साथ-साथ

Tuesday, December 1, 2009

तुझे न आती शर्म ( सन्दर्भ - ६ दिसंबर )

मेरे मन में राम हैं, यही अयोध्या - धाम ।

तेरे मन में धाम है, तेरा कैसे राम ॥

तू चाहे की लोग सब चलें तुम्हारे साथ ।

चल शबरी की झोपडी, गह केवट का हाथ ॥

रावण की यह वासना भव्य स्वर्ण मय गेह।

तुलसी वहां न जाइए कंचन बरसत मेह॥

राम चले वनवास को सौंप भरत को राज ।

तू कैसा अनुचर हुआ तुझे चाहिए राज ॥

बाल्मीक - तुलसी रचे वही हमारे राम ।

हम उनको ही जानते , तेरे कबसे राम !

तू कहता तू भक्त है, तू ही जाने मर्म ।

राम नाम को बेचते तुझे न आती शर्म ॥

3 comments:

  1. कास इसे पढ लोगों को ज्ञान मिले.

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  2. राम चले वनवास को सौंप भरत को राज ।

    तू कैसा अनुचर हुआ तुझे चाहिए राज ॥

    बाल्मीक - तुलसी रचे वही हमारे राम ।

    हम उनको ही जानते , तेरे कबसे राम !

    तू कहता तू भक्त है, तू ही जाने मर्म ।

    राम नाम को बेचते तुझे न आती शर्म ॥

    Bahut sundar !

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  3. बहुत अच्छी और बेहद मार्मिक

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