देहात्म बोध यों तो दार्शनिक किस्म का मामला है, लेकिन शायद एक स्त्री को जीवन में सबसे ज्यादा इसके ही द्वंद से गुजरना पड़ता है। यहां तक कि मर्दवादी समाज में ज्यादा आघात स्त्री के मन पर होता है या उसके तन पर, यह भी कह पाना मुश्किल है। इस संदर्भ में तसलीमा नसरीन की एक बेहद खूबसूरत, आत्मसचेतन कविता पढ़ सकते हैं...
देहत्व/तसलीमा नसरीन
बरसों से जाना-पहचाना मेरा यह शरीर
कभी-कभी मैं खुद इसे नहीं पहचान पाती
एक खुरदुरा हाथ
कई-कई बहानों से छूता है चंदन चर्चित बांह
मेरे स्नायु-मंडल में बज उठती है एक-एक घंटी
यह मेरा अपना ही शरीर-
शरीर की भाषा मैं पढ़ नहीं पाती
यह खुद ही अपनी बात कहता है अपनी भाषा में।
तब उंगलियां, आंख, होंठ और ये मुलायम पैर- कुछ भी
नहीं रह जाता मेरा।
ये मेरे अपने ही हाथ
लेकिन इन्हें मैं ठीक-ठीक नहीं पहचान पाती
ये मेरे ही होंठ, मेरी ही जांघें, उरू
इनकी कोई भी पेशी, कोई भी रोमकूप
मेरे अधीन, मेरे काबू में नहीं।
स्नायु की दोमंजिली कोठी में बजती है घंटी
इस धरती पर तब मैं किसका खिलौना हूं-
पुरूष या प्रकृति का?
असल में पुरूष नहीं
प्रकृति ही मुझे बजाती है
मैं उसके शौक का सितार हूं।
पुरूष के स्पर्श से
शैशव की नींद तोड़कर मैं उठती हूं जाग
मेरे देह-समुद्र में उठता है अचानक ज्वार।
रक्त-मांस में प्यार की सुगंध पाते ही
प्रकृति ही मुझे बजाती है
मैं उसके शौक का सितार हूं।
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