फैज अहमद फैज कहते हैं कि हमने पिंजरे में रहकर फरियाद का जो ढंग ईजाद किया है, समूचे गुलशन में वही तर्जे-बयां कायम है। पेश है यह खूबसूरत गजल-
अब वही हर्फ -ए-जुनूं सबकी जबां ठहरी है
जो भी चल निकली है वो बात कहां ठहरी है
आजतक शेख के इकराम में जो रौ थी हराम
अब वही दुश्मन-ए-दीं, राहत-ए-जां ठहरी है
है वही आरिज-ए-लैला, वही शीरीं का दहन
निगह-ए-शौक घड़ी भर को जहां ठहरी है
वस्ल की शब थी तो किस दर्जा सुबुक गुजरी थी
हिज्र की शब है तो क्या सख्त गरां ठहरी है
बिखरी इक बार तो हाथ आई है कब मौज-ए-शमीम
दिल से निकली है तो कब लब पे फुगां ठहरी है
दस्त-ए-सैयाद भी आजिज है, कफ-ए-गुलचीं भी
बू-ए-गुल ठहरी न बुलबुल की जबां ठहरी है
आते-आते यूं ही दम भर को रूकी होगी बहार
जाते-जाते यूं ही पल भर को खिजां ठहरी है
हमने जो तर्ज-ए-फुगां की है कफस में ईजाद
फैज गुलशन में वही तर्ज-ए-बयां ठहरी है
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हर्फ-ए-जुनूं= उन्माद का शब्द, इकराम= कृपादृष्टि, रौ= चीज,
दुश्मन-ए-दीं= धर्म विरोधी, आरिज-ए-लैला= लैला के गाल,
दहन= चेहरा-मुख, सुबुक= आसान, हिज्र= विरह, गरां= भारी,
मौज-ए-शमीम= खुशबू की लहर, फुगां= फरियाद,
दस्त-ए-सैयाद= शिकारी का हाथ, कफ-ए-गुलचीं= फूल चुननेवाले का हाथ, तर्ज-ए-फुगां= फरियाद का ढंग, कफस= पिंजरा।
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