साथ-साथ

Wednesday, December 22, 2010

चढ़ावों पर टिकी हैं आस्थाएं

गजलकार-कवि विनय मिश्र का जन्म पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद में हुआ, मगर नौकरी की डोर उन्हें राजस्थान के अलवर में ले गई। विनय जी गवर्नमेंट पीजी कॉलेज अलवर में हिन्दी के एसोसिएट प्रोफेसर हैं। पढि.ए उनकी दो गजलें-

दो गजलें/ विनय मिश्र

॥ एक॥
खुद से ही डरने लगे हैं अब तो अक्सर सोचकर
हाथ में रखने लगे हैं लोग पत्थर सोचकर।

हर तरफ ठहरी हुई सी जिंदगी है जब यहां
सोचता हूं कुछ बदल जाना है बेहतर सोचकर।

अब चढ़ावों पर टिकी हैं आस्थाएं देखिए
हंस पड़ा पूजा के मंदिर को मैं दफ्तर सोचकर।

इसमें दुनियाभर की चीजें आ गइं बाजार की
आजतक रहता रहा हूं मैं जिसे घर सोचकर।

मैं उतरता आ रहा हूं जलप्रपातों की तरह
एक दिन पाऊंगा मैं भी इक समंदर सोचकर।

यूं तो बाहर मुस्कराती हैं बहुत लाचारियां
कांप जाता हूं मगर मैं इनके भीतर सोचकर।

भागते पहियों पे सांसों के कहा जो भी कहा
इस हुनर के साथ लेकिन कुछ ठहरकर सोचकर।

॥ दो॥
आग सा मौसम हुआ जबसे ठिठुरती धूप का
रंग ही कुछ और है तेवर बदलती धूप का।

घिर गए हैं वो अंधेरों से यहां चारो तरफ
काफिला लेकर चले थे जो चमकती धूप का।

जिंदगी है शोर करते एक झरने का बहाव
मौत है साया पहाड़ों से उतरती धूप का।

रोशनी का भ्रम चलो टूटा बहुत अच्छा हुआ
कारनामा एक ये भी है छिटकती धूप का।

कुछ किताबों में पढ़ा था कुछ बुजुगों से सुना
याद है मुझको अभी तक चित्र हंसती धूप का।

दांव उसका, चाल उसकी, हैं उसी के फैसले
खेल जारी है यहां इक चाल चलती धूप का।

सिर्फ बाहर ही नहीं है अब इरादों की चमक
मेरे भीतर भी है मंजर अब मचलती धूप का।

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