साथ-साथ

Saturday, October 31, 2009

चीख

कहता हूँ गानेवाली बुलबुल

तभी एक पिंजरा लिए

बढ़ आते हैं हाथ

मैं कहता हूँ - कोई भी एक चिड़िया

इतने में ही

वे संभाल लेते हैं गुलेल

एक गहरी चीख बनकर

रह जाती है कविता

शान्ति के नाम पर

पता नहीं वे किसके विरुद्ध

अभी तक लड़ते जा रहे हैं

एक युद्ध श्रृंखला

Sunday, October 25, 2009

बर्फ

मुझसे टकराया मिट्टी का कच्चा घड़ा

और मैं टूट कर बिखर गया

एक हहराती नदी

अचानक मुझे भिगो गयी नीद में

आज तक गीले हैं

मेरे कपड़े

मैं कहाँ सुखाने जाऊं इन्हें

क्या बीती सदी के फ्रीज में

जमाई हुई बर्फ हूँ मैं

जिसे पिघलना है

अब नई सदी की धूप में .

गुनता हूँ

मैं गुनता हूँ
तुम गिनते हो
मैं बुनता हूँ
तुम बीनते हो
मैं छूता हूँ
तुम छीनते हो

तुम्हारे गिनने - बीनने - छीनने में
मारा जाता है सच
छा जाता है चौतरफा झूठ
कितना होता है उजाड़
कितने होते हैं अनाथ
सूख जाती है हरियाली
हर तरफ़ ठूंठ ही ठूंठ

मैं गुनता हूँ .

Tuesday, October 20, 2009

सम्मोहन

तुम्हारी हंसी देखी
और ख़ुद हंसना भूल गया
एक -एक बूँद आंसू में
मैं जैसे डूब गया
तुम्हारी एक हिचकी
फ़ैल गयी - समूची रात पर
और चाँद उतर आया
धीरे से
मेरे हाथ पर .

लड़की और लोकगीत

अम्मा को रोऊँ
मैं सावन भादों
बाबू को जेठ -आषाढ़
भइया को रोऊँ चैत महीना
भौजी को रोऊँ बैशाख
छोटकी को रोऊँ
क्वार औ कातिक
बाबा को रोऊँ मै माघ

अपने खातिर मै कैसे रोऊँ अम्मा
आँसू कम पड़ जायं ।