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Monday, March 29, 2010

मृत्यु विह्वल कर ही देती है!

किसी भी आत्मीय की मृत्यु विह्वल कर देती है। और फिर पुत्रशोक की विह्वलता के बारे में तो कहना ही क्या। इस संदर्भ में कवि श्रीकांत वर्मा की यह कविता पढ़ने के पूर्व इतना याद रखिए कि परिस्थितिवश काशी में श्मशान के डोम का काम करने वाले राजा हरिश्चंद्र के पुत्र का नाम रोहिताश्व था।

।। रोहिताश्व।।
श्रीकांत वर्मा

जब भी मणिकर्णिका  जाओगे
एक वृद्ध को
कोने में दुबका हुआ पाओगे।

तुम्हें देख
उसकी आंखों में
कुछ
कौंधेगा-

वह
रोहिताश्व, रोहिताश्व
बिसूरता
तुमसे लिपट जाएगा।

तब क्या करोगे?

यही न :
"मैं  रोहिताश्व नहीं हूं
मैं सचमुच
रोहिताश्व
नहीं हूं।’

मगर तुम उस वृद्ध को
कैसे
विश्वास दिलाओगे
कि तुम
रोहिताश्व नहीं हो।

तुम पर उसकी पकड़
और भी कड़ी होगी,
वह कड़केगा :
तुम्हीं हो रोहिताश्व!

जिसका रोहिताश्व
मारा गया हो,
क्या तुम उसे
विश्वास दिला सकते हो
कि तुम
रोहिताश्व नहीं हो?
(मगध संग्रह से, 1984)

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