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Monday, May 31, 2010

देर हो जाने की नियति या दुख!

आज फिर अशोक वाजपेयी की ही कविता। साल 1994 की। देर हो जाने की नियति या देर हो जाने के दुख के साथ। पढ़नेवाले को संजीदा कर देती है यह कविता।

० देर हो जाएगी/अशोक वाजपेयी ०  

देर हो जाएगी-
बंद हो जाएगी समय से कुछ मिनिट पहले ही
उम्मीद की खिड़की
यह कहकर कि गाड़ी में अब कोई सीट खाली नहीं।
देर हो जाएगी
कड़ी धूप और लू के थपेड़ों से राहत पाने के लिए
किसी अनजानी परछी में जगह पाने में,
एक प्राचीन कवि के पद्य में नहीं
स्वप्न में उमगे रूपक को पकड़ने में,
हरे वृक्ष की छांह में प्यास से दम तोड़ती चिड़िया तक
पानी ले जाने में
देर हो जाएगी-

घूरे पर पड़े
सपनों स्मृतियों इतिहास के चिथड़ों को नबेरने
पड़ोसी के आंगन में अकस्मातू गिर पड़ी
बालगेंद को वापस लाने,
यातना की सार्वजनिक छवियों में दबे निजी सच को जानने,
आत्मा के घुप्प दुर्ग में एक मोमबत्ती जलाकर खोजने
सबमें देर हो जाएगी-

देर हो जाएगी पहचान में
देर हो जाएगी स्वीकार में
देर हो जाएगी अवसान में।

Sunday, May 30, 2010

अशोक वाजपेयी की एक और प्यारी कविता

अशोक वाजपेयी की कविता के कई रंग हैं। उनके पास अपनी काव्यभाषा और अपना मुहावरा है। उनमें मूर्तन-अमूर्तन की लुकाछिपी, सूक्ष्म को स्थूल-स्थूल को सूक्ष्म तथा प्रत्यक्ष को अप्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष बनाकर कविता में उपस्थित करने की असाधारण योग्यता है। पढि.ए यह कविता-

:: उम्मीद चुनती है " शायद " ::

उम्मीद चुनती है अपने लिए एक छोटा-सा शब्द
शायद-

जब लगता है कि आधी रात को
दरवाजे पर दस्तक देगा वर्दीधारी
किसी न किए गए जुर्म के लिए लेने तलाशी
तब अंधेरे में पालतू बिल्ली की तरह
कोने में दुबकी रहती है उम्मीद
यह सोचते हुए कि बाहर सिर्फ हवा हो
शायद।

फूलों से दबे संदिग्ध देवता के सामने हो रही
कनफोड़ आरती, कीर्तन
और घी-तेल की चीकट गंध में
किसी भुला दिए गए मंत्र की तरह
सुगबुगाती है उम्मीद
कि शायद आपके नैवेद्य और चिपचिपाती भक्ति के नीचे
रखी रह गई हो थोड़ी-सी सच्ची भक्ति

जब लगता है कि भीड़भाड़ भरी सड़क पर
सामने से बेतहाशा तेज आ रहा बेरहम ट्रक
कुचलकर चला जाएगा
उस न-जाने कहां से आ गई बच्ची को
तभी उम्मीद
किसी खूसट बुढि.या की तरह
न-जाने कहां से झपटकर
उसे उठा ले जाएगी
नियति और दुर्घटना की सजी-धजी दुकानों के सामान को
तितर-बितर करते हुए।

शायद एक शब्द है
जो बचपन में बकौली के नीचे खेलते हुए
अकस्मात झरा था फूल की तरह-
शायद एक पत्थर जो खींचकर किसी ने मारा था
परीक्षा में अच्छे नंबर न पाने की उदासी पर-
शायद एक खिड़की है जिससे देखा था
धूमिल होती जाती प्रियछवि को
शायद एक अनजली अस्थि है
जिसे मित्रशव को फूंकने के बाद
हम वहीं भूल गए
जहां चिता थी
और जिसे आजतक किसी नदी में सिरा नहीं पाए हैं।

