अरविन्द चतुर्वेद :
अप्रतिम गायक पंडित भीमसेन जोशी का जाना हर संगीत अनुरागी को एक गहरे अवसाद और अभाव से भर गया है। उनका न होना भारतीय शास्त्रीय संगीत जगत के लिए मुहावरे में नहीं बल्कि अक्षरश: अपूरणीय क्षति है। केवल इसलिए नहीं कि अब हम उन्हें गाते हुए नहीं सुन सकेंगे बल्कि इसलिए भी कि संगीत साधना के लिए अब उनके जैसा दूसरा कोई प्रेरक व्यक्तित्व नजर नहीं आता। एक निहायत ही बेसुरे समय में सुर साधक पंडित भीमसेन जोशी की कमी और भी ज्यादा अखरती है और मन को मथती है। बहुत से लोग, जिन्होंने जोशी जी को मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा गाते हुए टीवी के पर्दे पर देखा-सुना था, उनके जेहन में उनकी छवि, आलाप और तान अभी भी कायम होंगे। हालांकि अमर हो चुकी यह संगीत रचना तो महज जोशी जी के गायन की एक हल्की-फुल्की झलक भर थी, मगर उनका अवदान तो एक सुर समुद्र की तरह है जिसे गुणीजन भली-भांति जानते हैं। पंडित जसराज ने जोशी जी को याद करते हुए ठीक ही कहा है कि उन्होंने हमलोगों के लिए राह आसान कर दी है। जब पंडित जसराज यह कह रहे थे तो उनका आशय यही था कि शास्त्रीय राग-रागिनियों को उनके पूरे अनुशासन में प्रस्तुत करते हुए भी जोशी जी ने शास्त्रीय संगीत को पर्याप्त जनप्रिय बनाया और उसकी परिधि का अभूतपूर्व विस्तार किया। पंडित भीमसेन जोशी ने अपने गुरू के किराना घराने को अपनी गायकी से तो मालामाल किया ही, साथ ही खयाल, ठुमरी, भजन और अभंगों को गाकर शास्त्रीय गायन के क्षेत्र में अप्रत्यक्ष रूप से बने हुए छुआछूत को भी मिटाया। अगर हम गायकी से अलग इस महान सुर साधक की जीवनयात्रा को भी देखें तो वह भी देशप्रेम और एकता की अदूूभुत मिसाल है। हमारा समय कितना बेसुरा है यह जानने के लिए आप याद कर सकते हैं कि कुछ ही महीनों पहले बेलगाम इलाके की खींचतान को लेकर कर्नाटक और महाराष्ट्र में ठन गई थी और दोनों राज्य एक-दूसरे के आमने-सामने थे। मगर कर्नाटक में जन्मे पंडित भीमसेन जोशी ने अपना ठिकाना महाराष्ट्र में पुणे को बनाया था और अपने दक्षिण भारतीय मातृसंगीत कर्नाटक संगीत के बजाय हिंदुस्तानी संगीत के संधान और साधना के लिए ग्वालियर समेत पूरे देश की खाक छानी। यह उचित ही है कि कर्नाटक ने अपने महान सपूत के तिरोधान पर राजकीय शोक घोषित कर श्रद्घांजलि दी है। लेकिन इस बेसुरे समय में सबसे ज्यादा अखरने वाली बात तो यह है कि बाजारू संगीत के झंडूबाम में शीला की जवानी पर फिदा हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास गुणवत्तायुक्त भारतीय संगीत के लिए कोई अवसर नहीं है। भांति-भांति के मनोरंजन चैनलों की भरमार है, लेकिन किसी माई के लाल में बूता नहीं है कि भारतीय शास्त्रीय, पारंपरिक व लोक संगीत और कलाओं के लिए एक अदद चैनल चला सके। यह भी बेसुरे वक्त का ही तकाजा है कि न भारतीय कलाओं के लिए ललक है और न उनके लिए वातावरण बनाने का किसी में हौसला।
