साथ-साथ

Wednesday, December 2, 2009

पेट भी इक कब्र है

दुनिया तो है

बस आपसी चर्चाओं की ।

रेत की नदी में

ठहरी हुई नौकाओं की ।

ख्वाब मछलियों के

और मछुआरों - जालों का खौफ,

यह सदी है

कुछ बिगड़ी हुई हवाओं की ।

बेनीद बेपनाह बेगैरत बेलज्जत होकर

मर गयी तासीर

मेरे दौर की दुआओं की ।

दफन हो जाते हैं सपने

महज रोटी के लिए,

पेट भी इक कब्र है

इच्छाओं की ।

4 comments:

  1. वैसे महंगाई ने इस कब्रनुमा पेट को काफी राहत दी है।

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  2. bahut sundar maarmik aur saarthak kavita ke liye saadhuvaad.

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  3. बहुत अच्छी और बेहद मार्मिक. बेइंतहा खुशी हो रही है इस माध्यम पर आपकी दमदार उपस्थिति देखकर. मेरी बधाई स्वीकारें.

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  4. अत्यंत सुन्दर अद्भुत रचना

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