साथ-साथ

Thursday, April 29, 2010

॥ हे मैना पाखी॥

(मुंडारी लोकगीत का काव्यांतर : चौदह)

हे मैना पाखी!
देखो, सिसई का चारागाह
जलने लगा है
तुम कहां चुगने जाओगी?
देखो मैना,
तुम्हारा तेलई का मैदान भी
झुलसने लगा है
कहां से तुम चुनोगी तिनका?


देखो, आधा चारागाह जल रहा है
तो आधे में चुगो
झुलसते मैदान के बचे हुए
हिस्से में चुनो अपने तिनके

अरे, तुम तो चुगते-चुगते
आधा जल गई, मैना!
हाय झुलस गई आधा
तिनका चुनते-चुनते!
ओह, तेरी चोटी का पंख जल गया
हाय तेरे गले का हार झुलस गया।

Wednesday, April 28, 2010

॥ अगर भौजाई लाओ॥

(मुंडारी लोकगीत का काव्यांतर : तेरह)
हे भइया, अगर भौजाई लाओ
तो खाते-पीते घर से ही लाना

जहां शुद्ध हंड़िया पी जाती हो
आचार-विचार अच्छे हों
मान-मर्यादा अच्छी हो।

यह कैसे मुमकिन है भाई,
हम तो बिन मां के- अनाथ हैं
कैसे मिलेगा ऐसा घर
हमारे पिता भी नहीं- अनाथ हैं!

॥ सजाया है खोंपा॥

(मुंडारी लोकगीत का काव्यांतर : बारह)

हे मां, यह किस चीज से
सजाया है खोंपा,
चकचक कर रहा है!
हे मां, यह किस सूत से
बनी है साड़ी,
धारीदार दिख रही है!

हे बिटिया, यह सरसों तेल में
चुपड़ा खोंपा है,
चकचक कर रहा है
बिटिया, बड़ी जात वाली कपास का
सूत है यह
जो धारीदार दिख रहा है।

Tuesday, April 27, 2010

॥ कंदमूल और मछलियां॥

(मुंडारी लोकगीत का काव्यांतर : ग्यारह)

भेलवा और कुसुम के पेड़ों वाली ढलान पर
देखो, लहलहा रहे हैं कंदमूल
झाड़ियों से ढंके नाले और
लताओं से पटी तराई के पानी में
मछलियां खेल रही हैं आंखमिचौनी

लहलहाते कंदमूल को खोद लाओ दोस्त
आंखमिचौनी खेलती मछलियां पकड़ लाओ!

अरे दोस्त, कंदमूल खोदने गया
तो वे सब जड़ों से चिपक कर बैठ गए
और मछलियां पकड़ने गया
तो सब की सब मेंढक बन गई।

Saturday, April 24, 2010

॥ एक पलड़े के तराजू वाले॥

(मुंडारी लोकगीत का काव्यांतर : दस)

पहाड़ों की ढलान से उतरने वाले
और तराई के रास्तों पर चलने वाले
ये व्यापारी गण।

झूमते-झामते उतरने वाले और
आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ने वाले
ये व्यापारी गण।

इमली के वृक्ष तले सुस्ताने वाले
अमराई में डेरा डालने वाले
ये व्यापारी गण।

अरे भाई, क्या यही नमक के व्यापारी हैं
क्या ये ही हैं लहसुन-प्याज के सौदागर?
अरे भई हां, ये ही नमक के व्यापारी हैं
ये ही हैं लहसुन-प्याज के सौदागर-

एक पलड़े के तराजू वाले लोग यही हैं
और ये ही हैं जो लहसुन के बदले
लेते हैं चार-चार चीजें!

