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Sunday, April 3, 2011

बरगद के चरण-तले की धूल

कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने मुक्तिबोध के बारे में लिखा है- मुक्तिबोध ने अपनी जिंदगी का ज्यादातर हिस्सा कस्बों या छोटे शहरों में गुजारा। उनकी कविता इस निजी भूगोल से बराबर प्रतिकृत हुई है। आज के अनेक कवियों की तरह इस बात ने उन्हें किसी सामाजिक पिछड़ेपन के भाव से कभी नहीं ग्रसा। बल्कि इस भूगोल ने उनकी कविता को उसका गहरा निजीपन और आत्मीयता प्रदान की। अब पढि़ए कवि मुक्तिबोध की यह कविता- इस सूचना के साथ कि वे आज के छत्तीसगढ़ में राजनांदगांव में रहते आये थे....

बहुत शर्म आती है

बहुत शर्म आती है मैंने
खून बहाया नहीं तुम्हारे साथ
बहुत तड़पकर उठे वज्र-से
गलियों के जब खेतों-खलिहानों के हाथ
बहुत खून था छोटी-छोटी पंखुडिय़ों में
जो शहीद हो गईं किसी अनजाने कोने
कोई भी न बचे,
केवल पत्थर रह गए तुम्हारे लिए अकेले रोने

किसी एक
वीरान गांव के
भूरे अवशेषों के रखवाले बरगद के
चरण-तले की धूल
मैंने मस्तक पर लगा तुम्हें जब याद किया
देखी मैंने वह सांझ
जमा था जिसके लंबे विस्तारों में
केवल मौन तुम्हारा खून!!
बहुत खून था कोमल-कोमल पंखुरियों में
बूढ़े पीले पातों में
जो हुई रक्त से लाल
खेतों-खलिहानों की मिट्टी
उसकी भूख-प्यास
अपने अंतर में धारण कर
जब मैंने ले-ले नाम पुकारा बहुत जोर से
आसपास के पहाड़-शिल
से आई गूंज या आवाज
जिसने बतलाया वह ज्वलंत इतिहास
मानव-मुक्ति-यास का!!
सुनकर जिसे
बहुत शर्म आती है
मैंने खून बहाया नहीं तुम्हारे साथ!!


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