साथ-साथ

Wednesday, August 31, 2011

उड़ते हुए भी अपनी चहक छोड़ जाएगा

1988 में छपी ज्ञानप्रकाश विवेक की दो गजलें यहां पेश हैं। इन्हें पढ़कर आप खुद सोच सकते हैं कि दुनिया चाहे जितनी तेजी से बदल रही हो, मगर आज लगभग 23 साल बाद भी ये अहसास कितने ताजा हैं और कतई बासी नहीं हुए हैं...

एक      
ये कारवाने वक्त कसक छोड़ जाएगा  
हर रास्ते पर अपने सबक छोड़ जाएगा।
मारोगे तुम गुलेल परिंदे को, और वो
उड़ते हुए भी अपनी चहक छोड़ जाएगा।
जुगनू की सादगी का मैं कैसे करूं बयां   
मर जाएगा, मगर वो चमक छोड़ जाएगा।
है चांद तो लिखेगा मेरे हाथ पर नमन
आकाश है तो अपना उफक छोड़ जाएगा। 
उतरेगा बादलों की तरह लम्स जब तेरा
मेरी हथेलियों पे धनक छोड़ जाएगा।
बारूद बनके आएगा वो मेरे घर कभी 
कुछ दे न दे, पर अपनी धमक छोड़ जाएगा। 
तू मानता है अपना मुकद्दर जिसे विवेक 
जख्मों पे तेरे वो भी नमक छोड़ जाएगा।

दो
ऐ जिंदगी तू मुझको जरा आजमा के देख 
मैं आइना हूं, मुझमें जरा मुस्करा के देख। 
मैं रेत पर लिखा हुआ अक्षर नहीं कोई
तुझको नहीं यकीन तो मुझको मिटा के देख।   
शीशा हूं टूटकर भी सदा छोड़ जाऊंगा
पत्थर पे एक  बार तू मुझको गिरा के देख।  
तुझमें परिंदे अपनी बनाएंगे बस्तियां
खुद को तू एक बार शजर-सा बना के देख।  
सपना हूं मैं तो फेंक दे आंखों को खोलकर  
आंसू हूं मैं तो अपनी पलक पर उठा के देख। 
क्या जाने टूट जाए अंधेरों का हौसला
इन आंधियों में तू भी जरा झिलमिला के देख।

Saturday, August 27, 2011

जय हो लोकनायक : भीड़-भाड़ ने पुकारा

नागार्जुन
1974 में शुरू हुआ बिहार का छात्र-युवा आंदोलन लोकनायक जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में देखते ही देखते देशव्यापी संपूर्ण क्रांति में बदल गया था। लेकिन अंतत: उसकी परिणति व्यवस्था परिवर्तन न होकर महज सत्ता परिवर्तन बन कर रह गई और जेपी का मकसद पूरा नहीं हो सका। बाबा नागार्जुन ने 1978 में इसी को लक्ष्य कर यह कविता लिखी थी ...

जय हो लोकनायक : भीड़-भाड़ ने पुकारा
जीत हुई पटना में, दिल्ली में हारा
क्या करता आखिर, बूढ़ा बेचारा
तरूणों ने साथ दिया, सयानों ने मारा
जय हो लोकनायक : भीड़-भाड़ ने पुकारा

लिया नहीं संग्रामी श्रमिकों का सहारा
किसानों ने यह सब संशय में निहारा
छू न सकी उनको प्रवचन की धारा
सेठों ने थमाया हमदर्दी का दुधारा
क्या करता आखिर बूढ़ा बेचारा

कुएं से निकल आया बाघ हत्यारा
फंस गया उलटे हमदर्द बंजारा
उतरा नहीं बाघिन के गुस्से का पारा
दे न पाया हिंसा का उत्तर करारा
क्या करता आखिर बूढ़ा बेचारा

जय हो लोकनायक : भीड़-भाड़ ने पुकारा
मध्यवर्गीय तरूणों ने निष्ठा से निहारा
शिखरमुखी दल नायक पा गए सहारा
बाघिन के मांद में जा फंसा बिचारा
गुफा में बंद है शराफत का मारा

Saturday, August 20, 2011

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!