अप्रतिम गायक पंडित भीमसेन जोशी का जाना हर संगीत अनुरागी को एक गहरे अवसाद और अभाव से भर गया है। उनका न होना भारतीय शास्त्रीय संगीत जगत के लिए मुहावरे में नहीं बल्कि अक्षरश: अपूरणीय क्षति है। केवल इसलिए नहीं कि अब हम उन्हें गाते हुए नहीं सुन सकेंगे बल्कि इसलिए भी कि संगीत साधना के लिए अब उनके जैसा दूसरा कोई प्रेरक व्यक्तित्व नजर नहीं आता। एक निहायत ही बेसुरे समय में सुर साधक पंडित भीमसेन जोशी की कमी और भी ज्यादा अखरती है और मन को मथती है। बहुत से लोग, जिन्होंने जोशी जी को मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा गाते हुए टीवी के पर्दे पर देखा-सुना था, उनके जेहन में उनकी छवि, आलाप और तान अभी भी कायम होंगे। हालांकि अमर हो चुकी यह संगीत रचना तो महज जोशी जी के गायन की एक हल्की-फुल्की झलक भर थी, मगर उनका अवदान तो एक सुर समुद्र की तरह है जिसे गुणीजन भली-भांति जानते हैं। पंडित जसराज ने जोशी जी को याद करते हुए ठीक ही कहा है कि उन्होंने हमलोगों के लिए राह आसान कर दी है। जब पंडित जसराज यह कह रहे थे तो उनका आशय यही था कि शास्त्रीय राग-रागिनियों को उनके पूरे अनुशासन में प्रस्तुत करते हुए भी जोशी जी ने शास्त्रीय संगीत को पर्याप्त जनप्रिय बनाया और उसकी परिधि का अभूतपूर्व विस्तार किया। पंडित भीमसेन जोशी ने अपने गुरू के किराना घराने को अपनी गायकी से तो मालामाल किया ही, साथ ही खयाल, ठुमरी, भजन और अभंगों को गाकर शास्त्रीय गायन के क्षेत्र में अप्रत्यक्ष रूप से बने हुए छुआछूत को भी मिटाया। अगर हम गायकी से अलग इस महान सुर साधक की जीवनयात्रा को भी देखें तो वह भी देशप्रेम और एकता की अदूूभुत मिसाल है। हमारा समय कितना बेसुरा है यह जानने के लिए आप याद कर सकते हैं कि कुछ ही महीनों पहले बेलगाम इलाके की खींचतान को लेकर कर्नाटक और महाराष्ट्र में ठन गई थी और दोनों राज्य एक-दूसरे के आमने-सामने थे। मगर कर्नाटक में जन्मे पंडित भीमसेन जोशी ने अपना ठिकाना महाराष्ट्र में पुणे को बनाया था और अपने दक्षिण भारतीय मातृसंगीत कर्नाटक संगीत के बजाय हिंदुस्तानी संगीत के संधान और साधना के लिए ग्वालियर समेत पूरे देश की खाक छानी। यह उचित ही है कि कर्नाटक ने अपने महान सपूत के तिरोधान पर राजकीय शोक घोषित कर श्रद्घांजलि दी है। लेकिन इस बेसुरे समय में सबसे ज्यादा अखरने वाली बात तो यह है कि बाजारू संगीत के झंडूबाम में शीला की जवानी पर फिदा हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास गुणवत्तायुक्त भारतीय संगीत के लिए कोई अवसर नहीं है। भांति-भांति के मनोरंजन चैनलों की भरमार है, लेकिन किसी माई के लाल में बूता नहीं है कि भारतीय शास्त्रीय, पारंपरिक व लोक संगीत और कलाओं के लिए एक अदद चैनल चला सके। यह भी बेसुरे वक्त का ही तकाजा है कि न भारतीय कलाओं के लिए ललक है और न उनके लिए वातावरण बनाने का किसी में हौसला।
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