गणतंत्र दिवस पर उदास कर देने वाली ग्रामीण-भारत की एक पुरानी कविता, जो आज भी लागू होती है ....
जा बेटा तू बाँध ले गठरी कलकत्ता में खूब कमा-
आजमगढ़-बलिया-गाजीपुर कितना कठिन कलेजा माँ!
टेसन पर यह रेल की सीटी सालों से जो चीख रही,
झोपड़ के दरवाजे सिमटी सुरसतिया की कौन सुना !
गाँव हमारा अंधी बस्ती, पगडण्डी भी टेढ़ी - मेढ़ी,
भरी जवानी में बहिना कूदी थी ऐसा एक कुआं !
छः छः पैसा चल कलकत्ता बचपन के इस खेल का
जब परदेसी हुए तो जाना कितना गहरा अर्थ बना !
अपने तो इस देश में यारो हमने बस दो मौसम देखे
बाढ़ आँख में आंसू लाये, सूखा लाये धूल-धुंआ !
दिल्ली से फरमान हुजूरे आला लेकर आये हैं -
सड़कों पर कैसे आ निकला कीचड़ में जो पावँ सना !
खबर छपी है अख़बारों में पुलिस-लाठियां-जेल-हथकड़ी,
धूप तपी यह देह न जाने ओला - पत्थर कहाँ - कहाँ !
कितने हारे - कितने मारे फिर भी देखो इस हुजूम को -
मिट्टी की भी गूँज हिला देती है यारो आसमां !
अपने तो इस देश में यारो हमने बस दो मौसम देखे
ReplyDeleteबाढ़ आँख में आंसू लाये, सूखा लाये धूल-धुंआ !
दिल्ली से फरमान हुजूरे आला लेकर आये हैं -
सड़कों पर कैसे आ निकला कीचड़ में जो पावँ सना !
बहुत सुंदर लगी - धन्यवाद्.
बहुत अच्छी रचना...बधाई
ReplyDelete