साथ-साथ

Friday, February 11, 2011

शताब्दी के शोर में शमशेर

नयी कविता के नाम से जो नया झरोखा खुला था, उसमें शमशेर बहादुर सिंह की कविता का बहुत बड़ा योगदान है. यह उनकी शताब्दी का वर्ष है और आयोजनों के अजीबोगरीब शोर में शमशेर जी की कविता का जो मौन है, वह बेसाख्ता महसूस होता है. कविता में उनके बिम्बों का तो कोई जवाब ही नहीं है. प्रस्तुत हैं उनकी दो छोटी कवितायें -
एक पीली शाम 
एक पीली शाम
पतझर का जरा अटका हुआ पत्ता
शांत
मेरी भावनाओं में तुम्हारा मुख कमल
कृश म्लान हारा-सा
( कि मैं हूँ वह मौन दर्पण में तुम्हारे कहीं ?)
वासना डूबी
शिथिल पल में
स्नेह काजल में
लिए अद्भुत रूप -कोमलता
अब गिरा अब गिरा वह अटका हुआ आंसू
सांध्य तारक- सा
अतल में.

लौट आ ओ धार
लौट आ ओ धार
टूट मत ओ सांझ के पत्थर
ह्रदय पर
( मैं समय की एक लम्बी आह
मौन लम्बी आह )
लौट आ, ओ फूल की पंखडी
फिर
फूल में लग जा
चूमता है धूल का फूल
कोई, हाय.

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