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Tuesday, April 17, 2012

अनिल यादव की चीन्हाखचाई

अनिल यादव पेशे से पत्रकार हैं। घुमक्कड़ हैं। गजब के गद्यकार हैं। उनकी कहानियों की पुस्तक नगरबधुएं अखबार नहीं पढ़तीं और यात्रा पुस्तक वह भी कोई देस है महराज अंतिका प्रकाशन से छपकर आई हैं। दोनों पुस्तकों की खूब चर्चा रही है और सबसे बड़ी बात है कि पाठकों ने इन्हें हाथो-हाथ लिया है। अनिल के लेखन की खासियत है कि उनकी भाषा भी विषयवस्तु का हिस्सा होती है, उसे अलगाया नहीं जा सकता। अनिल ने कभी-कभार छिटपुट कविताएं भी लिखी हैं। पढि.ए उनकी यह चीन्हाखचाई...

॥ एक॥

भारी जबड़े वाली एक सांवली
बुढ़ाती लड़की को
तीन-चार आदमी रह-रहकर
आंटे की तरह गूंथने लगते थे

वह आनंद में विभोर जब
लेती थी सिसकारी
दांत दिखते थे और आंखे ढरक जाती थीं
मरती गाय की तरह।

वैसे ही तुंदियल थे वैसे ही फूहड़
वही छींटदार कमीजें
वही सेल में दाम पूछने भर अंग्रेजी
वैसे ही गुस्से में फनफनाते थे बेवजह
दांत पीसते अकड़े रहते थे

जैसे मेरे अगल-बगल
ब्लू फिल्म जैसे जीवन में।

कपट उदासीनता से देखते थे बूढ़े
अंडकोषों के जोर से चीखते थे बेबस लड़के

मेरे जीवन से फाड़े उस परदे पर
मिस लिन्डा का सबसे स्वाभाविक अभिनय
बलात्कार से बचने का था।

हाउस फुल था
वह शस्य श्यामल सिनेमा हाल।

॥ दो॥

तोते : शरारती लड़के खदेड़े गए
कौए : कामकाजी और दुनियादार
मैना : अंधेरा देख घर की तरफ भागती देहातिन
गौरेया : भेली खाते कुदकती कोई लड़की

वे ट्रैफिक में रेंगते, तनावग्रस्त
बेडरूमों में पसरे तुंदियलों के देख क्या सोचते होंगे
यही न, मरें साले ये इसी लायक हैं।


सच मानो
मैं चिड़ियों की नजर में अच्छा बनने की कोशिश नहीं कर रहा हूं।

॥ तीन॥

ओ घरघुसने, बाहर निकल
पान की दुकान तक बेमकसद यूं ही चल।
कबाड़ी की साइकिल की तीलियों पर टूटते
सूर्य को देख
ओ चिन्ताग्रस्त, एक्जीक्यूटिव इंडिया के पूत
कूड़े को घूर गरदन झमकाते कौवे की तरह
कितनी ही बार धरती की परिक्रमा करने के बाद वहां
पर्वत शिखर से टकरा कर टूटी कार पड़ी है
और एक गुड़िया है जो
रोज सजने-सिसकने से उकताकर भाग निकली है घर से
जो सिगरेट की डिब्बी का तकिया लगाए नंगी
मुस्करा रही है।
देख ओ अकेलेपन और अवसाद के मारे
उन गुलाबी छल्लों की गांठों में प्रेम है
जिन्हें स्मारक के जतन से बांधा गया।
किसी दाई या बाई के
खपरैल जैसे पैर देख
फूली नसों पर मैल की धारियों में
उन द्वीपों की धूल,
जहां तू कभी गया नहीं।
और कुछ नहीं तो सुन
छत के ऊपर बादलों तक चढ़ता
तानसेन तरकारी वाले का अलाप
खरीद ले अठन्नी की इमली
अबे ओ घरघुसने, बाहर निकल
एक्जीक्यूटिव इंडिया के पूत।

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