नागार्जुन

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है?
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है?
सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियां भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है
चोर है, डाकू है, झूठा-मक्कार है
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है
जैसे भी टिकट मिला, जहां भी टिकट मिला
शासन के घोड़े पर वह भी सवार है
उसी की जनवरी छब्बीस
उसी का पंद्रह अगस्त है
बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्त है
कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है
कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्त है
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा
मालिक बुलंद है, कुली-मजूर पस्त है
सेठ यहां सुखी है, सेठ यहां मस्त है
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मजदूर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
घरनी की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है!
देख लो जी, देख लो, देख लो जी, देख लो
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
फ्रिज है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सबकुछ उघाड़ है
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है
गरीबों की बस्ती में उखाड़ है, पछाड़ है
धतू तेरी, धतू तेरी, कुच्छो नहीं! कुच्छो नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं
पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है
कुच्छो नहीं, कुच्छो नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है!
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!
कौन यहां सुखी है, कौन यहां मस्त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मंत्री ही सुखी है, मंत्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है।

Thursday, August 18, 2011

गीली भादों, रैन अमावस!

शहरों में कहां देखने को मिलेगी गीले भादों की तिमिराच्छन्न अमावस की रात? वह रात, जिसे उत्तराखंड के जंगल में बाबा नागार्जुन ने न सिर्फ देखा था, बल्कि भरपूर जिया भी था। आप भी देखिए, वह रात, जो टीवी के परदे पर नहीं दिख सकती...

जान भर रहे हैं जंगल में/ नागार्जुन

गीली भादों
रैन अमावस...

कैसे ये नीलम उजास के
अच्छत छींट रहे जंगल में
कितना अदूभुत योगदान है
इनका भी वर्षा-मंगल में
लगता है ये ही जीतेंगे
शक्ति प्रदर्शन के दंगल में
लाख लाख हैं, सौ हजार हैं
कौन गिनेगा, बेशुमार हैं
मिल-जुलकर दिप-दिप करते हैं
कौन कहेगा, जल मरते हैं...
जान भर रहे हैं जंगल में

जुगनू हैं ये स्वयं प्रकाशी
पल-पल भास्वर पल-पल नाशी
कैसा अदूभुत योगदान है
इनका भी वर्षा-मंगल में

इनकी विजय सुनिश्चित ही है
तिमिर तीर्थ वाले दंगल में
इन्हें न तुम बेचारे कहना
अजी, यही तो ज्योति-कीट हैं
जान भर रहे हैं जंगल में

गीली भादों
रैन अमावस...

Sunday, August 14, 2011

शीशों का मसीहा कोई नहीं

स्वाधीनता दिवस की पूर्व संध्या पर पढि.ए इंसान और इंसानियत की जंग लड़ने वाली सबसे ताकतवर कलम से निकली एक शानदार नज्म- जी हां, फैज अहमद फैज की...

मोती हो के शीशा जाम के दुर
जो टूट गया, सो टूट गया
कब अश्कों से जुड़ सकता है
जो टूट गया, सो टूट गया

तुम नाहक टुकड़े चुन-चुनकर
दामन में छुपाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो

शायद के इन्हीं टुकड़ों में कहीं
वो सागर-ए-दिल है जिसमें कभी
सद नाज से उतरा करती थी
सहबा-ए-गम-ए-जाना की परी

फिर दुनिया वालों ने तुमसे
ये सागर लेकर फोड़ दिया
जो मय थी बहा दी मिटूटी में
मेहमान का शह-पर तोड़ दिया

ये रंगीं रेजे हैं शायद
उन शोख बिलूरी सपनों के
तुम मस्त जवानी में जिनसे
खिल्वत को सजाया करते थे

नादारी, दफ्तर, भूख और गम
इन सपनों से टकराते रहे
बेरहम था चौमुख पथराव
ये कांच के ढांचे क्या करते

या शायद इन जरों में कहीं
मोती है तुम्हारी इज्जत का
वो जिससे तुम्हारे इज्ज पे भी
शमशाद-कदों ने रश्क किया

इस माल की धुन में फिरते थे
ताजिर भी बहुत, रहजन भी कई
है चोर नगर यां मुफलिस की
गर जान बची तो आन गई

ये सागर, शीशे, लाल-ओ-गुहर
सालिम हों तो कीमत पाते हैं
यूं टुकड़े-टुकड़े हों तो फकत
चुभते हैं, लहू रूलवाते हैं

