सबसे बड़ी गरीबी शायद यही है कि आदमी के पास खरीदने-बेचने को कुछ भी न हो और उसे देह की दूकान सजाकर ग्राहक का इंतजार करना पड़े। यों एक मजदूर भी तो शरीर का श्रम बेचकर ही अपना पेट भरता है, लेकिन जिसे वेश्या कहते हैं, उसकी स्थिति श्रमिक से भी ज्यादा भयावह है, क्योंकि मर्दवादी समाज में वह वांछित-अवांछित के बीच झूलती रहती है। पढि.ए तसलीमा नसरीन की एक कविता...
वेश्या जाती है/तसलीमा नसरीन
वह देखो एक वेश्या जा रही है,
वेश्या का शरीर हू-ब-हू इन्सानों जैसा है,
एक इन्सान जैसी नाक, आंख, होंठ,
आदमी की तरह हाथ, हाथों की उंगलियां
इन्सान की तरह उसकी चाल-ढाल, पहनावा
आदमी की तरह हंसती-रोती और बात करती है-
फिर भी इन्सान न कहकर उसे वेश्या कहा जाता है।
वेश्याएं औरत हैं, मर्द नहीं।
जिस वजह से एक स्त्री वेश्या होती है-जिस सोहबत से
उसी का अभ्यस्त होकर भी पुरूष, पुरूष ही रहता है।
वेश्याएं मर्द नहीं, आदमी की तरह हैं
लेकिन आदमी नहीं
वे औरत हैं।
वह देखो, वेश्या जा रही है-
कहते हैं लोग- एक औरत की तरफ उंगली उठाकर
आदमी देखता और दिखाता है।
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