दुनिया तो है
बस आपसी चर्चाओं की ।
रेत की नदी में
ठहरी हुई नौकाओं की ।
ख्वाब मछलियों के
और मछुआरों - जालों का खौफ,
यह सदी है
कुछ बिगड़ी हुई हवाओं की ।
बेनीद बेपनाह बेगैरत बेलज्जत होकर
मर गयी तासीर
मेरे दौर की दुआओं की ।
दफन हो जाते हैं सपने
महज रोटी के लिए,
पेट भी इक कब्र है
इच्छाओं की ।
वैसे महंगाई ने इस कब्रनुमा पेट को काफी राहत दी है।
ReplyDeletebahut sundar maarmik aur saarthak kavita ke liye saadhuvaad.
ReplyDeleteबहुत अच्छी और बेहद मार्मिक. बेइंतहा खुशी हो रही है इस माध्यम पर आपकी दमदार उपस्थिति देखकर. मेरी बधाई स्वीकारें.
ReplyDeleteअत्यंत सुन्दर अद्भुत रचना
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