Thursday, April 22, 2010

॥ ऐ लड़की॥

(मुंडारी लोकगीत का काव्यांतर : नौ)

ऐ लड़की, तेरी मां और चाचियां
सरहुल के त्यौहार पर हास-परिहास में लगी हैं
पर तू तो घर के पिछवाड़े
गुमसुम खड़ी है

तेरे पिता और चाचा लोग गए हैं अनुष्ठान में
पर तू तो बाहर, खाई के पास दुबकी पड़ी है।

पिछवाड़े खड़ी हो
और छप्पर का पानी तुम पर गिर रहा है
खाई के पास दुबकी पड़ी हो
लेकिन कगार की मिटूटी तो खिसक रही है!

Tuesday, April 20, 2010

॥ हे दुनिया वालो॥

(मुंडारी लोकगीत का काव्यांतर : आठ)
साल वृक्ष की कोंपलों पर बैठे
क्यों मिरू पाखी, तुम ही रोया करोगे?
गोरार लताओं की झाड़ी में
कारे पाखी, तुम्हारी छाती की धड़कन ही
क्यों सुनाई देती है?

हे दुनिया वालो, मैं ही रोता हूं
क्योंकि साल वृक्ष की डाल टूट गई है
हे भाई, मेरी छाती की ही धड़कन सुनाई देती है
क्योंकि वृक्ष का तना खोखला हो गया है।

हे मिरू, रोओ मत
कल ही नई डाल निकल आएगी
घबराओ नहीं कारे पाखी,
तने का खोखलापन भर जाएगा अगले ही दिन।

नहीं भाई, दूसरी डाल भले ही निकले
वह पहली जैसी नहीं होगी
नहीं दोस्त, नहीं, खोखलापन भर भी जाए
तब भी पहले जैसा मजबूत नहीं होगा तना।

Friday, April 16, 2010

॥ हे बिटिया॥

(मुंडारी लोकगीत का काव्यांतर : सात)
हे बिटिया,
जब तुम्हारा जन्म हुआ
बुंडू शहर जंगल से घिरा हुआ था
तुम जब बच्ची थी
लबालब पानी भरा था
चुआं में।

हे बिटिया,
जबतक तू चंचल किशोरी हुई
बुंडू का जंगल उजड़ गया
जबतक तू हुई जवान
चुआं का पानी सूख गया।

Thursday, April 15, 2010

॥ आगे नहीं, पीछे नहीं॥

(मुंडारी लोकगीत का काव्यांतर : छह)

हे सखी, अगर जंगल में लकड़ी लाने जाना
तो कभी आगे मत रहना!
हे बहन, अगर जंगल में पत्ते चुनने जाना
तो कभी पीछे नहीं रहना!

इस जमाने में
बदसूरत कुल्हाड़ी ही शेर बन गई है,
कभी आगे नहीं रहना!
मुडे. हुए पत्ते ही
आजकल सांप बन गए हैं,
कभी पीछे नहीं रहना!

Wednesday, April 14, 2010

॥ रोज रोज की गरीबी॥

(मुंडारी लोकगीत का काव्यांतर : पांच)

रोज रोज की गरीबी कहो या नींद का मरण
मैं कबतक और कितनी इसकी चिंता में रहूं!
रोज रोज की झंझट कहो या जी का जंजाल
कितनी बार ओझा के दरवाजे दौड़ लगाऊं।

ओह, कबतक इन सबकी चिंता में जलूं?
घर की सारी भेड़-बकरियां
बेच-खाकर खत्म हो गईं
हाय, कितनी बार दौड़ूं ओझा के पास
घर के सब मुर्गी-चूजे बिला गए।

Tuesday, April 13, 2010

॥ अयोध्या सुलग रही है॥

(मुंडारी लोकगीत का काव्यांतर : चार)
हे राम-लक्ष्मण
देखिए, लंका जल रही है!
हे सीता ठकुरानी
देखिए, अयोध्या सुलग रही है!

किसने आग लगाई
लंका धधक रही है?
किसने फेंकी चिनगारी
अयोध्या सुलग रही है?

