कविता में
चहचहाती हुई
दाखिल होती है
एक बच्ची ।
जैसे - जैसे उम्र बढ़ती जाती है
जवान होने तक
वह उदास हो जाती है ,
कविता में
औरत के आंसुओं से
भीगती रहती है
समूची गृहस्थी ।
फिर सारे तजुर्बे
काम आते हैं दुआओं के
और देवदूतों की बनाई हुई
इस दुनिया को कोसने में ,
कितने साध भरे होते हैं
औरत के कंठ से फूटे हुए लोकगीत
और कितनी शापग्रस्त होती है कविता
औरत के बारे में !
देवदूतों की बनाई इस दुनिया को कोसने में ... बहुत सुन्दर कविता है अरविंद जी अपने अर्थ मे मुखर होती हुई ।
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