तुम नाहक शीशे चुन-चुनकर
दामन में छुपाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो।
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दुर= मोती, सद= सौ, सहबा-ए-गम-ए-जाना= प्रेमिका के विरह की शराब,
शह-पर= मुख्य पंख, रेजे= कण, खिल्वत= एकांत, नादारी= दरिद्रता, इज्ज= विनम्रता, शमशाद-कदों= अच्छे कदवाले यानी महबूब, सालिम= पूर्ण, पूरे।

Thursday, August 11, 2011

बैरी बिराजे राज सिंहासन

जब भी कोई जवान या सिपाही छत्तीसगढ़ में या कहीं और मारा जाता है तो अनायास फैज अहमद फैज की यह नज्म याद आ जाती है। इसे आप भी पढ़ लीजिए...

सिपाही का मर्सिया/ फैज अहमद फैज

उटूठो अब माटी से उटूठो
जागो मेरे लाल
अब जागो मेरे लाल
तुम्हारी सेज सजावन कारन
देखो आई रैन अंधियारन

नीले शाल-दोशाले लेकर
जिनमें इन दुखियन अंखियन ने
ढेर किए हैं इतने मोती
इतने मोती जिनकी ज्योती
दान से तुम्हारा
जगमग लागा
नाम चमकने

उटूठो अब माटी से उटूठो
जागो मेरे लाल
अब जागो मेरे लाल
घर-घर बिखरा भोर का कुंदन
घोर अंधेरा अपना आंगन
जाने कब से राह तके हैं
बाली दुल्हनिया, बांके वीरन
सूना तुम्हरा राज पड़ा है
देखो, कितना काज पड़ा है

बैरी बिराजे राज सिंहासन
तुम माटी में लाल
उटूठो अब माटी से उटूठो, जागो मेरे लाल
हठ न करो माटी से उटूठो, जागो मेरे लाल
अब जागो मेरे लाल।

Sunday, August 7, 2011

तीन और तिरसठ की प्रतिस्पर्धा

देश-विदेश में खूब घूम चुके और नौकरी भर परदेस में रहे हिंदी-मैथिली के प्रतिष्ठित कवि कीर्ति नारायण मिश्र सेवा निवृत्ति के बाद आजकल अपने पुश्तैनी परिवेश में बिहार के बरौनी जिलांतर्गत शोकहरा में रहते हैं। साहित्य अकादमी से पुरस्कृत कीर्ति नारायण जी की कविता और गद्य की 10 पुस्तकें अबतक प्रकाशित हो चुकी हैं। पढि.ए उनकी एक बहुत ही प्यारी कविता-

जया/ कीर्ति नारायण मिश्र

तुम्हारी शरारत भरी चुनौती पर
मैं भागता हूं तुम्हारे पीछे
कभी चौकठ
कभी किवाड़
कभी दीवार
से टकराकर गिरता हूं
सहलाने लगता हूं
अपना गठिया-ग्रस्त घुटना

तुम भागती हो तो भागती ही चली जाती हो
और मुड़ती हो तो आंधियों की तरह निकल जाती हो
- मुझे चिढ़ाती और अंगूठे दिखाती हुई
मैं लंगड़ाता हुआ
तुम्हारा पीछा करता रह जाता हूं
तीन और तिरसठ की यह प्रतिस्पर्धा
कितनी रोचक हो जाती है जया
जब मैं
हांफते-हांफते किलकारियां भरने लगता हूं
और तुम मेरे पास आ
मुझे प्यार से सहलाने-पुचकारने लगती हो।

Friday, August 5, 2011

शासन करता है संदेह

दिवंगत कवि श्रीकांत वर्मा का आखिरी कविता संग्रह मगध 1984 में छपा था। इसकी तमाम कविताओं में ऐतिहासिक पात्र और स्थान आते हैं, लेकिन ये कविताएं इतिहास की नहीं, वर्तमान की हैं। पढि.ए यह कविता...