उम्मीद ने चुना है
एक छोटा-सा पथहारा शब्द
"शायद" ।

Friday, May 28, 2010

अशोक वाजपेयी की कविता

हिन्दी के सुपरिचित कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी की लगभग तीस बरस पुरानी यानी 1990 में लिखी यह कविता जीवन में जिन जरूरी चीजों को सहेजने की बात करती है, उससे भला कौन सहमत नहीं होगा? यहां जीवन को अपनी तरह से जीने और बरतने का भी मामला है। पढि.ए कविता-

:: एक बार जो ::
एक बार जो ढल जाएंगे
शायद ही फिर खिल पाएंगे।

फूल शब्द या प्रेम
पंख स्वप्न या याद
जीवन से जब छूट गए तो
फिर न वापस आएंगे।
अभी बचाने या सहेजने का अवसर है
अभी बैठकर साथ
गीत गाने का क्षण है।

अभी मृत्यु से दांव लगाकर
समय जीत जाने का क्षण है।

कुम्हलाने के बाद
झुलसकर ढह जाने के बाद
फिर बैठ पछताएंगे।

एक बार जो ढल जाएंगे
शायद ही फिर खिल पाएंगे।

Monday, May 24, 2010

यह गरमी तो...!

अरविंद चतुर्वेद
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यह गरमी तो पिघला देगी!
हमें-आपको पिघला देगी।

झुलस रहे जो फुटपाथों पर
वे क्यों भला बजाएं ताली
नेताजी की आग उगलती बातों पर!
झटके पर झटका खाते हैं
वे बेचारे, सरकार और मौसम की
सारी उलटी-सीधी घातों पर।

लोकतंत्र में लोक कहां है
हमें-आपको सिखला देगी
यह गर्मी तो पिघला देगी।

उन्हें नहीं, जो
यहां-वहां फर्राटे  भरते
एसी-कूलर-स्वीमिंग पूल
उनकी सहज अमीरी के
हाथों की मैल-पांव की धूल
यह गरमी सौ मील दूर
भागेगी उनसे,
चील्ड-चील्ड चस्के का
चटखारा लेकर
मौसम उनके लिए मजा है
हमें-आपके लिए सजा है

लोकतंत्र में लोक कहां है
हमें-आपको सिखला देगी
यह गर्मी तो पिघला देगी।

Sunday, May 23, 2010

जनता का गाना

अरविंद चतुर्वेद :

बोलो यारो, अब भी क्या कुछ बाकी रहा जमाने में
कटे जिंदगी अपनी ऐसे, जैसे जेहलखाने में!
बोझा ढोओ मत सुस्ताओ
हंसकर कहो कहानी,
बीते जुग की बात नहीं है
राजा भी हैं, रानी
उनके घोड़े-हाथी भी हैं सबकुछ है तहखाने में
कटे जिंदगी अपनी ऐसे, जैसे जेहलखाने में!
बाढ़, गरीबी और भुखमरी
सब ईश्वर के हाथ है,
ईश्वर का लायक बेटा तो
बिल्कुल दामन-पाक है
माटी, कोइला, धूल-धुआं सब तेरे खाते-खाने में
कटे जिंदगी अपनी ऐसे, जैसे जेहलखाने में!
देखो, उनका कपड़ा-लत्ता
उनकी मोटर कार,
बरसात बावरी तुम पर भाई
आए कीचड़-मार
तुम जाड़े में ठिठुरो जादू नाखूनी दस्ताने में
कटे जिंदगी अपनी ऐसे, जैसे जेहलखाने में!

Thursday, May 20, 2010

लीप-पोतकर किया बराबर

(उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार के तीन साल पूरे होने पर)
अरविंद चतुर्वेद
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लीप-पोतकर किया बराबर!
पहन-पहन कर नोट की माला
बैठ गइं यूपी की खाला
हुआ खजाना खाली,
दरबार सजाकर आलीशान
चाटुकार करते गुणगान
चलो, बजाओ ताली,
पूरब से पच्छिम तक देखो सजी हुई सरकार सरासर।
                                     लीप-पोतकर किया बराबर॥

