी मनोविज्ञान पर रोशनी डालती है...

प्रkरिया/श्रीkaanत वर्मा

मैं क्या kaर रहा था
जब
सब जयkaaर kaर रहे थे?
मैं भी जयkaaर kaर रहा था-
डर रहा था
जिस तरह
सब डर रहे थे।

मैं क्या kaर रहा था
जब
सब kaह रहे थे,
अजीज मेरा दुश्मन है?
मैं भी kaह रहा था,
अजीज मेरा दुश्मन है।

मैं क्या kaर रहा था
जब
सब kaह रहे थे,
मुंह मत खोलो?
मैं भी kaह रहा था,
मुंह मत खोलो
बोलो
जैसा सब बोलते हैं।

खत्म हो चुkee है जयkaaर,
अजीज मारा जा चुkaa है,
मुंह बंद हो चुke हैं।

हैरत में सब पूछ रहे हैं,
यह kaiसे हुआ?
जिस तरह सब पूछ रहे हैं
उसी तरह मैं भी,
यह kaiसे हुआ?

Friday, July 8, 2011

रास्ते में आदमी ka बूढ़ा हो जाना स्वाभाविk है

दिवंगत kवि श्रीkanत वर्मा ka  अंतिम kविता संग्रह मगध 1984 में आया था और तब खूब चर्चित भी हुआ था। सत्ता-व्यवस्था से विमर्श kरती kविताओं ke अलावा इस संग्रह में kuछ ऐसी kविताएं भी हैं, जो kवि ke जीवन दर्शन पर भी रोशनी डालती हैं। पढि़ए यह kविता...

जो युवा था/श्रीkanत वर्मा

लौटkaर सब आएंगे
सिर्फ वह नहीं
जो युवा था-
युवावस्था लौटkaर नहीं आती।

अगर आया भी तो
वही नहीं होगा।

पake बाल, झुर्रियां,
जरा, थkaaन
वह बूढ़ा हो चुka होगा।

रास्ते में
आदमी ka बूढ़ा हो जाना
स्वाभाविk है-
रास्ता सुगम हो या दुर्गम

koई क्यों चाहेगा
बूढ़ा kहलाना?

koई क्यों अपने
पke बाल
गिनेगा?

koee क्यों
चेहरे kee सलें देख
चाहेगा चौंkना?

koई क्यों चाहेगा
koई उससे kहे
आदमी kiतनी जल्दी बूढ़ा हो जाता है-
तुम्हीं ko लो!

koई क्यों चाहेगा
ki वह
जरा, मरण और थkaaन kee मिसाल बने।
लौटkaर सब आएंगे
सिर्फ वह नहीं
जो युवा था।

Friday, July 1, 2011

मैं बादल, मेरे अंदर कितने ही बादल घुमड़ रहे हैं

महाकवि कालिदास के अमर काव्य मेघदूत से प्रेरित कई कविताएं हिंदी में लिखी गई हैं- बाबा नागार्जुन से लेकर श्रीकांत वर्मा तक। 1957 में छपे कवि श्रीकांत वर्मा के पहले कविता संग्रह भटका मेघ की इसी शीर्षक वाली कविता यहां प्रस्तुत है-

भटका मेघ/श्रीकांत वर्मा

भट· गया हूं-
मैं असाढ़ का पहला बादल!
श्वेत फूल-सी अलका की
मैं पंखुरियां तक छू न सका हूं।
किसी शाप से शप्त हुआ
दिग्भ्रमित हुआ हूं।
शताब्दियों के अंतराल में घुमड़ रहा हूं, घूम रहा हूं।
कालिदास, मैं भटक गया हूं,
मोती के कमलों पर बैठी
अलका का पथ भूल गया हूं।
मेरी पलकों में अलका के सपने जैसे डूब गए हैं।
मुझमें बिजली बन आदेश तुम्हारा
अब तक कड़क रहा है।
आंसू धुला रामगिरि काले हाथी जैसा मुझे याद है।
लेकिन मैं निरपेक्ष नहीं, निरपेक्ष नहीं हूं।
मुझे मालवा के कछार से
साथ उड़ाती हुई हवाएं
कहां न जाने छोड़ गई हैं!
अगर कहीं अलका बादल बन सकती
मैं अलका बन सकता!
मुझे मालवा के कछार से
साथ उड़ाती हुई हवाएं
उज्जयिनी में पलभर जैसे
ठिठक गई थीं, ठहर गई थीं
क्षिप्रा की वह क्षीण धार छू
सिहर गई थीं।
मैंने अपने स्वागत में तब कितने हाथ जुड़े पाए थे।
मध्य मालवा, मध्य देश में
कितने खेत पड़े पाए थे।
कितने हलों, नागरों की तब
नोकें मेरे वक्ष गड़ी थीं।
कितनी सरिताएं धनु की ढीली डोरी-सी क्षीण पड़ी थीं।
तालपत्र-सी धरती,
सूखी, दरकी कब से फटी हुई थी।
माएं मुझे निहार रही थीं, वधुएं मुझे पुकार रही थीं,
बीज मुझे ललकार रहे थे,
ऋतुएं मुझे गुहार रही थीं।

मैंने शैशव की
निर्दोष आंख में तब पानी देखा था।
मुझे याद आया,
मैं ऐसी ही आंखों का कभी नमक था।
अब धरती से दूर हुआ
मैं आसमान का धब्बा भर था।

मुझे क्षमा करना कवि मेरे!
तब से अब तक भटक रहा हूं।
अब तक वैसे हाथ जुड़े हैं,
अब तक सूखे पेड़ खड़े हैं,
अब तक उजड़ी हैं खपरैलें,
अब तक प्यासे खेत पड़े हैं।
मैली-मैली संध्या में
झरते पलाश के पत्तों-से
धरती के सपने उजड़ रहे हैं।
मैं बादल, मेरे अंदर कितने ही बादल घुमड़ रहे हैं।
कितने आंसू टप, टप, टप
मेरी छाती पर टपक रहे हैं।
कितने उलाहने मन में मेरे
बिजली बन लपक रहे हैं।
अंदर ही अंदर मैं
कब से फफक रहा हूं।
मेरे मन में आग लगी है
भभक रहा हूं।
मैं सदियों के अंतराल में
वाष्पचक्र-सा घूम रहा हूं।
बार-बार सूखी धरती का
रूखा मस्तक चूम रहा हूं।
प्यास मिटा पाया कब इसकी
घुमड़ रहा हूं, घूम रहा हूं।
जिस पृथ्वी से जन्मा
उसे भुला दूं
यह कैसे संभव है?
पानी की जड़ है पृथ्वी में
बादल तो केवल पल्लव है।
मुझमें अंतद्र्वन्द्व छिड़ा है।
मुझे क्षमा करना कवि मेरे!
तुमने जो दिखलाया मैंने
उससे कुछ ज्यादा देखा है।
मैंने सदियों को मनुष्य की आंखों में घुलते देखा है।
मेरा मन भर आया है कवि,
अब न रुकूंगा।
अलका भूल चुकी मैं अब तो
इस धरती की प्यास हरूंगा।
सूखे पेड़ों, पौधों, अंकुओं की अब मौन पुकार सुनूंगा।
सूखी रहे तेरी अलका मैं
यहीं झरूंगा।
अगर मृत्यु भी मिली
मुझे तो
यहीं मरूंगा।
मुझे क्षमा करना कवि मेरे!
मैं अब अलका जा न सकूंगा।
मुझे समय ने याद किया है
मैं खुद को बहला न सकूंगा।
जब अंकुआए धान,
किसी कजरी में तुम मुझको पा लेना।
मैं हूं नहीं कृतघ्न मुझे तुम शाप न देना!
मैं असाढ़ का पहला बादल
शताब्दियों के अंतराल में घूम रहा हूं।
बार-बार सूखी धरती का रूखा मस्तक चूम रहा हूं।