साथ-साथ

Friday, October 29, 2010

कुछ इश्क किया कुछ काम किया

1911 में अविभाजित पंजाब के सियालकोट-जो अब पाकिस्तान में है-में जनमे फैज अहमद फैज जितना पाकिस्तान में लोकप्रिय हैं, उससे जरा भी कम उनकी लोकप्रियता  भारत में नहीं है। जन्मशती वर्ष में इस हरदिल अजीज शायर की पढि.ए यह कविता...
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वो लोग बहुत खुश-किस्मत थे
जो इश्क को काम समझते थे
या काम से आशिकी करते थे
हम जीते-जी मसरूफ रहे
कुछ इश्क किया, कुछ काम किया

काम इश्क के आड़े आता रहा
और इश्क से काम उलझता रहा
फिर आखिर तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया

Monday, October 25, 2010

इन सलाखों से टिकाकर भाल

1976 आजाद हिंदुस्तान में इमरजेंसी का साल था। इसके पहले 1974 के जेपी आंदोलन यानी संपूर्ण क्रांति आंदोलन में बाबा नागार्जुन  ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था और पटना से लेकर बनारस तक नुक्कड़ सभाओं में अपने खास अंदाज में कविताएं सुनाकर सत्ता की निरंकुशता पर प्रहार किया था। सो इमरजेंसी लगी तो कवि नागार्जुन को भी जेल में डाल दिया गया। उन दिनों की लिखी उनकी दो छोटी कविताएं पढि.ए...

इन सलाखों से टिकाकर भाल/ नागार्जुन
इन सलाखों से टिकाकर भाल
सोचता ही रहूंगा चिरकाल
और भी तो पकेंगे कुछ बाल
जाने किसकी/ जाने किसकी
और भी तो गलेगी कुछ दाल
न टपकेगी कि उनकी राल
चांद पूछेगा न दिल का हाल
सामने आकर करेगा वो न एक सवाल
मैं सलाखों में टिकाए भाल
सोचता ही रहूंगा चिरकाल

रहा उनके बीच मैं/ नागार्जुन
रहा उनके बीच मैं!
था पतित मैं, नीच मैं
दूर जाकर गिरा, बेबस उड़ा पतझड़ में
धंस गया आकंठ कीचड़ में
सड़ी लाशें मिलीं
उनके मध्य लेटा रहा आंखें मीच, मैं
उठा भी तो झाड़ आया नुक्कड़ों पर स्पीच, मैं!
रहा उनके बीच मैं!
था पतित मैं, नीच मैं!!

Sunday, October 24, 2010

ओं महामहिम, महामहो, उल्लू के पटूठे...

हिन्दी कविता के आधुनिक कबीर, जनकवि नागार्जुन  का जन्मशती वर्ष है यह। 1911 में बिहार के दरभंगा जिले के तरौनी गांव में जन्मे बाबा नागार्जुन ने गांव से निकल कर देशभर में खूब यायावरी की थी। 1969 में आई उनकी एक अत्यंत चर्चित कविता है- मंत्र कविता। जिसमें इस अक्खड़, फक्कड़ और घुमक्कड़ कवि के व्यंग्य का रंग खूब-खूब दिखाई देता है।

मंत्र कविता/ नागार्जुन

ओं शब्द ही ब्रह्म है
ओं शब्द और शब्द और शब्द और शब्द
ओं प्रणव, ओं नाद, ओं मुद्राएं
ओं वक्तव्य, ओं उदूगार, ओं घोषणाएं
ओं भाषण...
ओं प्रवचन...
ओं हुंकार, ओं फटकार, ओं शीत्कार
ओं फुसफुस, ओं फुत्कार, ओं चित्कार
ओं आस्फालन, ओं इंगित, ओं इशारे
ओं नारे और नारे और नारे और नारे

ओं सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ
ओं कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं
ओं पत्थर पर की दूब, खरगोश के सींग
ओं नमक-तेल-हल्दी-जीरा-हींग
ओं मूस की लेड़ी, कनेर के पात
ओं डायन की चीख, औघड़ की अटपट बात
ओं कोयला-इस्पात-पेट्रोल
ओं हमी हम ठोस, बाकी सब फूटे ढोल

