साथ-साथ

Saturday, February 5, 2011

शरमाना क्या, घबराना क्या!

पाकिस्तान की उर्दू  शायरी में इब्ने इंशा को बहुत ऊंचा मुकाम हासिल है। असल में वे एक अलग राह के सूत्रधार हैं- लगभग हमारे नागार्जुन  की तरह- जिसपर चलकर अहमद फराज और परवीन शाकिर ने शायरी को अलग ही रंगत और रौनक दी है। पंजाब के लुधियाना में 1927 में जन्मे इंशा 1949 में कराची जा बसे थे। पढि.ए उनकी यह गजल-

इंशा जी उठो और कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या
वहशी को सुकूं से क्या मतलब जोगी का नगर में ठिकाना क्या

इस दिल के दरीदा दामन में देखो तो सही, सोचो तो सही
जिस झोली में सौ छेद हुए उस झोली को फैलाना क्या

शब बीती चांद भी डूब चला जंजीर पड़ी दरवाजे में
क्यों देर गए घर आए हो सजनी से करोगे बहाना क्या

फिर हिज्र की लंबी रात मियां संजोग की तो यही एक घड़ी
जो दिल में है लब पर आने दो शरमाना क्या, घबराना क्या

उस हुस्न के सच्चे  मोती को हम देख सके पर छू न सके
जिसे देख सकें पर छू न सकें वो दौलत क्या वो खजाना क्या

जब शहर के लोग न रस्ता दें क्यों बन में न जा बिसराम करें
दीवानों की-सी न बात करे तो और करे दीवाना क्या

1 comment:

  1. जब शहर के लोग न रस्ता दें क्यों बन में न जा बिसराम करें
    दीवानों की-सी न बात करे तो और करे दीवाना क्या

    सचमुच , सोचने पर विवश करती हैं ये लाइन.

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