हिंदी और उर्दू को धूप-छांह की तरह जिस शायर ने एक-दूसरे के बेहद करीब किया है, बेशक वह निदा फाजली ही हैं। बहुत सहल भाषा में बहुत गहरी बातें उनकी शायरी की खूबी है। जैसे कि यह गजल-
गजल/निदा फाजली
बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुजर क्यों नहीं जाता
सब कुछ तो है क्या ढूंढती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक्त पे घर क्यों नहीं जाता
वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहां में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता
वो ख्वाब जो बरसों से न चेहरा, न बदन है
वो ख्वाब हवाओं में बिखर क्यों नहीं जाता
गजल/निदा फाजली
बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुजर क्यों नहीं जाता
सब कुछ तो है क्या ढूंढती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक्त पे घर क्यों नहीं जाता
वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहां में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता
वो ख्वाब जो बरसों से न चेहरा, न बदन है
वो ख्वाब हवाओं में बिखर क्यों नहीं जाता
वाह !
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