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Friday, December 31, 2010

हाल जैसा है बहरहाल!

लखनऊ के गजलकार-कवि हैं कुंवर कुसुमेश। उनकी गजलों के दो संग्रह छपे हैं- अंधेरे भी उजाले भी और कुछ न हासिल हुआ। नए साल के आगमन पर उन्होंने एक बहुत ही मौजूं और मानीखेज गजल लिख भेजी है। इसे आप भी पढ़ लीजिए...

हाल जैसा है बहरहाल चलो खुश हो लें।
आ गया फिर से नया साल चलो खुश हो लें॥

फोर व्हीलर हो, बड़ा घर हो, चले बिजनेस भी,
लोन कर दे भले कंगाल चलो खुश हो लें॥

पॉप म्यूजिक का चलन और चलन डिस्को का,
शोर में खो गए सुर-ताल चलो खुश हो लें॥

दाल-रोटी भी गरीबों के नसीबों में नहीं,
सौ रूपए रेट की है दाल चलो खुश हो लें॥

माफिया, डॉन, उचक्कों का, जमाखोरों का
बन गया एक मकड़जाल चलो खुश हो लें॥

सोचते हैं कि न दें वोट बेईमानों को,
थूक के चाटते हर साल चलो खुश हो लें॥

रोज बच्चों की नई जिद है, नई फरमाइश,
बाखुदा जी का है जंजाल चलो खुश हो लें॥

यूं तो कुछ भी न कुंवर बात है खुश होने की,
बोलिए आपका क्या खयाल चलो खुश हो लें॥

Tuesday, December 28, 2010

कैलेंडर है डरा-डरा

जाने-माने गीतकार-कवि हैं यश मालवीय। इलाहाबाद में रहते हैं और निरंतर सृजनशील हैं। बीत चले और आ रहे वर्ष की संधिरेखा पर प्रस्तुत है उनकी यह गीत-कविता।

गया साल नया साल/ यश मालवीय
धुआं-धुआं हो रहा किस तरह
चमन हमारा हरा-भरा
गए साल ने सिर्फ दिया है
ओर-छोर तक बस कुहरा
तोड़ नहीं पाता कोई स्वर
सन्नाटा गहरा-गहरा
तकलीफों का एक समंदर
सबकी आंखों में लहरा।

उम्मीदों के कई-कई जलयान
आग की लपटों पर
छाती और पेट पर बांधे
चटूटानों जैसे पत्थर
रहे तैरते एक साथ
कितने-कितने से संवत्सर
जिनका मुंह नोचती रही हैं
मिलकर छायाएं बर्बर।

नए साल तुम आए हो तो
आओ बैठो पास जरा
अच्छा-अच्छा सुनना क्या है
सुन लो थोड़ा बुरा-बुरा
उखड़ रही सांसों पर
नंगी बंदूकों का है पहरा
जिंदा है हैवान यहां पर
बस देखो इन्सान मरा।

नए साल तुम गए साल की
भूलों को दुहराना मत
तारीखें जो बीत गई हैं
उनको अब गुहराना मत
पूरी शक्ल दिखाई दे
तुम शीशे-सा चिहराना मत
लेकिन यह भी सही
कि जो भी हुआ उसे बिसराना मत।

तुमसे है आइना मांगता
देखो तो चेहरा-चेहरा
नहीं वक्त को होने देना
तुम लूला लंगड़ा बहरा
उन्हें बुझाना लहर-लहर पर
जो भी अंगारा तैरा
लिखना अगला पैरा
लेकिन ध्यान रहे पिछला पैरा।

सांप सियासत वाला हम क्यों
अपने भीतर पोस रहे?
हर आक्रोश दफन हो जाए
क्यों इतना संतोष रहे?
बेतरतीब रोशनी वाले
अंधियारों को कोस रहे
ऐसे नहीं सवेरा होगा
अब इतना तो होश रहे।

अपनी ही छाती पर जैसे
तुमने अपना पांव धरा
ऐसा कुछ तो करो
तुम्हारा रूप रहे निखरा-संवरा
खुद से आंख मिलाए कैसे
कैलेंडर है डरा-डरा
गए साल का जख्मी होकर
जाना बहुत-बहुत अखरा।

धुआं-धुआं हो रहा किस तरह
चमन हमारा हरा-भरा!

