साथ-साथ

Tuesday, May 15, 2012

दर्द का अपना इक मकान भी था

दर्द का अपना इक मकान भी था श्याम सखा श्याम कवि और कथाकार-उपन्यासकार श्याम सखा श्याम ने बुनियादी तौर पर तो इलाज वाली डाक्टरी की पढ़ाई की है और वे एमबीबीएस, एफसीजीपी हैं, लेकिन उन्होंने रचनाकर्म पर पीएच.डी. और चार एम.फिल शोधकार्य भी किए हैं। उनके लेखन का क्षेत्र व्यापक है और हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी व हरियाणवी में उनकी कृतियां प्रकाशित व प्रशंसित हैं। हरियाणवी साहित्य अकादमी के निदेशक श्याम जी के गजलों की ताजा किताब शुक्रिया जिंदगी अभी-अभी हिंदी युग्म से छपकर आई है। पढि.ए इसी किताब की यह गजल- ॥ एक॥ जख्म था, जख्म का निशान भी था दर्द का अपना इक मकान भी था। दोस्त था और मेहरबान भी था ले रहा मेरा इम्तिहान भी था। शेयरों में गजब उफान भी था कर्ज में डूबता किसान भी था। आस थी जीने की अभी बाकी रास्ते में मगर मसान भी था। कोई काम आया कब मुसीबत में कहने को अपना खानदान भी था। मर के दोजख मिला तो समझे हम वाकई दूसरा जहान भी था। उम्र भर साथ था निभाना जिन्हें फासिला उनके दरमियान भी था। खुदकुशी श्याम कर ली क्यों तूने तेरी किस्मत में आसमान भी था। श्याम सखा श्याम कवि और कथाकार-उपन्यासकार श्याम सखा श्याम ने बुनियादी तौर पर तो इलाज वाली डाक्टरी की पढ़ाई की है और वे एमबीबीएस, एफसीजीपी हैं, लेकिन उन्होंने रचनाकर्म पर पीएच.डी. और चार एम.फिल शोधकार्य भी किए हैं। उनके लेखन का क्षेत्र व्यापक है और हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी व हरियाणवी में उनकी कृतियां प्रकाशित व प्रशंसित हैं। हरियाणवी साहित्य अकादमी के निदेशक श्याम जी के गजलों की ताजा किताब शुक्रिया जिंदगी अभी-अभी हिंदी युग्म से छपकर आई है। पढि.ए इसी किताब की यह गजल-

जख्म था, जख्म का निशान भी था
दर्द का अपना इक मकान भी था।

दोस्त था और मेहरबान भी था
ले रहा मेरा इम्तिहान भी था।

शेयरों में गजब उफान भी था
कर्ज में डूबता किसान भी था।

आस थी जीने की अभी बाकी
रास्ते में मगर मसान भी था।

कोई काम आया कब मुसीबत में
कहने को अपना खानदान भी था।

मर के दोजख मिला तो समझे हम
वाकई दूसरा जहान भी था।


उम्र भर साथ था निभाना जिन्हें
फासिला उनके दरमियान भी था।

खुदकुशी श्याम कर ली क्यों तूने
तेरी किस्मत में आसमान भी था।

Sunday, May 13, 2012

अदम गोंडवी की दो गजलें

धरती की सतह पर नाम से अदम गोंडवी की गजलों की किताब दिल्ली के किताबघर से अभी-अभी छपी है। जाहिर है, गजलें नई तो नहीं हैं लेकिन इन्हें बार-बार पढ़ा जा सकता है और यह किताब अपने संग्रह में रखी जा सकती है। पढि.ए इसी संग्रह की दो गजलें- ॥ एक॥ टीवी से अखबार तक गर सेक्स की बौछार हो फिर बताओ कैसे अपनी सोच का विस्तार हो। बह गए कितने सिकंदर वक्त के सैलाब में, अक्ल इस कchche घड़े से कैसे दरिया पार हो। सभ्यता ने मौत से डरकर उठाए हैं कदम, ताज की कारीगरी या चीन की दीवार हो। मेरी खुदूदारी ने अपना सिर झुकाया दो जगह, वो कोई मजलूम हो या साहिबे-किरदार हो। एक सपना है जिसे साकार करना है तुम्हें, झोपड़ी से राजपथ का रास्ता हमवार हो। ॥ दो॥ मुक्तिकामी चेतना, अभ्यर्थना इतिहास की ये समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की। आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वण्रिम अतीत, वो कहानी है महज प्रतिशोध की, संत्रास की। यक्ष-प्रश्नों में उलझकर रह गई बूढ़ी सदी, ये प्रतीक्षा की घड़ी है क्या हमारी प्यास की। इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया, सेक्स की रंगीनियां या गोलियां सल्फास की। याद रखिए यूं नहीं ढलते हैं कविता में विचार, होता है परिपाक धीमी आंच पर एहसास की।