किसकी काशी किसका काबा
यह माया की नगरी बाबा,
चौका-चूल्हा कोई सजाए
बड़े पेट वालों का ढाबा,
तीन साल में तेरह झटके
क्या मजाल कोई पास में फटके,
औघड़ शासन एक पहाड़
जहां न पहुंचे सूखा-बाढ़,
जनता चाहे झोंके भाड़
अपने हाथी की चिग्घाड़,
दलित मंत्र है औ ताबीज
अपना पटूटा-अपनी लीज,
अपना हाथी घूम रहा है
अपना हाथी झूम रहा है,
बहुजन हुए सर्वजन जबसे सब धन बाइस सेर बिरादर।
                                      लीप-पोतकर किया बराबर॥

Sunday, May 16, 2010

निरुपमाओं के लिए निर्मम खाप फरमानों के इस दौर में

यह बेहद क्रूर और कठिन दौर है कोमल-तरल सम्बंधों के लिए। खूबसूरती के खिलाफ बदसूरत और सुगंध के खिलाफ दुर्गन्ध भरा दौर। निरूपमाओं के लिए निर्मम खाप फरमानों के इस दौर में पढि.ए नीलेश रघुवंशी की एक बेहद मार्मिक कविता। हिन्दी कविता की दुनिया में नीलेश रघुवंशी जाना-पहचाना, बहुचर्चित नाम है। अभी-अभी किताबघर प्रकाशन से छपकर आई है उनकी कविता पुस्तक " पानी का स्वाद "। इसी संग्रह की कविता है यह-

छिपाकर
नीलेश रघुवंशी
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पड़ोस के लड़के से ब्याह किया
छोटी बहन ने
सबसे छोटी और लाड़ली बेटी
छोड़कर गई मां को, रोई नहीं कंधे से लगकर
लाख रोई मां, सोई रही कई दिन,
फिर भी नहीं पिघले पिता और भाई
छोड़ा मोहल्ला बहन और लड़के ने
रावण की गैल और सीता का मायका
एक जगह कैसे?

जानता है लड़का अच्छी तरह, मां की सीता
को हरकर ले गया वह
मां जी-भर कोसती है लड़के को
मेरी फूल-सी नाजुक लड़की को ले गया
बहला-फुसलाकर
कहीं का नहीं छोड़ा पापी ने
छोटी बहन सुनेगी तो हंसेगी खूब,
झूल जाएगी गले से मम्मी कहते
हाथ में दीया-माचिस लेकर जाती है मां
मंदिर, दोनों समय कई बरसों से

घंटों बैठती है अब मंदिर में मां
कभी-कभार कांख में छिपाकर
दीये के संग ले जाती है अचार
मां छोटी बहन से मंदिर में मिलती है।

Monday, May 3, 2010

॥ आकाश में आगामारी पंछी॥

(मुंडारी लोकगीत का काव्यांतर : सोलह)

देखो जरा, आकाश में आगामारी पंछी
कैसे उड़ रहे हैं कतार में
उनके डैनों के छोर पर
गोया चमचमा रही हैं चांदी की झालरें।
और देखो, वर्षा को निमंत्रण देनेवाले
चील और हेडे पंछी भी
कैसे उलट-पुलट कर उड़ रहे हैं
जिनके गले में सुशोभित है मूंगों की माला।

पंखों में चांदी की झालर पहने
ये पंछी भला कहां उतरने वाले हैं?
गले में मूंगों की माला पहने
ये पंछी भला किधर जा रहे हैं?

बुंडू बाजार के मैदान में लहरा रहे हैं
चमा घास के फूल,
देखो, वे उन्हीं पर उतर गए।
और देखो, वे चले जा रहे हैं तमाड़ की ओर

वहां की तराई में
डम्बुर घास की कलियां
लहलहा रही हैं।

॥ डरपोक और डिगने वाले नहीं॥

(मुंडारी लोकगीत का काव्यांतर : पंद्रह)

डूराडीह गांव का कुंदन मुंडा
नहीं है डरपोक,
रामगढ़ का रतन मुंडा डिगने वाला नहीं है।

धौंस-पटूटी जमाने वालों और
दारोगा-सिपाहियों से
नहीं डरने वाला वह,
छैल चिकनिया बाबुओं के
झांसे में नहीं आनेवाला
नहीं है डिगने वाला वह,

चटूटान जैसी छाती है उसकी
वह डरने वाला नहीं है।
लकड़ी के कुंदे जैसी भुजाएं हैं उसकी
वह डिगने वाला नहीं है।