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Saturday, March 20, 2010

बजी कहीं शहनाई सारी रात : बिस्मिल्ला खां का जन्मदिन

अरविंद चतुर्वेद :
प्रगाढ़ प्रेम की बेचैनी भरा कवि रमानाथ अवस्थी का एक गीत है-
सो न सका कल याद तुम्हारी आई सारी रात।
और पास ही बजी कहीं शहनाई सारी रात...।
क्या पता आज किसी के मन में जल तरंग बजता है या नहीं, या फिर किसी की याद में वायलिन की उदास धुन बेचैन करती है या नहीं। लेकिन दस साल पहले ही गुजरी बीसवीं सदी के अंत-अंत तक संगीत की कई-कई स्वर लहरियां शहनाई, सितार, बांसुरी वगैरह के माध्यम से हमारी स्मृतियों में अनायास गूंजती रहती थीं। तो क्या आज हम शोर के सन्नाटे में घिर गए हैं? जरा सदाबहार शहनाई नवाज बिस्मिल्ला खां को याद कीजिए। आज उनका जन्मदिन है।
उस्ताद बिस्मिल्ला खां ने शहनाई की जो तान छेड़ी थी, वह नौ दशक लम्बी रही। बीसवीं सदी के तीन चौथाई हिस्से की हमजोली रही है उनकी शहनाई। और, इक्कीसवीं सदी के जन्म की बधाई पर भी वह कम नहीं बजी थी। लोग उन्हें शहनाई का शहंशाह कहते रहे, लेकिन वे खुद को कुदरत का कारिंदा मानते थे। वे उस्ताद रहे- संगीत के बिस्मिल्ला, और इसलिए भारत रत्न भी। शहनाई और उनका नाम एक-दूसरे के पर्याय बन चुके थे, लेकिन जब जिंदगी की शाम गहराने लगी तो इसका जिक्र होने पर उन्हें अपनी उम्र का एहसास होने लगा था और वे कह उठते थे- आदमी बूढ़ा हो जाता है, साज और सुर नहीं। उनके होठों पर शहनाई होने पर आंखों से जो उल्लास छलकता था, उसे बार-बार, हजार बार लोगों ने महफिलों में देखा था।
21 मार्च 1916 को बनारस के पड़ोसी बिहार के बक्सर जिले के डुमरांव में एक अति साधारण परिवार में जन्मे उस्ताद बिस्मिल्ला खां जब उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुंच गए थे तो वहां से बार-बार उनकी निगाह पीछे की ओर मुड़ती थी। सात साल की उम्र में वे अपने मामू और तब के बहुत काबिल शहनाईवादक अली बख्श के पास बनारस आए थे। उस्ताद मामू ने बिस्मिल्ला के हाथ में तब जो शहनाई थमाई तो उम्र की सरहद तक वह उनके होठों से लगी रही। लोगों ने उन्हें मंच पर देखा हमेशा शहनाई के साथ, लेकिन उनकी जिंदगी की जदूदोजहद बनारस के चौक से नई सड़क तक जाने वाली दालमंडी की उस संकरी, गुलजार, पेचोखम से भरी गली जैसी ही रही, जिसके एक पुराने मामूली मकान में वे रहते थे। घर की छत पर दो कमरों में सिमटा उनका संसार-एक उनका कमरा और दूसरा उनकी शहनाई का। पांच बेटों के पिता बिस्मिल्ला अपने परिजनों के भीड़भाड़ भरे, लम्बे-चौड़े कुनबे के बीच एक बूढे. बरगद की तरह थे। बीमारी और बुढ़ापे ने उनके शरीर को कमजोर कर दिया था, वर्ना लुंगी और कुर्ते में कदूदावर काठी का वह शख्स रोजमर्रा  के तहत उसी प्यार से अपनी बकरियों की गर्दन पर हाथ फेरते हुए सानी-पानी का सुबह-शाम इंतजाम करता रहा, जिस प्यार से हाथों में शहनाई थामता था। चौदह साल की उम्र में बिस्मिल्ला खां ने अपने उस्ताद मामू अली बख्श की जगह पर एक आयोजन में पहली