साथ-साथ

Monday, August 30, 2010

स्त्री-जीवन का सर्कस

स्त्री का जीवन किसी सर्कस से कम नहीं है। वह कितना असहज है, यह तसलीमा नसरीन की सीधे सरल ढंग से लिखी गई इस कविता के जरिए समझा और महसूस किया जा सकता है...

जिन्दा रहती हूं/तसलीमा नसरीन

आदमी का चरित्र ही ऐसा है
बैठो तो कहेगा- नहीं, बैठो मत।
खड़े होओ तो कहेगा- यह क्या बात हुई, कहीं चलो भी
और चलो तो कहेगा- छि: बैठो!

सोने पर भी टोकेगा- चलो उठो
न सोने पर भी चैन नहीं- थोड़ा तो सो लो।

उठा-बैठक करते-करते बर्बाद हो रहा वक्त
अगर अभी मरने को हो जाऊं तैयार तो कहेगा- जिन्दा रहो
पता नहीं कब जिन्दा होते देख बोल पड़ेगा-
छि:, मर जाओ।

बहुत डरते-डरते और
चुपके-चुपके जिन्दा रहती हूं।

Saturday, August 28, 2010

रूपवती होना भी सजा से कम नहीं!

स्त्री का जीवन सहज-सुंदर हो, इसके आगे अनेक अड़चन और अनेक चुनौतियां हैं। अब जैसे यही कि उसका रूपवती होना अनिवार्य योग्यता जैसा है। जरा सोचिए कि रूपवती होने-न होने की सूरत कितने भयानक रूप में अपमानजनक है...

अपघात/तसलीमा नसरीन

पुरूष के रूप में जन्म लेने पर
सबसे जरूरी क्या है?
मेधा।

अगर स्त्री का जन्म हो तो
सबसे ज्यादा जरूरी है
रूप।

क्या जानती है स्त्री
कि रूप दरअसल
खुद के नीचे बनाता है
अंधेरे का कूप!

कूप के जल में अचानक स्त्री
रूप की राख बुझाने के लिए
अलक्ष्य में लगाती है डुबकी।

दुनिया से निर्वासित
रूपवती की काफी हद तक
अपने ही घर में सेंधमारी है यह।

Friday, August 27, 2010

जिसे कहते हैं गरीब

सबसे बड़ी गरीबी शायद यही है कि आदमी के पास खरीदने-बेचने को कुछ भी न हो और उसे देह की दूकान सजाकर ग्राहक का इंतजार करना पड़े। यों एक मजदूर भी तो शरीर का श्रम बेचकर ही अपना पेट भरता है, लेकिन जिसे वेश्या कहते हैं, उसकी स्थिति श्रमिक से भी ज्यादा भयावह है, क्योंकि मर्दवादी समाज में वह वांछित-अवांछित के बीच झूलती रहती है। पढि.ए तसलीमा नसरीन की एक कविता...

वेश्या जाती है/तसलीमा नसरीन

वह देखो एक वेश्या जा रही है,
वेश्या का शरीर हू-ब-हू इन्सानों जैसा है,
एक इन्सान जैसी नाक, आंख, होंठ,
आदमी की तरह हाथ, हाथों की उंगलियां
इन्सान की तरह उसकी चाल-ढाल, पहनावा
आदमी की तरह हंसती-रोती और बात करती है-
फिर भी इन्सान न कहकर उसे वेश्या कहा जाता है।
वेश्याएं औरत हैं, मर्द नहीं।

जिस वजह से एक स्त्री वेश्या होती है-जिस सोहबत से
उसी का अभ्यस्त होकर भी पुरूष, पुरूष ही रहता है।
वेश्याएं मर्द नहीं, आदमी की तरह हैं
लेकिन आदमी नहीं
वे औरत हैं।

वह देखो, वेश्या जा रही है-
कहते हैं लोग- एक औरत की तरफ उंगली उठाकर
आदमी देखता और दिखाता है।

Sunday, August 22, 2010

स्त्री का मन और तन

देहात्म बोध यों तो दार्शनिक किस्म का मामला है, लेकिन शायद एक स्त्री को जीवन में सबसे ज्यादा इसके ही द्वंद से गुजरना पड़ता है। यहां तक कि मर्दवादी समाज में ज्यादा आघात स्त्री के मन पर होता है या उसके तन पर, यह भी कह पाना मुश्किल है। इस संदर्भ में तसलीमा नसरीन की एक बेहद खूबसूरत, आत्मसचेतन कविता पढ़ सकते हैं...