Wednesday, December 22, 2010

चढ़ावों पर टिकी हैं आस्थाएं

गजलकार-कवि विनय मिश्र का जन्म पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद में हुआ, मगर नौकरी की डोर उन्हें राजस्थान के अलवर में ले गई। विनय जी गवर्नमेंट पीजी कॉलेज अलवर में हिन्दी के एसोसिएट प्रोफेसर हैं। पढि.ए उनकी दो गजलें-

दो गजलें/ विनय मिश्र

॥ एक॥
खुद से ही डरने लगे हैं अब तो अक्सर सोचकर
हाथ में रखने लगे हैं लोग पत्थर सोचकर।

हर तरफ ठहरी हुई सी जिंदगी है जब यहां
सोचता हूं कुछ बदल जाना है बेहतर सोचकर।

अब चढ़ावों पर टिकी हैं आस्थाएं देखिए
हंस पड़ा पूजा के मंदिर को मैं दफ्तर सोचकर।

इसमें दुनियाभर की चीजें आ गइं बाजार की
आजतक रहता रहा हूं मैं जिसे घर सोचकर।

मैं उतरता आ रहा हूं जलप्रपातों की तरह
एक दिन पाऊंगा मैं भी इक समंदर सोचकर।

यूं तो बाहर मुस्कराती हैं बहुत लाचारियां
कांप जाता हूं मगर मैं इनके भीतर सोचकर।

भागते पहियों पे सांसों के कहा जो भी कहा
इस हुनर के साथ लेकिन कुछ ठहरकर सोचकर।

॥ दो॥
आग सा मौसम हुआ जबसे ठिठुरती धूप का
रंग ही कुछ और है तेवर बदलती धूप का।

घिर गए हैं वो अंधेरों से यहां चारो तरफ
काफिला लेकर चले थे जो चमकती धूप का।

जिंदगी है शोर करते एक झरने का बहाव
मौत है साया पहाड़ों से उतरती धूप का।

रोशनी का भ्रम चलो टूटा बहुत अच्छा हुआ
कारनामा एक ये भी है छिटकती धूप का।

कुछ किताबों में पढ़ा था कुछ बुजुगों से सुना
याद है मुझको अभी तक चित्र हंसती धूप का।

दांव उसका, चाल उसकी, हैं उसी के फैसले
खेल जारी है यहां इक चाल चलती धूप का।

सिर्फ बाहर ही नहीं है अब इरादों की चमक
मेरे भीतर भी है मंजर अब मचलती धूप का।

Saturday, December 18, 2010

कीमतों का नया विहान आ गया है

राजस्थान में कोटा के प्रताप नगर में रहने वाले महेंद्र नेह वरिष्ठ कवि व गीत-गजलकार हैं। वे समर्थ समीक्षक भी हैं। सच के ठाठ निराले होंगे और थिरक उठेगी धरती उनकी चर्चित कृतियां हैं। उनके काव्य की जन पक्षधरता विशेष रूप से रेखांकित करने योग्य है। बानगी के बतौर प्रस्तुत है यह कविता...

नया विहान/ महेंद्र नेह

नदियां कहीं भी बहती हों
दरख्त कहीं भी खड़े हों
शब्द किसी भी भाषा के हों
कीमतें सभी की अंकित हो चुकी हैं
वेबसाइट पर

कीमतें तय कर दी गई हैं
बशर्ते कीमतों का औचित्य
समय रहते समझा जा सके
और अपनी-अपनी कीमत पर
बिना किसी ना-नुकुर के सहमति के
अंगूठे लगा दिए जाएं
कीमतों का नया विहान आ गया है।

सुनहरी विदाइयों, कारखानों, दफ्तरों, खेतों में
सामूहिक हाराकीरी का
नया विहान आ गया है।
अपनी भव्यता और दिव्यता के साथ दिपदिपाता
नए साजों के साथ थिरकने का
सुनहरी विदाइयों और सामूहिक हाराकीरी पर
जश्न मनाने का
सगे-संबंधियों, भाइयों, दोस्तों
पड़ोसियों और महबूब को मिटते
उजड़ते हुए देखने का
रंगीन पृष्ठों और
सूचना तंत्र की कौतुकी दुनिया में
डुबकियां लगाने का
नया विहान आ गया है
कीमतें सभी की अंकित हो चुकी हैं
वेबसाइट पर।

Sunday, December 12, 2010

धूप में आंचल की तरह

कथाकार-कवि कृष्ण सुकुमार की रचनाएं प्राय: सभी प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित होती आई हैं। वे बहुपठित व बहुचर्चित रचनाकार हैं। तीन उपन्यास व दो कथा संग्रहों के अलावा उनकी गजलों की भी एक किताब छपी है। आईआईटी रूड़की में सेवारत कृष्ण सुकुमार की पढि.ए दो गजलें-

