साथ-साथ

Sunday, October 23, 2011

भोंदू जी की सर्दियां

वीरेन डंगवाल
बहुत प्यारे कवि और अपनी ही धज की कविताएं लिखने वाले वीरेन डंगवाल की कविताओं के लिए उनके मुरीदों को हमेशा इंतजार और उत्सुकता रहती है। उनकी कविता पुस्तकें दुष्चक्र में स्रष्टा और स्याही ताल बहुतों के लिए धरोहर सरीखी हैं। पढि.ए इस मौसम की यह कविता...

आ गई हरी सब्जियों की बहार
पराठे मूली के, मिर्च, नींबू का अचार

मुलायम आवाज में गाने लगे मुंह-अंधेरे
कउए सुबह का राग शीतल कठोर
धूल और ओस से लथपथ बेर के बूढ़े पेड़ में
पक रहे चुपके से विचित्र सुगंधवाले फल
फेरे लगाने लगी गिलहरी चोर

बहुत दिनों बाद कटा कोहरा खिला घाम
कलियुग में ऐसे ही आते हैं सियाराम

नया सूट पहन बाबू साहब ने
नई घरवाली को दिखलाया बांका ठाठ
अचार से परांठे खाए सर पर हेल्मेट पहना
फिर दहेज की मोटर साइकिल पर इतराते
ठिठुरते हुए दफ्तर को चले

भोंदू की तरह।

Saturday, October 22, 2011

आजकल नेपथ्य में संभावना है

दुष्यंत कुमार
नई कविता आंदोलन के प्रतिष्ठित कवि दुष्यंत कुमार को सबसे ज्यादा उनकी गजलों के लिए जाना गया। यहां पेश हैं उनकी गजलों की किताब साये में धूप से तीन गजलें...

॥ एक ॥
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है।
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है॥

सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है॥

इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पांव घुटनों तक सना है॥

पक्ष औ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है॥

रक्त वषों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है॥

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है॥

दोस्तो! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है॥

॥ दो ॥
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है।
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है॥

वे कर रहे हैं इश्क पे संजीदा गुफ्तगू,
मैं क्या बताऊं मेरा कहीं और ध्यान है॥

सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर
झोले में उसके पास कोई संविधान है॥

उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप
वो आदमी नया है मगर सावधान है॥

फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है॥

देखे हैं हमने दौर कई अब खबर नहीं
पैरों तले जमीन है या आसमान है॥

वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेजुबान है॥

॥ तीन ॥
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है।
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है॥

एक चिनगारी कहीं से ढूंढ़ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है॥

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है॥

एक चादर सांझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है॥

निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से ओट में जा-जा के बतियाती तो है॥

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है॥

Friday, October 7, 2011

दशरथ की एक बेटी थी शान्ता

बोधिसत्व
बहुचर्चित कवि बोधिसत्व की यह कविता हाल ही किसी ब्लॉग पर पढ़ी थी। रामलीला के इस मौसम में आप भी पढि.ए, यह कविता बहुत-कुछ सोचने पर विवश करेगी आपको।
दशरथ की एक बेटी थी शान्ता
लोग बताते हैं
जब वह पैदा हुई
अयोध्या में अकाल पड़ा
बारह वषों तक
धरती धूल हो गयी!

चिन्तित राजा को सलाह दी गयी कि
उनकी पुत्री शान्ता ही अकाल का कारण है!

राजा दशरथ ने अकाल दूर करने के लिए
श्रृंगी ऋषि को पुत्री दान दे दी

उसके बाद शान्ता
कभी नहीं आयी अयोध्या
लोग बताते हैं
दशरथ उसे बुलाने से डरते थे

बहुत दिनों तक सूना रहा अवध का आंगन
फिर उसी शान्ता के पति श्रृंगी ऋषि ने
दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ कराया
दशरथ चार पुत्रों के पिता बन गये
संतति का अकाल मिट गया

शान्ता राह देखती रही
अपने भाइयों की
पर कोई नहीं गया उसे आनने
हाल जानने कभी

मर्यादा पुरूषोत्तम भी नहीं,
शायद वे भी रामराज्य में अकाल पड़ने से डरते थे
जबकि वन जाते समय
राम
शान्ता के आश्रम से होकर गुजरे थे
पर मिलने नहीं गये

शान्ता जब तक रही
राह देखती रही भाइयों की
आएंगे राम-लखन
आएंगे भरत-शत्रुघ्न

बिना बुलाये आने को
राजी नहीं थी शान्ता
सती की कथा सुन चुकी थी बचपन में,
दशरथ से!