साथ-साथ

Wednesday, March 16, 2011

यह एकल परिवार का जमाना है

चूंकि यह एकल परिवार का जमाना है यानी पति-पत्नी और बच्चा या बच्चे, इसलिए अब खासकर शहरों में संयुक्त परिवार की याद एक आह भरी स्मृति बनकर रह गई है। कविता में इसकी हाहाकारी गूंज-अनुगूंज अनेक आवाजों में सुनाई पड़ती है। जैसे वरिष्ठ और बुजुर्ग कथाकार-कवि रामदरश मिश्र की यह कविता-

परिवार/रामदरश मिश्र

कल तक हम परिवार थे
एक-दूसरे की आंखों में
अपने को पढ़ते हुए
एक-दूसरे के ओठों पर
अपनी हंसी रचते हुए
हमारे किवाड़ों पर
जब हमारी अंगुलियों की थाप पड़ती थी
तब घर के भीतर बिछी हुई उत्सुक प्रतीक्षाएं
सितार के तारों की तरह झनझना उठती थीं
और किवाड़ों के पास आकर
वे थाप में समा जाती थीं
पूरा आंगन चिडिय़ों की चहचहाहट से भर जाता था
एक की नींद टूटती थी
तो सपने दूसरे की आंखों में उग आते थे
इंद्रधनुष की तरह
उठा हुआ एक हाथ
शाम की तरह गिरता था
तो दूसरे हाथ उठ जाते थे सुबह की तरह
एक पांव जमता था बर्फ की तरह
तो दूसरे पांवों से नदी बह चलती थी
खिड़की चाहे किसी ओर हो
हर कमरे का मुंह आंगन में ही खुलता था
भिन्न-भिन्न रंगों के होकर भी हम उद्यान थे
अलग-अलग होकर भी हमारे स्वर सहगान थे

आज हम एक ही मतपेटी में पड़े हुए
अलग-अलग दलों के वोट हैं
व्यक्ति से मुहर बने हुए
साथ-साथ रहते हुए भी
एक-दूसरे से तने हुए।

2 comments: