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Friday, March 11, 2011

बहस की तेज आंच पर पकेंगे नपुंसक विचार

कविता का एक काम यह भी है कि अगर राह न मिले तो राह पाने की वह मन में बेचैनी पैदा करे। पढि़ए ऐसी ही एक कविता निर्मला पुतुल की। निर्मला पुतुल झारखंड की हिंदी कविता का एक प्रतिनिधि स्वर हैं-

एक बार फिर/निर्मला पुतुल

एक बार फिर-
हम इकट्ठे होंगे एक विशाल सभागार में
किराए की भीड़ के बीच

एक बार फिर-
ऊंची नाक वाली अधकटी ब्लाउज पहनी महिलाएं
करेंगी हमारे जुलूस का नेतृत्व
और मंचासीन होंगी प्रतिनिधित्व के नाम पर

एक बार फिर-
हमारी सभा को संबोधित करेंगी माननीया मुख्यमंत्री
बढ़ाएंगी मंच की शोभा ऐश्वर्या राय
और गौरवान्वित होंगे हम अपनी सभा में उनकी उपस्थिति से

एक बार फिर-
शब्दों के उडऩ खटोले पर बिठा
वे ले जाएंगी हमें संसद के गलियारे में
जहां पुरुषों के अहं से टकराएगा ३३ प्रतिशत का मुद्दा
और चकनाचूर हो जाएंगे फिर उसमें निहित हमारे सपने

एक बार फिर-
पुराने आंकड़े को भूल हम करेंगे प्रस्तुत नए आंकड़े
दहेज,हत्या,अपहरण, बलात्कार, वेश्यावृत्ति, यौन उत्पीडऩ के
और लेंगे दर्जनों प्रस्ताव इनके उन्मूलन के लिए

एक बार फिर-
हमारी चर्चाओं से होकर गुजरेंगी
इंदिरा, बेनजीर, मेधा पाटकर, मदर टेरेसा और लक्ष्मीबाई

एक बार फिर-
अपनी ताकत का सामूहिक प्रदर्शन करते
हम गुजरेंगे शहर की गलियों से
पुरुष-सत्ता के खिलाफ हवा में मुट्ठी बंधे हाथ लहराते हुए

एक बार फिर-
सड़क किनारे खड़े लोग सेंकेंगे अपनी आंखें हमें देख
और रोमांचित हो बतियाएंगे आपस में कि
यार शहर में बसंत उतर आया!

एक बार फिर-
शहर के व्यस्ततम चौराहे पर इकट्ठे होंगे हम
और पुरुष वर्चस्ववादिता को ललकारते
लगाएंगे खोखले नारे
नए-नए संकल्पों को मुट्ठियों में बांधे

एक बार फिर-
हमारा मुंह चिढ़ाते आंदोलन को ठेंगा दिखाएंगी
पोस्टरों से झांकती ब्रा-पैंटी वाली सिने तारिकाएं
खुलेआम बेशर्मी से नायक की बाहों में झूलते हुए

एक बार फिर-
हमारे उत्तेजक नारों की ऊष्मा से
गर्म हो जाएगी शहर की हवा
और बहस की तेज आंच पर पकेंगे नपुंसक विचार

एक बार फिर-
धीरे-धीरे ठंडी पड़ जाएगी भीतर की आग
और छितरा जाएंगे हम चौराहे से
अपने पति और बच्चों के दफ्तर व स्कूल से
लौट आने की चिंता में...।

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