साथ-साथ

Monday, March 28, 2011

मुक्तिबोध का आईना

कवि गजानन माधव मुक्तिबोध अपने परवर्ती कवियों के लिए एक अनिवार्य पाठ की तरह रहे हैं। जीवन-जगत की जटिलताओं से उलझकर उन्हें सुलझाने में और जन-जीवन से खुद को एकाकार करने में उनकी कविता में सघन तनाव और बेचैनी दिखाई देती है। लंबी कविताओं के विशिष्ट कवि मुक्तिबोध ने अक्सर मैं-शैली अपनाई है। आत्म वक्तव्य के मुहावरे में पढि़ए उनकी दो छोटी कविताएं-

मैं उनका ही होता

मैं उनका ही होता, जिनसे
मैंने रूप-भाव पाए हैं।
वे मेरे ही हिए बंधे हैं
जो मर्यादाएं लाए हैं।
मेरे शब्द, भाव उनके हैं
मेरे पैर और पथ मेरा,
मेरा अंत और अथ मेरा,
ऐसे किंतु चाव उनके हैं।
मैं ऊंचा होता चलता हूं
उनके ओछेपन से गिर-गिर,
उनके छिछलेपन से खुद-खुद,
मैं गहरा होता चलता हूं।

बहुत दिनों से

मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से
बहुत-बहुत-सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना
और कि साथ-साथ यों साथ-साथ
फिर बहना बहना बहना
मेघों की आवाजों से
कुहरे की भाषाओं से
रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोना
है बोल रहा धरती से
जी खोल रहा धरती से
त्यों चाह रहा कहना
उपमा संकेतों से
रूपक से, मौन प्रतीकों से

मैं बहुत दिनों से बहुत-बहुत-सी बातें
तुमसे चाह रहा था कहना!
जैसे मैदानों को आसमान,
कुहरे की, मेघों की भाषा त्याग
बिचारा आसमान कुछ
रूप बदल कर रंग बदल कर कहे।

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