धांगर ने लगाई आग
लंका धधक रही है
मायावी की चिनगारी से
देखो, अयोध्या सुलग रही है।

Monday, April 12, 2010

॥ बित्ता भर पेट के लिए॥

(मुंडारी लोकगीत का काव्यांतर : तीन)

टूटी-फूटी झोपड़ी का यह हाल
कि हर तरफ चू रहा है बरसात का पानी
खपरैल वाले घर की ऐसी हालत
कि जहां-तहां से घुस रहा है बरसात का पानी

क्यों छाजन के लिए पहाड़ पर
नहीं है साउड़ी घास
जो हर तरफ चूने लगा है पानी?
नदियों में क्या नहीं है बड़ोवा घास
कि घर में जहां-तहां घुसने लगा पानी?

हाय, बित्ता भर पेट के लिए
हमने साउड़ी तो बेच दिया!
ओह, दो हाथ कपड़े की खातिर
बड़ोवा दूसरों के हवाले कर दिया!

Sunday, April 11, 2010

॥ दिनचर्या॥

(मुंडारी लोकगीत का काव्यांतर : दो)

उठ बिहान मैं खेत गई थी धान रोपने
दुपहरिया तक पूरी हुई रोपाई
रस्ते की चढ़ान और उतराई
दौड़ी-दौड़ी घर आई
घर से फिर पड़ोस के गांव जोजोहातू गई
वहां किया बनिहारी

लौटी घर
उसको कूट-पीस कर
पकाया साग-भात
तब तक शाम घिर आई,
आने लगी अखाड़े पर
अब बंसी-मांदल की आवाज
सखियां मेरी, हाय वहां पर
करती होंगी इंतजार!

Saturday, April 10, 2010

यहां से देखिए झारखंड को

अरविंद चतुर्वेद :
अपने जन्मकाल से ही अस्थिरता, उथलपुथल और राजनीतिक-प्रशासनिक भ्रष्टाचार का शिकार होते आ रहे झारखंड को सिर्फ माओवादियों या शिबू सोरेन की सरकार के चश्मे से देखने से जनजीवन का मर्म नहीं समझा जा सकता। आइए, आज से आपको मुंडारी भाषा के कुछ लोकगीतों का हिंदी काव्यांतर पढ़वाते हैं। प्रमुख जनजातियों में एक मुंडा आदिवासियों की मुंडारी भाषा में लोकगीतों और लोककथाओं का खजाना भरा पड़ा है। मुंडारी लोकगीत यानी मुंडा जाति का जीवन-काव्य। दुख-सुख, उल्लास-विषाद के साथ ही उनकी संघर्ष निर्मित सौन्दर्य चेतना इन गीतों में देखी जा सकती है। मुंडाओं की रागात्मकता इस लोक-काव्य में इतनी गहरी है कि जीवन-राग और प्रकृति-राग को अलगाया नहीं जा सकता। परिवेशगत स्थितियों और जीवनानुभव से मिली एक आलोचनात्मक दृष्टि और वनस्पतियों को संबोधित करते हुए या फिर उन्हें आलंबन बनाकर यहां हृदय का भाव व्यक्त किया गया है। मुंडारी लोकगीतों की प्रश्नोत्तर शैली और संवादपरकता भी विशेष लक्ष्य करने की चीज है। इन लोकगीतों को मंगल सिंह मुंडा ने उपलब्ध कराया था और उनके सहयोग से ही मैंने काव्यांतर किया है। आज पढि.ए यह गीत-

॥ खाली आंचल, खाली टोकरी॥
नदी के तीरे-तीरे
या कि नाले के आसपास
कौन आवाज दे रहा है,
किसके होने की आहट आ रही है!

अरे, शायद साग खोंटने वाली औरतें हों
या होंगे मछली मारने वाले,
वे ही आवाज दे रही हैं
उन्हीं के होने की आहट आ रही है।

अरे नहीं, वे साग भी नहीं खोंट पायीं
वे मछली भी कहां पकड़ पाए-
मगर उन्हीं की आवाज आ रही है
उन्हीं के होने की आहट आ रही है।

हाय, उनके आंचल खाली हैं
हाय, उनकी टोकरियां खाली हैं
जो आवाज दे रही हैं,
जिनके होने की आहट आ रही है।