साथ-साथ

Monday, April 4, 2011

सरकार तो सरकारे रही साहेब!

हालांकि जिंदगी किसी हादसे में लहूलुहान होने के बाद भी उसके पार निकल ही आती है और कहते हैं कि गुजरात में भी मोदी-काल के गर्हित दौर से मोदी-काल में ही वह बाहर निकल आई है। लेकिन इंसान है कि आगे बढ़ते हुए भी वह बार-बार पीछे मुड़कर देख लिया करता है, ताकि वैसे हादसे दोबारा जिंदगी में न आएं। पढि़ए रवींद्र भारती की यह कविता-

गुजरात/रवींद्र भारती

हम मनई हैं लेकिन हैं चिरई की जाति
बच्चे से लग गए रोटी की जुगाड़ में
फुर्र से यहां, फुर्र से वहां
डेरा बांधते-छोड़ते पुरखों की तरह रहे डोलते
का बताएं साहेब, कहां है ठौर-ठिकाना!
हियां, अहमदाबाद में कमाए आए रहे कि शांति है-
मार-पीट, चोरी-चमारी कम है, डाह नहीं है आपस में...
कहत जिऊ भरि आवत है...एई, बड़ी-बड़ी-
तलवार भांजत झुंड के झुंड आए सब...
सोवत-जागत लोग भहराए लागे तर ऊपर
काट डारे गटई, आग लगा दिए, गोलियो दागे-
इहैं, इहैं... हमें तो मुरदा जान के छोड़े
खोद डाले मुरदघट्टी, मसान, कब्रिस्तान...
का कहें साहेब कोई माई-बाप नहीं रहा।

सरकार डेरावत रही, धमकावत रही
सनकावत, ललकारत रही
सरकार तो सरकारे रही साहेब।

इतना ही सुन पाए कि ऊंघ गए साहेब जी
भीड़ में किसी ने किसी से कहा-
जो ऊंघ गया, वह तो हैं सेक्यूलर जी
दल-बल के साथ पधारे कुछ दिन पहले सेक्यूलर जी
आलाकमान के साथी हैं, बहुत पुराने सेक्यूलर जी
कहते हैं कि उनकी लाज बचाने आए भए हैं सेक्यूलर जी।
कहते हैं कि एक खास जाति का वोट-
मुट्ठी में रखते हैं सेक्यूलर जी
कहते हैं कि मसखरी में लल्लू के भी नाना हैं सेक्यूलर जी।
नहीं-नहीं, कहा किसी ने, वह नहीं हैं यह-
वह उधर बैठा है पत्रकार वार्ता में
यह जो ऊंघ रहा है-
आया है अपने ग्रुप के साथ
किसी संस्था ने भेजा है
फी आदमी हजार रुपए मिलेंगे रोज
पंद्रह दिनों तक गान-गवनई करेंगे-
सब कमा के जाएंगे मोटी रकम
यह बस्ती जिलेवाला सुलेमान किसको सुना रहा है दुखड़ा!

सुलेमान साहेब को ऊंघता देख बड़बड़ाया
यह लीजिए, साहेबो सो गए...
गिद्ध कितना मंडरा रहे हैं...
यह भी ससुरे हैं चिरई की जाति...


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