स्त्री का जीवन किसी सर्कस से कम नहीं है। वह कितना असहज है, यह तसलीमा नसरीन की सीधे सरल ढंग से लिखी गई इस कविता के जरिए समझा और महसूस किया जा सकता है...
जिन्दा रहती हूं/तसलीमा नसरीन
आदमी का चरित्र ही ऐसा है
बैठो तो कहेगा- नहीं, बैठो मत।
खड़े होओ तो कहेगा- यह क्या बात हुई, कहीं चलो भी
और चलो तो कहेगा- छि: बैठो!
सोने पर भी टोकेगा- चलो उठो
न सोने पर भी चैन नहीं- थोड़ा तो सो लो।
उठा-बैठक करते-करते बर्बाद हो रहा वक्त
अगर अभी मरने को हो जाऊं तैयार तो कहेगा- जिन्दा रहो
पता नहीं कब जिन्दा होते देख बोल पड़ेगा-
छि:, मर जाओ।
बहुत डरते-डरते और
चुपके-चुपके जिन्दा रहती हूं।
No comments:
Post a Comment