चिल्लाता कपिलवस्तु/श्रीकांत वर्मा

महाराज! लौट चलें-
उज्जयिनी पर शासन की इच्छा
मेरी समझ में
व्यर्थ है-
उज्जयिनी
उज्जयिनी नहीं रही-
न न्याय होता है
न अन्याय

जैसे कि,
मगध
मगध नहीं रहा-
सभी हृष्टपुष्ट हैं
कोई नहीं रहा
कृशकाय

किसी में दया नहीं
किसी में
हया नहीं
कोई नहीं सोचता,
जो सोचता है
दोबारा नहीं सोचता।

लगभग यही स्थिति है काशी की-
काशी में
शवों का हिसाब हो रहा है
किसी को
जीवितों के लिए फुर्सत नहीं
जिन्हें है,
उन्हें जीवित और मृत की पहचान नहीं!

मिथिला को लीजिए-
कल की बात है
राज्य करते थे विदेह
उसी मिथिला में
शासन करता है संदेह
किसी को धर्म का डर नहीं-
विश्वामित्र, वशिष्ठ
कोई नहीं रहा-
महाराज! सभी नश्वर हैं
कोई अमर नहीं।

चलना ही है तो कपिलवस्तु चलिए!
जो जाता है कपिलवस्तु
लौटकर नहीं आता
जो नहीं जाता कपिलवस्तु
जीवन गुजारता है
कपिलवस्तु-कपिलवस्तु चिल्लाता।

Tuesday, August 2, 2011

उधर झूंसी इधर दारागंज

अब तो इलाहाबाद बहुत बदल गया है- आबादी का बोझ बढ़ा है और जहां भी जरा-सी गुंजाइश बनी है, छोटे-बड़े मकान खड़े हो गए हैं। मगर 1948 की बरसात में इलाहाबाद में गंगा की बाढ़ कैसी थी, यह जानिए बाबा नागार्जुन की इस कविता से...

गीले पांक की दुनिया गई है छोड़/नागार्जुन

बढ़ी है इस बार गंगा खूब
दियारों पर गांव कितने ही गए हैं डूब
किंतु हम तो शहर के इस छोर पर हैं
देखते हैं रात-दिन जल-प्रलय का ही दृश्य
पत्थरों से बंधी गहरी नींववाला
किराए का घर हमारा रहे रहे यह आबाद
पुराना ही सही पर मजबूत
रही जिसको अनवरत झकझोर
क्षुब्ध गंगा की विकट हिलकोर
सामने ही पड़ोसी के-
नीम, सहजन, आंवला, अमरूद
हो रहे आकंठ जल में मग्न
रह न पाए स्तंभ पुल के नग्न
दूधिया पानी बना उनका रजत परिधान
रेलगाड़ी के पसिंजर खड़े होकर
खिड़कियों से झांकते हैं
देखते हैं बाढ़ का यह दृश्य
उधर झूंसी इधर दारागंज...
बीच का विस्तार
बन गया है आज पारावार

भगवती भागीरथी-
ग्रीष्म में यह हो गई थी प्रतनु-सलिला
विरहिणी की पीठ लुंठित एकवेणी-सदृश
जिसको देखते ही व्यथा से अवसन्न होते रहे मेरे नेत्र
रिक्त ही था वरूण की कल-केलि का यह क्षेत्र
काकु करती रही पुल की प्रतिच्छाया, मगर यह थी मौन
उस प्रतनुता से अरे इस बाढ़ की तुलना करेगा कौन?

सो गए जल में बड़े हनुमान
तख्तपोश उठा लाए दूर गंगापुत्र
कृष्णद्वैपायनों का परिवार-
मलाहों के झोपड़ों का अति मुखर संसार
त्रिवेणी के बांध पर आकर हुआ आबाद
चिर उपेक्षित हमारी छोटी गली की
रूक्ष-दंतुर सीढि.यां ही बन गई हैं घाट
भला हो इस बाढ़ का!

पांच दिन बीते कि हटने लग गई बस बाढ़
लौटकर आ जायगा फिर क्या वही आषाढ़?
हटी गंगा
किंतु गीले पांक की दुनिया गई है छोड़
और उस पर
मलाहों के छोकरों की क्रमांकित पद-पंक्ति
खूब सुंदर लग रही है...
मन यही करता कि मैं भी
उन्हीं में से एक होता
और-
नंगे पैर, नंगा सिर
समूचा बदन नंगा...
विचरता पंकिल पुलिन पर
नहीं मछली ना सही,
दस-पांच या दो-चार क्या कुछ घुंघचियां भी नहीं मिलतीं?