दो गजलें / कृष्ण सुकुमार

॥ एक॥
रास्ते, मंजिल, मुसाफिर, कुछ सफर में तय नहीं
क्या मिले क्या छूट जाए, कुछ सफर में तय नहीं

जो गुजश्ता वक्त ने अब तक दिए उसके सिवा
और कितने फल लगेंगे इस शजर में तय नहीं

चार बेटे हैं, बुढ़ापे की मगर यह कशमकश
हूं किसी की कैद में या अपने घर में तय नहीं

कद बढ़े तो कुछ भी करने के लिए तैयार हम
किस कदर गिर जाएंगे अपनी नजर में तय नहीं

हम नहीं अहमक गुजारें मुफलिसी में जिंदगी
किस तरह क्या-क्या कमाएं उम्र भर में तय नहीं

इक अधूरा ख्वाब क्या देखा नशा उतरा नहीं
अब रहेंगे और कब तक इस असर में तय नहीं

॥ दो॥
इक सघन छाया तले बीते हुए पल की तरह
जिंदगी की धूप में हैं ख्वाब आंचल की तरह

इस कदर झूठी दलीलों ने हिलाया पेड़ को
टूटकर सच गिर पड़ा इक अधपके फल की तरह

रीत जाते हैं किसी की चाह में हम जिंदगी
लौट आते हैं बरस कर एक बादल की तरह

ख्वाब में पानी पिएं तो प्यास बुझती ही नहीं
जिंदगी भी खूबसूरत है इसी छल की तरह

Saturday, December 11, 2010

सिक्के को उछालना भी अपमान हुआ!

हिन्दी गजल की दुनिया में जहीर कुरेशी जाना-पहचाना नाम हैं। मध्य प्रदेश के ग्वालियर शहर में रहते हैं। अबतक उनकी गजलों के पांच संग्रह प्रकाशित हैं। इनमें चांदनी का दुख, समंदर ब्याहने आया नहीं है व भीड़ में सबसे अलग खासा चर्चित रहे हैं। पेश हैं उनकी दो गजलें-

दो गजलें/ जहीर कुरेशी

॥ एक॥
बिकना था आसान, बेचना भी आसान हुआ
बाजारों से घर तक बिकने का सामान हुआ।

लोग सूचना की सीमा-रेखा तक सीमित हैं
हमें सूचनाओं के मंथन से ये ज्ञान हुआ।

एक कहावत इस युग में भी सच्ची लगती है
ऊंची थी दूकान मगर फीका पकवान हुआ।

जिसे जरूरत थी वो समझा नहीं युक्ति मेरी
जान-बूझकर शर्त हारने से भी दान हुआ।

उसे हवेली की गतिविधियों का अंदाजा है
बरसों तक जो व्यक्ति हवेली का दरबान हुआ।

सिक्के के दो पहलू जब से हुए एक जैसे
तब से सिक्के को उछालना भी अपमान हुआ।

अगर भावना है तो जीवित लगते हैं संबंध
भावहीन होते ही हर रिश्ता बेजान हुआ।

॥ दो॥
दीपक के मन में रहती है जलने की लालसा
अंधियार का चरित्र बदलने की लालसा।

मछली भी यत्न द्वारा शिकारी के हाथ से
करने लगी बलात फिसलने की लालसा।

पेड़ों की टहनियों पे जो कलियां हैं अधखिली
उनमें कहीं है फूलने-फलने की लालसा।

ठोकर इसी वजह से जरूरी लगी मुझे
ठोकर से जागती है संभलने की लालसा।

यायावरी का शौक अभी कल्पना में है
हिमखंड करते रहते हैं गलने की लालसा।

प्रतिभा को सिद्ध करने की जिद पालने के बाद
है लड़कियों में घर से निकलने की लालसा।

दुपहर के सूर्य जैसी प्रखरता को प्राप्त कर
रखता है कौन शाम को ढलने की लालसा?

Thursday, December 9, 2010

कैसे-कैसे दाम चुकाते हैं!

