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Monday, March 14, 2011

प्रकृति से पंगा लेता विकास

जापान की त्रासदी ने आंख में उंगली डालकर बता दिया है कि अतिवादी विकास इसी तरह विनाश का तांडव मचाता रहेगा। क्या विकासवादी लोग इस सवाल पर विचार करेंगे कि कुल मिलाकर यह प्रकृति के विरुद्ध क्यों है? पढि़ए कवि निलय उपाध्याय की यह कविता-

मकड़ी/निलय उपाध्याय

मकड़ी-
जैसे खुद बुने जाल में फंसकर दम तोड़ देती है
सुविधाओं के पीछे पागल दम तोड़ देगी
यह दुनिया

तड़कते आसमान से बिजली की रास पकड़
कूदने वाले- पछताएंगे

सूखे नारियल में पानी की तरह बचा रहेगा जीवन

मनबोध बाबू,
मिट्टी को सीमेंट में बदलने की जरूरतों में
चाहे जितना जीवन शामिल हो
जितना विज्ञान
उससे अधिक शामिल होता है बाजार
उससे अधिक शामिल होती है व्यवस्था

व्यवस्था के दर्शन से अक्सर बाहर निकल जाता है जीवन
और जीवन से बाहर निकल जाती है व्यवस्था।

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