देहत्व/तसलीमा नसरीन

बरसों से जाना-पहचाना मेरा यह शरीर
कभी-कभी मैं खुद इसे नहीं पहचान पाती
एक खुरदुरा हाथ
कई-कई बहानों से छूता है चंदन चर्चित बांह
मेरे स्नायु-मंडल में बज उठती है एक-एक घंटी

यह मेरा अपना ही शरीर-
शरीर की भाषा मैं पढ़ नहीं पाती
यह खुद ही अपनी बात कहता है अपनी भाषा में।
तब उंगलियां, आंख, होंठ और ये मुलायम पैर- कुछ भी
 नहीं रह जाता मेरा।

ये मेरे अपने ही हाथ
लेकिन इन्हें मैं ठीक-ठीक नहीं पहचान पाती
ये मेरे ही होंठ, मेरी ही जांघें, उरू
इनकी कोई भी पेशी, कोई भी रोमकूप
मेरे अधीन, मेरे काबू में नहीं।

स्नायु की दोमंजिली कोठी में बजती है घंटी
इस धरती पर तब मैं किसका खिलौना हूं-
पुरूष या प्रकृति का?

असल में पुरूष नहीं
प्रकृति ही मुझे बजाती है
मैं उसके शौक का सितार हूं।

पुरूष के स्पर्श से
शैशव की नींद तोड़कर मैं उठती हूं जाग
मेरे देह-समुद्र में उठता है अचानक ज्वार।
रक्त-मांस में प्यार की सुगंध पाते ही
प्रकृति ही मुझे बजाती है
मैं उसके शौक का सितार हूं।

Tuesday, August 17, 2010

क्या इसे पुरूष विद्वेष कहेंगे?

जिन कुछ कविताओं को उदाहरण बनाकर तसलीमा नसरीन पर पुरूष विद्वेषी होने की तोहमत लगाई जाती है, उन्हीं कविताओं में एक है स्त्री-पुरूष छंद शीर्षक कविता। हालांकि यह कविता स्त्री-उत्पीड़न के क्रूर और यथार्थ चित्र उपस्थित करती है...

स्त्री-पुरूष छंद

॥ एक॥
पुरूष-पुरूष करती नारी
पुरूष देगा घर,
इस जीवन में पुरूष होगा
महामूल्य वर।

पुरूष उजाला, पुरूष भला
पुरूष है ज्वार-भाटा
मौका पाकर पुरूष ने दिया
स्त्री के गाल पर चांटा।

॥ दो॥
पुरूष-पुरूष करती हैं वे
क्योंकि पुरूष है नर!
पुरूष छोड़ किसके बल चले
पंगु नारी दुर्भर?

रूई-नारी साथ पुरूष के
पुरूष ने उसको धूना,
नग्न देह, भग्न माथा
नारी के मुंह पर चूना।

॥ तीन॥
पुरूष बनेगा उसका पेड़
पुरूष ही उसकी छाया,
महानुभाव पुरूष देखकर
नारी की जागे माया।

उसी पुरूष ने ठोक दी
स्त्री की पीठ में कील,
दोनों आंखें नोच ले गया
पुरूष रूपी चील।

॥ चार॥
पुरूष के आते फूल खिलेगा
पुरूष देगा सुख,
पुरूष को पाकर चमक उठेगा
काली लड़की का मुख।

पुरूष नाम पर अंधी हैं वे
पीर-फकीर की फूंक,
सती-साध्वी की देह पर
दिया पुरूष ने थूक।

Friday, August 13, 2010

मुक्ति की मुश्किलों के बारे में

तसलीमा नसरीन ने अपनी कविताओं में नारी मुक्ति की मुश्किलों के बारीक से बारीक तंतुओं की पहचान की है। उनकी कविताएं आत्मानुभव की कविताएं हैं- आत्मने पद हैं और इसीलिए उनकी मैं शैली में बड़ी ताकत है। उदाहरण के लिए उनकी यह कविता...