ओं इदमन्नं, इमा आप:, इदमाज्यं, इदं हवि
ओं यजमान, ओं पुरोहित, ओं राजा, ओं कवि:
ओं क्रांति: क्रांति: क्रांति: सर्वग्वं क्रांति:
ओं शांति: शांति: शांति: सर्वग्वं शांति:
ओं भ्रांति भ्रांति भ्रांति सर्वग्वं भ्रांति:
ओं बचाओ बचाओ बचाओ बचाओ
ओं हटाओ हटाओ हटाओ हटाओ
ओं घेराओ घेराओ घेराओ घेराओ
ओं निभाओ निभाओ निभाओ निभाओ

ओं दलों में एक दल अपना दल, ओं
ओं अंगीकरण, शुद्धीकरण, राष्ट्रीकरण
ओं मुष्टीकरण, तुष्टीकरण, पुष्टीकरण
ओं एतराज, आक्षेप, अनुशासन
ओं गदूदी पर आजन्म वज्रासन
ओं ट्रिब्युनल ओं आश्वासन
ओं गुटनिरपेक्ष सत्तासापेक्ष जोड़तोड़
ओं छल-छंद, ओं मिथ्या, ओं होड़महोड़
ओं बकवास, ओं उदूघाटन
ओं मारण-मोहन-उच्चाटन

ओं काली काली काली महाकाली महाकाली
ओं मार मार मार, वार न जाए खाली
ओं अपनी खुशहाली
ओं दुश्मनों की पामाली
ओं मार, मार, मार, मार, मार, मार, मार
ओं अपोजिशन के मुंड बनें तेरे गले का हार
ओं एें हीं वली हूं आङू
ओं हम चबाएंगे तिलक और गांधी की टांग
ओं बूढ़े की आंख, छोकरी का काजल
ओं तुलसीदल, बिल्वपत्र, चंदन, रोली, अक्षत, गंगाजल
ओं शेर के दांत, भालू के नाखून, मर्कट का फोता
ओं हमेशा हमेशा हमेशा करेगा राज मेरा पोता
ओं छू: छू: फू: फू: फट फिट फुट
ओं शत्रुओं की छाती पर लोहा कुट

ओं भैरो, भैरो, भैरो, ओं बजरंगबली
ओं बंदूक का टोटा, पिस्तौल की नली
ओं डालर, ओं रूबल, ओं पाउंड
ओं साउंड, ओं साउंड, ओं साउंड

ओमू ओमू ओमू
ओमू धरती धरती धरती, व्योमू व्योमू व्योमू
ओं अष्टधातुओं की इंटों के भटूठे
ओं महामहिम, महामहो, उल्लू के पटूठे
ओं दुर्गा दुर्गा दुर्गा तारा तारा तारा
ओं इसी पेट के अंदर समा जाए सर्वहारा
हरि: ओं तत्सतू हरि: ओं तत्सतू

Sunday, October 10, 2010

उनको प्रणाम!

हिन्दी कविता के आधुनिक कबीर, जनकवि नागार्जुन  का जन्मशती वर्ष है यह। 1911 में बिहार के दरभंगा जिले के तरौनी गांव में जन्मे बाबा नागार्जुन ने गांव से निकल कर देशभर में खूब यायावरी की थी। अनेक जनांदोलनों में उन्होंने भाग लिया था और जनजीवन के संघषों से खुराक लेकर जिस कविता-संसार का उन्होंने निर्माण किया, वह आज भी हमें प्रेरणा देता है। प्रस्तुत है 1939 में लिखी उनकी एक अत्यंत चर्चित कविता...

