मेरे मन में राम हैं, यही अयोध्या - धाम ।
तेरे मन में धाम है, तेरा कैसे राम ॥
तू चाहे की लोग सब चलें तुम्हारे साथ ।
चल शबरी की झोपडी, गह केवट का हाथ ॥
रावण की यह वासना भव्य स्वर्ण मय गेह।
तुलसी वहां न जाइए कंचन बरसत मेह॥
राम चले वनवास को सौंप भरत को राज ।
तू कैसा अनुचर हुआ तुझे चाहिए राज ॥
बाल्मीक - तुलसी रचे वही हमारे राम ।
हम उनको ही जानते , तेरे कबसे राम !
तू कहता तू भक्त है, तू ही जाने मर्म ।
राम नाम को बेचते तुझे न आती शर्म ॥
कास इसे पढ लोगों को ज्ञान मिले.
ReplyDeleteराम चले वनवास को सौंप भरत को राज ।
ReplyDeleteतू कैसा अनुचर हुआ तुझे चाहिए राज ॥
बाल्मीक - तुलसी रचे वही हमारे राम ।
हम उनको ही जानते , तेरे कबसे राम !
तू कहता तू भक्त है, तू ही जाने मर्म ।
राम नाम को बेचते तुझे न आती शर्म ॥
Bahut sundar !
बहुत अच्छी और बेहद मार्मिक
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