साथ-साथ

Thursday, January 7, 2010

धूप के बारे में

एक
चुप चुप
उतरती है धूप
कोहरे को फाड़ती है
गरमी
अँधेरे की धज्जियाँ
उड़ा देती है
रोशनी .
मेरे मन में आता है
मैं गाऊँ
धूप के लिए एक प्यार भरा गीत
अपने जी - जान से गाऊँ
की सारे जहां में
धूप की तरह फैलती
गीत की लय
इजहार कर दे
की धूप प्यार करने की चीज है .
दो 
मैं देख रहा था -
सड़क पर
ऊंची इमारत के बाजू से
किसी तरह छलक कर
बमुश्किल उतरा
धूप का एक तिकोना टुकड़ा
इतने में
सिपाही का भारी - भरकम बूट
जो उस पर पड़ा
तो मैं सिहर गया भीतर तक
मुझे ठण्ड - सी लगी
मेरा शरीर काँप - सा गया .

2 comments:

  1. बहुत उम्दा भाव..जानदार अभिव्यक्ति!!

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  2. बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।

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