बार शहनाई बजाई थी, जो पिछली शताब्दी के तीन चौथाई हिस्से तक देश-दुनिया में गूंजती रही। बीसवीं सदी उनकी शहनाई की गूंज से भरी थी और आज इक्कीसवीं सदी में भी कद्रदानों को उसकी अनूगूंज सुनाई दे जाया करती है। बिस्मिल्ला खां के लिए शहनाई उस्ताद मामू से मिली अमानत थी और संगीत साधना सबसे बड़ी इबादत। बनारस में गंगा पुजइया पर वे बरसों शहनाई बजाते रहे। केदार घाट स्थित बालाजी मंदिर का गंगामुखी बरामदा उनकी सुर साधना की प्रिय जगह रही। काशी विश्वनाथ मंदिर के नौबतखाने में उनकी शहनाई गूंजी और बड़ा गणेश मंदिर की डूयोढ़ी पर उन्होंने तान छेड़ी। कर्बला के शहीदों के लिए हर साल मुहर्रम पर उस्ताद बिस्मिल्ला खां आंसुओं का नजराना पेश करते रहे। जब उम्र साथ नहीं दे रही थी, तब भी इस मौके पर घर में ही थोड़ा-बहुत बजा लेते थे। उम्र के इस पड़ाव पर उस्ताद को याद आते थे शहनाई के हमसफर कलाकार। इस बात की उन्हें तकलीफ होती थी कि समाज में उनको वह इज्जत नहीं मिली, जो मिलनी चाहिए थी। वे कहते- तब के बनारस में मेरे साथ के लोगों में कन्हैया लाल जी और नंदलाल जी बड़े शहनाई वादकों में थे। मेरे मामू के दौर के लोग थे वे। उनसे कितनों ने सीखा, लेकिन उन्हें वह इज्जत और शोहरत नहीं मिली, जिसके वे हकदार थे। मन को तकलीफ होती है लेकिन कहने से क्या फायदा? आपको अपने संगीत की विरासत और शहनाई का भविष्य कैसा नजर आता है? पूछने पर इस सूचना के साथ कि उनके बेटे नैयर और जामी उनकी शहनाई को संभालने में मुस्तैद हैं, वे कहते- अच्छा कर रहे हैं ये लोग। एक बेटा नाजिम तबला बजा रहा है। फिर थोड़ी देर की खामोशी के बाद कहते- असल बात क्या है कि साज के साथ जिंदगी का सलीका बनाना पड़ता है। दोनों को एक कर देना होता है, और सबसे बड़ी बात है तासीर आप में कितनी है! तासीर हमेशा बनी रहनी चाहिए। तासीर’ बड़ा प्रिय शब्द था उस्ताद बिस्मिल्ला खां का।
आपने शहनाई को मांगलिक उत्सवों से उठाकर संगीत सभाओं के ऊंचे आसन पर बिठाया, कैसा महसूस होता है? यह पूछने पर वे कहते- नहीं-नहीं, दरअसल शहनाई ने मुझे ऊंचा उठाया। मैंने सच्चे  मन से साज की इबादत की है। जिंदगी भर सुरों के पीछे भागना पड़ता है और सुर भी सच्चे आदमी को तलाशते हैं। भविष्य को लेकर उस्ताद की चिंता बस एक ही थी- सुनाने वाले को सुनने वाले चाहिए। सुनने वाले न हों तो सुनाने वाला क्या करेगा! उस्ताद से मुलाकात के बाद दालमंडी की गली से नई सड़क पर निकलते ही गाड़ियों के हॉर्न, चिल्लपो, जाम, शोर! सबको आगे निकलने की बेताबी। यहां से वहां तक एक खीझ पसरी हुई। कोई किसी को नहीं सुन रहा। शहनाई पीछे छूटती चली गई...।

2 comments:

  1. बिस्मिल्ला जी की एक चीज़ जो हमेशा आकर्षित करती थी वो चेहरे की मुस्कान और आँखों की नमी ...
    याद दिलाने के लिए धन्यवाद

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  2. बिस्मिल्ला जी जैसे लोग सदियों में बस एक बार पैदा होते हैं.

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