उनको प्रणाम/ नागार्जुन
जो नहीं हो सके पूर्ण-काम
मैं उनको करता हूं प्रणाम।

कुछ कुंठित औ कुछ लक्ष्य-भ्रष्ट
जिनके अभिमंत्रित तीर हुए,
रण की समाप्ति के पहले ही
जो वीर रिक्त तूणीर हुए!
              - उनको प्रणाम!
जो छोटी-सी नैया लेकर
उतरे करने को उदधि पार,
मन की मन में ही रही, स्वयं
हो गए उसी में निराकार!
                 - उनको प्रणाम!
जो उच्च शिखर की ओर बढ़े
रह-रह नव-नव उत्साह भरे,
पर कुछ ने ले ली हिम-समाधि
कुछ असफल हो नीचे उतरे!
                  - उनको प्रणाम!
एकाकी और अकिंचन हो
जो भू-परिक्रमा को निकले,
हो गए पंगु, प्रति-पद इतने
अदृष्ट के दांव चले!
               - उनको प्रणाम!
कृत-कृत्य नहीं जो हो पाए
प्रत्युत फांसी पर गए झूल
कुछ ही दिन बीते हैं, फिर भी
यह दुनिया जिनको गई भूल!
                 - उनको प्रणाम!
थी उग्र साधना, पर जिनका
जीवन नाटक दु:खांत हुआ,
थी जन्म-काल में सिंह लग्न
पर कुसमय ही देहांत हुआ!
                - उनको प्रणाम!
दृढ़ व्रत औ दुर्दम साहस के
जो उदाहरण थे मूर्ति-मंत,
पर निरवधि बंदी जीवन ने
जिनकी धुन का कर दिया अंत!
                 - उनको प्रणाम!
जिनकी सेवाएं अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिए मनोरथ चूर-चूर!
               - उनको प्रणाम!

Thursday, October 7, 2010

खो गई हैं कितनी चीजें

हमारे बीच से कितनी ही चीजें खो गई हैं, और लगातार खोती जा रही हैं- खासकर शहरी जीवन में। लेकिन देखिए कि आपाधापी कितनी है कि चीजों के खोने का अहसास भी नहीं होता। कवि विनोद दास की यह कविता कुछ खोने का अहसास कराती है...

एक वृक्ष की तरह नहीं/ विनोद दास

एक वृक्ष की तरह नहीं
एक प्रवासी-सा
सिर झुकाए खड़ा है
शहर में पेड़

इस्पाती डैनों के आतंक से
फुनगियों पर गप्प लगाने अब कम आते हैं
उसके चिरसखा कौव्वे और तोते

एक वृक्ष की तरह नहीं
एक निराश मित्र की तरह
सड़क किनारे खड़ा है
शहर में पेड़

सड़क की चिल्लपो से
गिलहरियों की उड़ जाती है नींद
और उन्होंने तज दिया
खोखल सरीखा पुराकालीन
पैतृक आवास

एक वृक्ष की तरह नहीं
दंगाग्रस्त इलाके के
एक निर्जन घर की तरह है
शहर में पेड़
उसकी हरी छाया हो गई है स्याह
प्रसन्न टहनियां जब लगाती हैं तेज पेंग
छूटने लगती है उसकी हंफनी
दमा मरीज की तरह

एक वृक्ष की तरह नहीं
पांव कटे एक सैनिक की तरह
अपनी सांस गिन रहा है
शहर में वह पेड़।

खो गई हैं कितनी चीजें

हमारे बीच से कितनी ही चीजें खो गई हैं, और लगातार खोती जा रही हैं- खासकर शहरी जीवन में। लेकिन देखिए कि आपाधापी कितनी है कि चीजों के खोने का अहसास भी नहीं होता। कवि विनोद दास की यह कविता कुछ खोने का अहसास कराती है...

एक वृक्ष की तरह नहीं/ विनोद दास

एक वृक्ष की तरह नहीं
एक प्रवासी-सा
सिर झुकाए खड़ा है
शहर में पेड़

इस्पाती डैनों के आतंक से
फुनगियों पर गप्प लगाने अब कम आते हैं
उसके चिरसखा कौव्वे और तोते

एक वृक्ष की तरह नहीं
एक निराश मित्र की तरह
सड़क किनारे खड़ा है
शहर में पेड़

सड़क की चिल्लपो से
गिलहरियों की उड़ जाती है नींद
और उन्होंने तज दिया
खोखल सरीखा पुराकालीन
पैतृक आवास

एक वृक्ष की तरह नहीं
दंगाग्रस्त इलाके के
एक निर्जन घर की तरह है
शहर में पेड़
उसकी हरी छाया हो गई है स्याह
प्रसन्न टहनियां जब लगाती हैं तेज पेंग
छूटने लगती है उसकी हंफनी
दमा मरीज की तरह

एक वृक्ष की तरह नहीं
पांव कटे एक सैनिक की तरह
अपनी सांस गिन रहा है
शहर में वह पेड़।