जिन कुछ कविताओं को उदाहरण बनाकर तसलीमा नसरीन पर पुरूष विद्वेषी होने की तोहमत लगाई जाती है, उन्हीं कविताओं में एक है स्त्री-पुरूष छंद शीर्षक कविता। हालांकि यह कविता स्त्री-उत्पीड़न के क्रूर और यथार्थ चित्र उपस्थित करती है...
स्त्री-पुरूष छंद
॥ एक॥
पुरूष-पुरूष करती नारी
पुरूष देगा घर,
इस जीवन में पुरूष होगा
महामूल्य वर।
पुरूष उजाला, पुरूष भला
पुरूष है ज्वार-भाटा
मौका पाकर पुरूष ने दिया
स्त्री के गाल पर चांटा।
॥ दो॥
पुरूष-पुरूष करती हैं वे
क्योंकि पुरूष है नर!
पुरूष छोड़ किसके बल चले
पंगु नारी दुर्भर?
रूई-नारी साथ पुरूष के
पुरूष ने उसको धूना,
नग्न देह, भग्न माथा
नारी के मुंह पर चूना।
॥ तीन॥
पुरूष बनेगा उसका पेड़
पुरूष ही उसकी छाया,
महानुभाव पुरूष देखकर
नारी की जागे माया।
उसी पुरूष ने ठोक दी
स्त्री की पीठ में कील,
दोनों आंखें नोच ले गया
पुरूष रूपी चील।
॥ चार॥
पुरूष के आते फूल खिलेगा
पुरूष देगा सुख,
पुरूष को पाकर चमक उठेगा
काली लड़की का मुख।
पुरूष नाम पर अंधी हैं वे
पीर-फकीर की फूंक,
सती-साध्वी की देह पर
दिया पुरूष ने थूक।
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