साथ-साथ

Tuesday, April 5, 2011

छोटी-सी आजादी के लिए यही एक प्रस्तावना है

जीवन अपने आप में एक कृतज्ञता है, यह बताते हैं कवि कुमार अंबुज। नाकामियों के आगे थक-हार कर बैठ जाने के बजाय बहुत गहरा भरोसा जगाने वाली पढि़ए उनकी एक शानदार कविता-

यहां तक आते हुए/कुमार अंबुज

जैसे एक दोपहर की चमक    घास    कपास    नमक
मेरे पास इतनी नन्ही और नाजुक चीजें हैं
जिन्हें न तो युद्ध के जरिए बचा सकता हूं
और न ही शास्त्रार्थ से
शायद उन्हें जिद से बचाया जा सकता है या फिर आंसुओं से
छोटी-सी आजादी के लिए यही एक प्रस्तावना है
लेकिन सिद्ध करने के लिए मेरे पास वैधानिक तौर पर कुछ नहीं
मेरे पास केवल मेरा यह जीवन है जो जहां है जैसा है वैसा है
मैं एक अयाचित परछाईं अपने होने के स्वप्न की
स्वप्न वह जीवन जिसे मैं जी नहीं पाया
और इस असफलता का दुख यहीं छोड़ते हुए
एक और सपने के साथ बढऩा चाहता हूं आगे
जैसे मैं एक लहर हूं एक पत्ता और हवा की आवाज
मुझे याद आता है परिजनों का जीवन बचाते हुए
एक दिन ऐसा भी हुआ था कि मेरे गले में मेरे संवाद नहीं थे
मेरी क्रियाओं में शामिल नहीं थीं मेरी इच्छाएं
और यह भी कई बार हुआ कि जिन्हें करता था प्यार
उनके विचारों का नहीं कर पाया सम्मान
और इस बात ने भी रास्तों को दुर्गम बनाया
फिर भी मेरे यहां तक चले आने में
सिर्फ मेरे ही कदम शामिल नहीं हुए,   धन्यवाद
कि पास में ही कई लोग चलते रहे मेरी भाषा बोलते
अंधेरे में भरते हुए आवाजों का प्रकाश
कद्दू की बेल     कत्थई मैदान     अमावस की रात
चींटी     एक सिसकी     दुख की आहट
शब्द और एक बच्चे ने मुझे बार-बार अपना बनाया
इन्हीं सबके बीच हमेशा मांगता रहा कुल तीन चीजें-
पीने का पानी रोटी और न्याय
हालांकि कई कोने कई जगहें ऐसी भी रहीं
जहां नहीं पहुंच सके मेरी कोशिशों के हाथ
लेकिन समुद्र की आवाज मुझ तक  पहुंचती रही हांफती हुई भी
करोड़ों मील दूर से चलकर आती रही सूर्य की किरण
मैंने देखा एक स्त्री ने अपने तंग दिनों में भी एक जन को
कहीं और नहीं पहले अपनी आत्मा में और फिर
अपने ही गर्भ में जगह दी
इन सब बातों ने मुझे बहुत आभारी बनाया
और जीवन जीने का सलीका सिखाया
यह ठीक है कि कई चीजों को मैं उतनी देर
ठिठककर नहीं देख सका
जितनी देर तक के लिए वे एक मनुष्य से आशा करती थीं
कई अवसरों को भी मैंने खो दिया
मैं उम्मीद में गुनगुनाता हुआ आदमी था धनुर्धारी नहीं
मेरे पास जीवन एक ही था और वह भी गलतियों
चूकों और नाकामियों से भरा हुआ
लेकिन उसी जीवन के भीतर से
आती रहती थीं कुछ करते रहने की आवाजें भी
कितना काम करना था कह नहीं सकता कितना कर पाया
इतना तो जरूर ही हुआ कि मैं अपनी गलतियों
से भी पहचान में आया।

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