हिन्दी के समकालीन गजलकारों में देवमणि पांडेय की खास जगह है। मुंबई में रहने वाले देवमणि पांडेय उन गिने-चुने गजलकारों में हैं जो निरंतरता बनाए हुए हैं और लगातार अच्छी गजलें कह रहे हैं।

दो गजलें/ देवमणि पांडेय

॥ एक॥
इस जीवन में ऐसे भी कुछ अवसर आते हैं
जब कांटों से ज्यादा हमको फूल सताते हैं

गाए गीत वफा के हमने मगर हुए रूसवा
हम भी प्यार के कैसे-कैसे दाम चुकाते हैं

दिल का हाल सुना दूं लेकिन सोच के डरता हूं
दुनिया वाले गम वालों की हंसी उड़ाते हैं

आंखों के बहने पर क्यूं है इतनी हैरानी
सुख-दुख के मौसम तो यूं ही आते-जाते हैं

सबसे मिलने की चाहत अब नहीं रही दिल में
फिर भी जो मिलता है उससे हाथ मिलाते हैं।

॥ दो॥
कतरे को इक दरिया समझा मैं भी कैसा पागल हूं
हर सपने को सच्चा समझा मैं भी कैसा पागल हूं

तन पर तो उजले कपड़े थे पर जिनके मन काले थे
उन लोगों को अच्छा समझा मैं भी कैसा पागल हूं

पाल पोसकर बड़ा किया था फिर भी इक दिन बिछड़ गए
ख्वाबों को इक बच्चा समझा मैं भी कैसा पागल हूं

कांटे सी खुद मेरी शोहरत हर पल दिल में चुभ जाती है
फन को खेल-तमाशा समझा मैं भी कैसा पागल हूं।

Monday, December 6, 2010

डर गया पानी

बहुत ही सहज-सरल भाषा में दो अच्छी गजलें माधव कौशिक की प्रस्तुत हैं। माधव जी चंडीगढ़ में रहते हैं। चर्चित कवि-गजलकार हैं।

दो गजलें/ माधव कौशिक

॥ एक॥
चटूटानों के जिगर से जल तो निकले
हमारी मुश्किलों का हल तो निकले

मैं तुमसे प्यार करना चाहता हूं
ये रिश्तों की फंसी सांकल तो निकले।

शहर को चीरकर देखो तो यारो
शहर की कोख से जंगल तो निकले।

बिछड़ने का सताए गम तुम्हें भी
तुम्हारी आंख से काजल तो निकले।

मैं तपती धूप में मुरझा रहा हूं
किसी कोने से अब बादल तो निकले।

॥ दो॥
सोचता हूं किधर गया पानी
सबकी आंखों का मर गया पानी

अब नदी किसको मुंह दिखाएगी
देखकर प्यास डर गया पानी।

आग पानी में भी लगा डाली
ये करिश्मा भी कर गया पानी।

सिर्फ आंखों ने दी पनाह उसे
जाने किस-किसके घर गया पानी।

मुझसे मिलते ही उसके चेहरे का
क्या हुआ, क्यों उतर गया पानी।

टूटकर आंख से गिरा जब भी
जख्म सीने के भर गया पानी।

मैं किनारे खड़ा रहा लेकिन
मेरे सर से गुजर गया पानी।

Saturday, December 4, 2010

तेरी शतरंज पे क्या-क्या नहीं था!

हिन्दी गजलगो हस्तीमल हस्ती किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनकी गजलों में जिंदगी के हजार रंग देखे जा सकते हैं। सबसे बड़ी बात है कि वे लंबे समय से गजलें लिखते आ रहे हैं और मुंबई जैसे महानगर में रहते हुए भी उनके भीतर का मनुष्य पूरे ताप के साथ जिंदा है- न वह ठंडा पड़ा है और न मशीन बना है। इसकी भी वजह शायद उनकी गजलें ही हैं। पेश हैं उनकी दो गजलें...

दो गजलें/हस्तीमल हस्ती

॥ एक॥
टूट जाने तलक गिरा मुझको
कैसी मिटूटी का हूं बता मुझको।

मेरी खुशबू भी मर न जाए कहीं
मेरी जड़ से न कर जुदा मुझको।

अक्ल कोई सजा है या इनाम
बारहा सोचना पड़ा मुझको।

कोई मेरा मरज तो पहचाने
दर्द क्या और क्या दवा मुझको।

॥ दो॥
महोब्बत का ही इक मोहरा नहीं था
तेरी शतरंज पर क्या-क्या नहीं था।

सजा मुझको ही मिलनी थी हमेशा
मेरे चेहरे पे ही चेहरा नहीं था।

कोई प्यासा नहीं लौटा वहां से
जहां दिल था भले दरिया नहीं था।

हमारे ही कदम छोटे थे वरना
वहां परबत कोई ऊंचा नहीं था।

किसे कहता तवज्जो कौन देता
मेरा गम था कोई किस्सा नहीं था।

रहा फिर देर तक मैं साथ उसके
भले वो देर तक ठहरा नहीं था।