डर / तसलीमा नसरीन

मुझे किसी ने पार नहीं होने दिया मैदान
जितनी बार मैं दौड़कर गई- आधी दूरी तक
अचानक पीछे से कपड़ा पकड़ कर खींचा उन लोगों ने
डराया-
सामने खंदक में पसर कर सोया हुआ है चीता
पीपल से लिपटा हुआ है पीला जहरीला सांप
मैं भोली लड़की, कितना रोई थी!

मैदान के उस पार थी रानी पोखर, गुलमोहर का बगीचा
मैदान के उस पार था सफेद कबूतरों का झुंड, तितलियां
मैदान के उस पार थे सफेद-सफेद
औचक नक्षत्र की तरह
दिखने वाले जुगनू

दैत्य और दानव की कहानी सुनते हुए सोई
स्वप्न में नीलरंगी पतंग के बदले
देखती रही चुड़ैल के पांव, दानवों का देश।
बड़ी होते-होते, अब कितनी बड़ी हो गई हूं!
फिर भी मुझे इत्ता-सा कमरा पार नहीं होने देते वे लोग
अब स्वप्न में नहीं, जागते हुए देखती हूं चंद्रबोड़ा सांप
देखती हूं कीड़े-मकोडे., राक्षसों के घर, जंगली भैंसे

घर से बाहर निकल कर मैं आकाश नहीं देख पाती।

Thursday, August 12, 2010

तसलीमा का आत्मसंघर्ष

कवयित्री-लेखिका तसलीमा नसरीन का आत्मसंघर्ष कितना गहन और कितना कठिन है, यह उनकी इस छोटी-सी कविता के मार्फत जाना-समझा जा सकता है...

मान-अभिमान

पास जितना आ सकी हूं, यह भी समझ लो
दूर उससे भी ज्यादा जा सकती हूं मैं।
जितना प्यार लिया है लपक कर
उससे भी ज्यादा निगल सकती हूं हिकारत।

औरत का जन्म और प्रतिभा का पाप लिए
हर रोज नियत चटूटान हटाकर चलती हूं।
अथाह निषेधों में डूबती-उतराती बहती हूं,
मेरा कौन है सिवा मुझ अकेले के?

Tuesday, August 10, 2010

छिनाल कहे जाने के जवाब में तसलीमा की एक कविता

बहुचर्चित बांग्ला लेखिका तसलीमा नसरीन के गद्य से, खासकर उनकी आत्मकथात्मक पुस्तकों से बहुतेरे पाठक परिचित हैं। हालांकि तसलीमा मूलत: और प्रथमत: कवयित्री हैं और उन्होंने बहुत अच्छी कविताएं लिखी हैं। यहां दी जा रही तसलीमा की कविता को छिनाल कहे जाने के जवाब में पढ़ सकते हैं...

चरित्र/तसलीमा नसरीन

तुम लड़की हो,
यह अच्छी तरह याद रखना
तुम जब घर का चौखट लांघोगी
लोग तुम्हें टेढ़ी नजरों से देखेंगे।
तुम जब गली से होकर चलती रहोगी
लोग तुम्हारा पीछा करेंगे, सीटी बजाएंगे।
तुम जब गली पार कर मुख्य सड़क पर पहुंचोगी
लोग तुम्हें बदचलन कहकर गालियां देंगे।

तुम हो जाओगी बेमानी
अगर पीछे लौटोगी
वरना जैसे जा रही हो
जाओ।

Sunday, August 8, 2010

बद्रीनारायण की कटिूटस

 बच्चों में कटिूटस होती है मगर यह अदावत नहीं होती- रूठने-मनाने का खेल चलता रहता है। बद्रीनारायण के यहां कटिूटस एक खूबसूरत कविता बन जाती है...

कटिूटस

दोस्त! कटिूटस
कड़की के दिनों में दस-पांच रूपए उधार न देने के लिए
कटिूटस
एतवार को चुपके, अकेले होटल में खा आने के लिए
कटिूटस
पटने में चाय न पूछने
दिल्ली में ठीक से न बतियाने के लिए
कटिूटस
पिता के श्राद्ध में
बहन के विवाह में न पूछने के लिए कटिूटस
चिटठी देने को कह
चिटूठी न देने के लिए कटिूटस

दोस्त! इस पूरे जमाने भर तुमसे कटिूटस।