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Thursday, March 10, 2011

मित्र उसे झाड़ते हुए रूमाल से चला गया

आज की कविता में निर्मल आनंद की विशिष्ट पहचान है लोक या ग्राम्य संवेदना का आधुनिकता बोध के साथ संश्लेषण प्रस्तुत करने में। खेती-किसानी से जुड़े निर्मल छत्तीसगढ़ में रायपुर जिले के कोमा-राजिम गांव के रहने वाले हैं। पढि़ए उनकी मित्र शीर्षक यह कविता-

मित्र/निर्मल आनंद

चमचमाती कार में दस साल बाद गांव आए हैं मित्र
बड़े अफसर हो गए हैं भीतर बाहर से
उनकी बातों से नहीं आती जरा भी गंवईहापन की बू
वे हिंदी बोलते-बोलते अंगरेजी बोल पड़ते हैं
मुंह ताकते रह जाते हैं गांव के लोग
गोरा बदन आंखों पर धूप का चश्मा
और कलाई पर सुनहरी डायल की
घड़ी चमक रही है

कौन कहेगा यह वही बसंत गुरुजी का लड़का है
जो कभी इन्हीं गलियों में भंवरा, बांटी, गिल्ली-डंडा
और धूल से खेलकर बड़ा हुआ है
कौन कहेगा मैं उसका लंगोटिया यार हूं
जो बचपन में नंगे नहाते तालाब में डुबक-डुबक कर
बगीचे में साथ-साथ चुराते अमरूद
पकड़े जाने पर पिटते रखवार के हाथों दोनों

कौन करेगा यकीन कि मेरे घर में दोनों
एक ही बटकी में खाते बासी और उसके घर में मैं सब्जी-रोटी
आठवीं क्लास के बाद बिछड़े और मिले हैं आज
वही मित्र बमुश्किल से दो मिनट के लिए पधारे मेरे घर
और एक गिलास पानी तक नहीं पीया
निकल गए नाक-भौं सिकोड़ते

उसके कपड़े से महंगी इत्र की खुशबू आ रही थी
मेरे कपड़े से पसीने की तेज गंध
गांव बार-बार धूल की शक्ल में
उसके कपड़े से लिपट रहा था
मित्र उसे झाड़ते हुए रूमाल से चला गया
वापस शहर
कहीं उसे डस्ट एलर्जी न हो जाए।

1 comment:

  1. उसके कपड़े से महंगी इत्र की खुशबू आ रही थी
    मेरे कपड़े से पसीने की तेज गंध
    गांव बार-बार धूल की शक्ल में
    उसके कपड़े से लिपट रहा था
    मित्र उसे झाड़ते हुए रूमाल से चला गया
    वापस शहर
    कहीं उसे डस्ट एलर्जी न हो जाए

    bahut khoob...sundar rachna.

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